आखेट पर निकली थी वो, भटक रही थी जंगलों में प्रण किया था कि रीते हाथ नहीं लौटेगी
रस्से पर चलने का दृढ़ निश्चय बचपन से ही सीखा था उसने जो चाहती वो करती
आज जंगल में जानवरों के खांद तो थे पर, जानवर जाने कहां लापता थे भय, लज्जा और निर्भयता के हठबंध में घिरी थी कि अचानक एक दुष्ट सियार अदृश्य झाड़ी से झपट कर उसके गले लग गया उसकी आतुरता से एक रहस्य की गंध आ रही थी
उसका दिल बुरी तरह धक-धक करने लगा वह विज्ञान,इतिहास और दर्शन सब भूल गई
इससे पहले कि दिल में संभावनाएं जगने लगती कलेजे की धक-धक के साथ उसने आंखों के संकेत से उसे दूर रहने का आग्रह किया
और अविलंब अपनी उमंग को भयानक वेग से बहते वक़्त की धार में बहा दिया