यशिका पाण्डेय, लेखिका
वह अविस्मरणीय शाम जो शायद ही कभी मेरे मस्तिष्क पटल से निकल पाए। दिसंबर का महीना था और ठंड अपनी चरम सीमा पर थी, हर रोज की तरह उस शाम भी मैं अपने काम से वापस आ रही थी, पर देर हो जाने के कारण मेरी बस छूट गई। इतनी परेशानी शायद कम थी, कि बादल भी बेमौसम बरस पड़े। बारिश से बचने के लिए सिर छिपाने की जगह ढूंढ ही रही थी कि सहसा मेरी नजरें कोने में बैठे एक बच्चे पर पड़ी, एक बच्चा जो शायद हर रोज उसी जगह पर बैठकर लोगों के जूते चप्पल सिला करता था, पर अपने जीवन की व्यस्तता के कारण मैंने कभी उस पर ध्यान नहीं दिया। शायद कभी ध्यान देती भी नहीं, अगर उस रोज मेरी बस छूटी ना होती। फटे पुराने कपड़े और वह रुआंसा उदास चेहरा जो उसकी भूख और लाचारी का आलम बयां कर रहे थे। हाथों में बूट पॉलिश करने के लिए ब्रश और आंखों में एक आस थी, कि शायद कोई राहगीर आए और उसे पांच-दस की आमदनी हो जो शायद उसकी भूख मिटा पाए।
उसकी आंखों को पूरी तरह पढ़ ही पाती कि मेरे सामने आकर एक बस खड़ी हो गई और मैं वहां से चल पड़ी। घर तो पहुंच गई किंतु पूरी रात उस मासूम बच्चे के चेहरे की बेबसी ने मुझे सोने नहीं दिया। मानो मेरा शरीर यहां पर आत्मा वही उस बस स्टॉप में छूट गई थी। दूसरे दिन रोज की तरह घर से काम के लिए निकली, और बस उसी बस स्टॉप पर उतर कर उस बालक की तलाश करने लगी।
बच्चा कहीं नजर नहीं आया आसपास के लोगों से पूछने पर उसके घर का पता चला जहां जाकर मैं देखती हूं, कि उसकी बूढ़ी दादी गंभीर रूप से बीमार अपनी अंतिम सांसे गिन रही हैं और कोने में बुखार से तड़पता वही बच्चा बस जमीन पर पड़ा हुआ है, यह देख अनायास मेरी आंखों से आंसू बहने लगे फौरन डॉक्टर को बुला कर बच्चे एवं दादी का उपचार करवाया जिससे दोनों की नेत्रों से मेरे प्रति आदर के भाव झलक रहे थे।यह करने के बाद जो मुझे आत्मिक सुख और मन को संतोष हुआ, शायद इतनी खुशी और आत्म संतोष लाखों रुपए कमाने पर भी नहीं होती।
(लेखिका की साहित्य के क्षेत्र में यह पहली कृति है।)