किसी खिलाड़ी के नाम में अगर कई फर्स्ट जुड़े हों और वो खिलाड़ी महिला भी हो तो उन पर बायोपिक बनाना सिने जगत की ही नहीं देश की जरूरत होती है.
वैसे भी इंडस्ट्री में इन दिनों बायोपिक बनाने का ट्रेंड तेजी से उभरा है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर अपने दम पर एशियन गेम्स में जाकर गोल्ड जीतने वाले डिन्को सिंह पर भी बायोपिक बनाई जा रही है.
भारत में सबसे ज्यादा आउटडोर खेला जाने वाला इनडोर गेम है बैडमिंटन,इससे भी ज्यादा हैरानी की बात यह है कि एक अरब होने के पहले तक देश में इस लोकप्रिय खेल में सिर्फ एक सितारा था प्रकाश पादुकोण बाद में पुलेला गोपीचंद. अमोल गुप्ते की फिल्म इसलिए भी जरूरी थी कि हाथ में शटल उठा चुके तमाम युवा और बच्चे जान सके कि-
“शहज़ोर अपने ज़ोर में गिरता है मिस्ल ए बर्क
वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले”
साइना नेहवाल एक दिन में नहीं बनती,फ़िल्म एक बार फिर से दोहराती है कि जब मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चे नंबर वन बनते हैं तो नींव का पत्थर बनते हैं उनके मां-बाप जो पहले से ही उसी फील्ड से जुड़े होते हैं पर दिखाई नहीं देते,दिखाई देते हैं सिर्फ उनके कोच चाहे वो फोगाट सिस्टर्स हों, लेंडर पेस हों या ख़ुद साईना नेहवाल ही क्यों न हो.
फिल्म साइना की कहानी पूरी सच्चाई से कहती है तमाम उतार-चढ़ाव के साथ जब साइना को ‘फिनिश्ड ऑफ’कहा जाने लगा था तब उन्होंने कैसे न सिर्फ दमदार वापसी की बल्कि अपने बचपन का सपना वर्ल्ड नंबर एक को भी पूरा किया.
फिल्म खिलाड़ियों के जीवन के एक और एंगल को दिखाती है कि एक खिलाड़ी की लव लाइफ भी हो सकती है,जब कोच साइना को समझाते हैं कि -“चैंपियन बनने के लिए यह मायने नहीं रखता कि हम क्या करते हैं बल्कि यह मायने रखता है कि हम क्या छोड़ते हैं” इसी डायलॉग के जवाब में साइना का मोनोलॉग कि मेरी लव लाइफ नहीं हो सकती?सचिन को कोई क्यों नहीं कहता कि उसने 22 साल में शादी क्यों की? क्योंकि मैं लड़की हूं?इन सवालों के जवाब जो भी हो पर ऐसे दृश्य सोचने को मजबूर करते हैं.
जब साइना की कामयाबी को ग्लैमर वर्ल्ड भुनाने की कोशिश करता है तब साइना को अपने कोच के गुस्से का शिकार होना पड़ता है यह कॉनफ्लिक्ट ना सिर्फ खिलाड़ी और कोच के रिश्तो का है बल्कि दर्शकों के दिल और दिमाग पर भी उभरता है.
हमारे देश में खेल में अपार सम्भावनाएं हैं पर हमारे खिलाड़ी अक्सर फिटनेस की समस्याओं से जूझते नज़र आते हैं इतने पर भी चीन,जापान,कोरिया जैसे देशों के मजबूत खिलाड़ियों को अपने स्मैश के दम पर धू-धू कर देने वाली साइना के स्टेमिना और फूड प्रैक्टिस के लिए भी फिल्म देखी जानी चाहिए…हिम्मत लगन और जुनून का नाम है फिल्म साइना!
फिल्म अच्छी है पर अच्छी बन सकती थी क्योंकि स्टार कितना भी बड़ा हो बायोपिक एक ही बार बनाई जाती है. लेखक ने बड़ी समझदारी से पीवी सिंधु विवाद को फिल्म से दूर रखा है.परिणीति चोपड़ा ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है, फिल्म के लिए उन्हें थोड़ा और काम करना था.
मानव कौल इस फ़िल्म से खुद को शानदार अभिनेता स्थापित करते हैं जब वो कहते हैं कि -“हम बड़े सपने नहीं देखते जो पूरे नहीं होते बल्कि हम छोटे सपने देखते हैं जो बहुत जल्दी पूरे हो जाते हैं” दर्शकों को अपने अंदर झांकने के लिए मजबूर करती है.
मां के रूप में मेघना मलिक जिनके हिसाब से खेल में नंबर दो कुछ होता ही नहीं की आंखों की चमक पूरी फिल्म देखने के लिए बैठाती है ,ईशान नक़वी कश्यप के रोल में नहीं जमे हैं.
‘स्टैनले का डिब्बा’ फेम बच्चों के चहेते अमोल गुप्ते ने लिटिल साइना नायशा कौर भटोय के साथ बहुत अच्छा काम किया है जिसके हाथों में शटल सचमुच तलवार जैसे लगती है.
फिल्म में अनावश्यक कुछ भी नहीं है न स्टारडम न गाने न लाउड सीन्स और न ही देशभक्ति.
फोसिल्स के हज़ारों साल दबाव सहने और उसके हीरा बनने की तरह की कहानी है साईना,
फ़िल्म इसी 26 मार्च को रिलीज़ की गयी जो कोरोना के दूसरी लहर के चलते कम देखी गयी जिसे हर परिवार को देखा जाना चाहिए , कम से कम उन खेलप्रेमियों को जिन्हें भारत की बेटी साइना नेहवाल पर गर्व है. 2 घंटे 13मिनट की फ़िल्म अमेज़न पर उपलब्ध है रेटिंग आप फ़िल्म देखकर दें.
गति उपाध्याय
मीरजापुर