गौरव अवस्थी ‘आशीष’
गुलाम भारत को आजाद कराने में अपने प्राणों का बलिदान देने वाले शहीद-ए-आजम चंद्रशेखर आजाद की शूरता-वीरता के किस्से आम हैं। काकोरी कांड के बाद आजाद कभी हरिशंकर ब्रह्मचारी बने, कभी पंडित जी और कभी अंग्रेज सरकार के अफसर के ड्राइवर भी। क्रांतिकारी दल को मजबूत करने के लिए उन्होंने गाजीपुर के एक मठ के बीमार महंत से दीक्षा इसलिए ली कि उनके निधन के बाद मठ की संपत्ति क्रांति के काम आएगी। तीन-चार महीने महंत के मठ में समय बिताने के बाद जब संपत्ति प्राप्त करने के कोई आसार नजर नहीं आए तो वह पुनः क्रांति दल में सक्रिय हो गए। काकोरी कांड में फरारी के बाद आजाद के यह किस्से इतिहास में ही दफन होकर रह गए। आम लोगों के जेहन में उनके फरारी जीवन की जिंदगी घर नहीं कर पाई। आज उनकी शहादत का 91वां वर्ष है। आइए! आजाद के जीवन से जुड़े इन किस्सों से जुड़ा जाए.
सातार नदी का तट और हरिशंकर ब्रह्मचारी
काकोरी कांड में कई साथी तो अंग्रेज हुकूमत के हत्थे चढ़ गए लेकिन आजाद ‘आजाद’ ही रहे। हिंदुस्तानी विभीषण और अंग्रेजी सेना की खुफिया आजाद को पकड़ने के लिए पूरे देश में सक्रिय रही लेकिन आजाद पकड़े नहीं जा सके। फरार होने के बाद आजाद का अगला ठिकाना झांसी बना। खतरा देख आजाद ढिमरापुर में सातार नदी के तट पर कुटी बनाकर रहने लगे। यहां उन्होंने अपना नाम रखा ‘हरिशंकर ब्रह्मचारी’। इस बीच उनका झांसी आना-जाना भी बना रहा। ब्रह्मचारी के रूप में आजाद प्रवचन देते थे और बच्चों को पढ़ाते-लिखाते भी थे। एक दिन झांसी से साइकिल से लौटते समय इनाम के लालच में दो सिपाहियों ने रोक कर उनसे थाने चलने को कहा।
सिपाहियों ने कहा-‘ क्यों तू आजाद है?’ आजाद ने उन्हें समझाते हुए कहा- आजाद जो है सो तो है। हम बाबा लोग होते ही आजाद हैं। हमें क्या बंधन? आजाद ने हर तरह से बचने की कोशिश की। सिपाहियों को हनुमान जी का डर भी दिखाया लेकिन वह मानने को तैयार नहीं हुए। सिपाहियों के साथ थोड़ी दूर चलकर आजाद बिगड़े और कहा कि तुम्हारे दरोगा से बड़े हमारे हनुमान जी हैं। हम तो हनुमान जी का ही हुक्म मानेंगे। हमें हनुमान जी का चोला चढ़ाना है। कहते हुए आजाद भाग खड़े हुए। बलिष्ठ शरीर देखकर सिपाही पकड़ने के लिए उनके पीछे भागने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।
अचूक निशाने की अग्निपरीक्षा!
फरारी के दौरान झांसी के पास खनियाधाना के तत्कालीन नरेश खड़क सिंह जूदेव के यहां आजाद का आना-जाना हो गया। आजाद अपने साथी मास्टर रूद्र नारायण, सदाशिव मलकापुरकर और भगवानदास माहौर के साथ जूदेव के यहां अतिथि बनकर गए। वह राजा साहब के छोटे भाई बने हुए थे और उनके दरबार के अन्य लोगों के लिए ‘पंडित जी’। राजा साहब की कोठी के बगीचे में दरबार जमा हुआ था। बात निशानेबाजी की शुरू हुई। आजाद की बातें दरबार में उपस्थित ठाकुरों को पसंद नहीं आई। राजा के दरबारियों ने निशानेबाजी की परीक्षा लेनी चाही। बातों-बातों में आजाद के हाथों में बंदूक भी थमा दी गई। उनके साथी मास्टर रूद्र नारायण को आजाद की परीक्षा लेना उचित नहीं लगा। उन्हें डर था कि कहीं भेद खुल न जाए। उन्होंने बहाने से आजाद से बंदूक ले ली। भगवानदास माहौर ने बाल हठ करते हुए निशाना साधने की जिद की। बंदूक भगवानदास के हाथ में आ गई । एक पेड़ की सूखी टहनी पर सूखा अनार खोसा हुआ था। आजाद ने उन्हें अचूक निशानेबाजी की बारीक बातें बताई। भगवानदास माहौर के एक निशाने में सूखी टहनी पर खोसा हुआ अनार उड़ गया। इसके बाद माहौल सामान्य हुआ और आजाद अपने साथियों के साथ लौट आए।
बनारसी पितांबर और रेशमी कुर्ता-साफा
आजाद और उनके साथियों का क्रांतिकारी दल शुरुआती दौर में आर्थिक संकटों से गुजर रहा था। इसी बीच बनारस में क्रांति दल के साथियों को पता चला कि गाजीपुर में एक मठ के महंत बीमारी की अवस्था के चलते ऐसे लड़के की तलाश में थे, जिसको सन्यासी बनाकर मठ जिम्मेदारी सौंप दें। क्रांतिकारी दल की आर्थिक दिक्कतों को दूर करने के लिए आजाद ने अपने साथियों का वह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, जिसमें उन्हें महंत का शिष्य बनना था। साथी लोग लेकर उन्हें गाजीपुर के मठ में पहुंचे। यहां आजाद का नाम चंद्रशेखर तिवारी बताया गया। ‘आजाद’ उपनाम की चर्चा ही नहीं की गई। पंडित लड़का पाकर महंत जी काफी खुश हुए और अगले ही दिन मठ में आजाद को दीक्षा देकर अपना शिष्य बना लिया। दीक्षा के पहले सिर मुंड़ाकर उन्हें रेशमी साफा पहनाया गया। शरीर पर कीमती बनारसी पीतांबर और रेशमी कुर्ता हल्के भगवा रंग का धारण कराया गया। माथे पर शुद्ध चंदन-केसर का लेप भी। इस सबमें मठ के हजार रुपए तक खर्च हुए होने का अनुमान भी क्रांतिकारी दल के सदस्यों ने लगाया था। आजाद मठ में करीब 4 महीने रहे। इस बीच महंत पूरी तरह स्वस्थ हो गए। आजाद को जब यह महसूस हुआ कि उनका क्रांतिकारी दल का संपत्ति प्राप्ति का सपना यहां पूरा नहीं होगा तो आजाद एक दिन चुपके से वहां से खिसक लिए।
मजदूर जीवन
छात्र जीवन में आजाद का पढ़ाई-लिखाई से ज्यादा मन युद्ध कौशल सीखने, तलवार आदि चलाने में लगता था। इसके बाद भी उन्हें तहसील में नौकरी मिल गई थी लेकिन आजाद ‘आजाद’ थे। उन्हें अंग्रेजों की नौकरी पसंद कैसे आती? एक दिन वह एक मोती बेचने वाले के साथ मुंबई चले गए। कुछ मजदूरों की सहायता से उन्हें जहाजों को रंगने वाले रंगसाज का काम भी मिल गया। मजदूरी से मिले पैसों से वह अपना जीवन चलाते थे। मजदूरों की मदद से लेटने भर की जगह भी एक कोठरी में मिली लेकिन उस घुटन भरे माहौल में आजाद का मन नहीं लगा। कभी-कभी तो वह रात भर सिनेमा हाल में बैठे रहते। नींद लगने पर ही अपने बिस्तर पर आते। मुंबई का यंत्रवत जीवन आजाद को रास नहीं आया लेकिन मजदूर जीवन का अनुभव लेकर एक दिन बनारस जाने वाली ट्रेन में बिना टिकट बैठ गए। यहां उन्नाव के शिव विनायक मिश्र से उनकी भेंट हुई। उनकी मदद से संस्कृत पाठशाला में उन्हें प्रवेश मिल गया। 1921 के असहयोग आंदोलन में संस्कृत कॉलेज बनारस पर धरना देते हुए ही वह पहली बार गिरफ्तार हुए थे और 15 बेंतों की सजा हुई थी। यहीं से बालक चंद्रशेखर तिवारी चंद्र शेखर आजाद बना और आजीवन आजाद ही रहा।
जब अंग्रेज सिपाही को पटक-पटक कर मारा
चंद्रशेखर आजाद बनारस रेलवे स्टेशन पर रामकृष्ण खत्री और बनवारी लाल (जो काकोरी केस में इकबाली मुलजिम बने और 4 वर्ष की सजा मिली थी) के साथ प्लेटफार्म पर टहल रहे थे। कुछ अंग्रेज सिपाही भी प्लेटफार्म पर थे। एक अंग्रेज सिपाही ने प्लेटफार् पर जा रही हिंदुस्तानी नौजवान बहन के मुंह पर सिगरेट का धुआं फेंका। आजाद को अपनी हिंदुस्तानी बहन के साथ इस तरह की अभद्रता बर्दाश्त नहीं हुई और तुरंत अंग्रेज सिपाही पर झपट पड़े। लात, घूंसा थप्पड़ मारकर अंग्रेज सिपाही को गिरा दिया। अंग्रेज सिपाही इतना डर गया कि अपने दोनों हाथ ऊपर करके मार खाता रहा और कहता रहा-‘आई एम सॉरी, रियली आई एम वेरी सॉरी’। उसके अन्य साथी तो भाग ही खड़े हुए। आजाद ने तब अपने साथियों से कहा भी था कि इस साले अंग्रेज को सबक सिखाना जरूरी था ताकि आगे किसी हिंदुस्तानी बहन-बेटी के साथ छेड़खानी न कर सके।
ब्रह्मचारी का ‘ब्रम्हचर्य’ तोड़ने की वह कोशिशें
चंद्र शेखर आजाद ने देश को आजाद कराने की खातिर शादी न करने का वृत ले रखा था । आजीवन ब्रम्हचर्य भी उनका दृढ़ संकल्प था। उनके जीवन से जुड़े यह दो किस्से बड़े महत्वपूर्ण हैं। फरारी जीवन में ढिमरापुर में हरिशंकर ब्रह्मचारी के नाम से सातार नदी के किनारे रहते समय गांव की एक बाला उनके पीछे पड़ गई। किसी भी तरह उसके प्रभाव में न आने पर उस बाला ने अश्रु सरिता से मोहित-प्रभावित करने की भी कोशिश की लेकिन आजाद तो आजाद थे। गांव की बाला उनके पीछे लगाने में गांव के ही एक चतुर नंबरदार की साजिश थी। किसी भी तरह आजाद के बाला के प्रभाव में न आने पर वह नंबरदार आजाद का भक्त हो गया। उस नंबरदार ने आजाद को अपना पांचवा भाई मान लिया। उसे अपने सगे भाइयों से ज्यादा आजाद पर विश्वास हो चुका था। यहां तक कि उसने अपनी तिजोरी की चाबी भी आजाद को सौंप दी थी। बंदूकें भी उन्हीं की देखरेख में रहने लगीं। यह किस्सा स्वयं आजाद ने झांसी में अपने साथियों को सुनाया था।
दूसरा किस्सा, आजाद की एक जमींदार मित्र के घर का है। आजाद एक बार अपने धनी जमींदार मित्र के यहां रुके थे। मित्र को अचानक एक दिन के लिए बाहर जाना पड़ा। आजाद ने अन्यत्र रुकने का प्रस्ताव किया लेकिन जमींदार मित्र नहीं माने। आजाद उनके विशाल भवन के ऊपरी खंड में ठहरे थे। रात में कमरे में सो रहे थे। आधी रात के बाद जमींदार की विधवा बहन कमरे में आ गई। उसने कामेच्छा से धीरे से आजाद को जगाया। 24:00 अपने कमरे में विधवा बहन को देखकर आजाद को काटो तो खून नहीं। उन्होंने बहन को समझाया। बताया भी कि सांसारिक बंधन में बंधने का उनके पास अवसर ही नहीं है। विधवा बहन के न समझने पर आजाद बिजली की गति से बाहर निकले और तिमंजिले भवन की दीवार से नीचे कूद गए। कड़ाके की सर्दी वाली वह रात आजाद ने जंगल में एक पेड़ के नीचे गुजारी। कूदने के कारण चोट भी लगी लेकिन अपने ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया।
आजीवन आजाद रहे आजाद जी को बलिदान दिवस पर शत शत नमन!