–बीस दिसंम्बर की रात–
बीस दिसंम्बर की रात को
घर के दरवाजे पर बैठी,
वह स्त्री….
भयानक ठंड में ठिठुर रही थी।
घर के अंदर जाने की आस में
उस बड़े से लोहे के गेट में,
अंदर, जहाँ सब कुछ शांत था।
पड़े थे सब दुबके, गर्म रजाईयों में
हीटर की गरमाहट में अपने आपको गरमाते
बेसुध, बेखैाफ,!
जैसे कुछ हुआ ही नही ?
बाहर खड़ी वह स्त्री
उस घर के दो पुरूषों
जिसमें एक की वह माँ है
और एक की पत्नी।
बाहर खुले आंसमा की चादर है
अंदर! घर में छत है,
और गर्म रजाईयों की चादर हैं।
घर के बाहर खड़ी वह स्त्री
जिसके सर की छत
खुला आंसमा है।
बिछौना उसका जमीं है।
लेकिन, उसके अंदर की आग में
हजारों रजाईयों की गरमाहट है।
उसके पैर, जो लकड़ी के हो गये है
अंगारों की तरह सुलग रहे है।
हजार रजाईयों और हीटर की
गरमाहट से भी कई गुना ज्यादा होती है
अपमान व तिरस्कार की आग।
बीस दिसंम्बर की वह रात ऐसी ही रात थी
जब दरवाजे पर बैठी वह स्त्री
हैरान थी, अपने आप पर
और मुस्कुरा रही थी
उस सर्द रात पर,
जब थी भयानक ठंड।
शहर दुबका पड़ा था
अपनी-अपनी गरमाहट में,
उस स्त्री के जिस्म में नही थी
कोई कंपकंपाहट।
उस विशाल लोहे के गेट के अंदर
दुबके पड़े थे वे हांड-मांस के इंसान
जिनके दिल व दिमाक जम गये थे
बरफ के मानिन्द,
जिसमें कोई अहसास,
कोई इंसानियत नही थी बाकी
हां वह सर्द व भयानक रात थी
वह बीस दिसंबर की रात थी।
-किरन सिंह-
बनारस