कौशल किशोर
नई दिल्ली। भारतीय पत्रकारिता के मध्य युग में टेबलॉइड और साप्ताहिक की बात पर ब्लिट्ज की चर्चा होती है। इसमें 1947 से 1987 के बीच एक स्तंभ चालीस सालों तक छपता रहा। हिन्ही व उर्दू में इसका अनुवाद ‘आजाद कलाम’ शीर्षक से प्रकाशित होता। ‘लास्ट पेज’ नामक स्तंभ इसके पहले बारह सालों तक सर फिरोजशाह मेहता के अखबार बॉम्बे क्रॉनिकल में छपता रहा। इनके स्तंभकार ख्वाजा अहमद अब्बास प्रगतिशीलता और उदारता की मिसाल कायम करते हैं। उनको भारत विभाजन के गुनहगारों में वामपंथियों की भूमिका बताने के लिए याद करना चाहिए। शायद इकलौते मुस्लिम भी थे, जिनका नाम पाकिस्तान में आगंतुकों के नाम पर विधिवत रूप से काली सूची में डाल दिया गया। इसका कारण द्विराष्टवाद के खिलाफ उनकी लेखनी से निकली चिंगारी मानी गई।
उनका जन्म 7 जून 1914 को हरियाणा के पानीपत जिले के प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। मिर्जा गालिब की अगली पीढ़ी के जाने माने शायर अल्ताफ हुसैन हाली उनके नाना थे और उनके दादा ख्वाजा गुलाम अब्बास 1857 के सिपाही विद्रोह के प्रमुख विद्रोहियों में शामिल थे। तोप से पानीपत में उड़ाए गए शहीदों में उनका नाम है। उनकी मां मसरूर खातून और उनके पिता ख्वाजा सज्जाद हुसैन शिक्षाविद् थे। अब्बास के पिता एएमयू (अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय) से स्नातक करने वाले पहले लोगों में से एक थे। उनके अधिकांश पूर्वजों ने सरकारी शिक्षा विभाग में सेवा दिया। लेकिन अब्बास ने छात्र जीवन में गांधीवादी सत्याग्रह के दौरान सरकारी नौकरी से दूर रहने का तय किया और आजीवन इसका पालन भी किया।
आत्मकथा में उनके प्रयोग का नाम है, मैं एक द्वीप नहीं हूँ (आई एम नॉट एन आईलैंड)। हर साल 52 किस्ते और लगातार यह श्रृंखला 52 वर्षों तक जारी रहा। दो खण्डों में प्रकाशित ये संकलन ऐतिहासिक महत्व की है। पचास के दशक में सांप्रदायिक दंगों पर ‘इंकलाब’ लिख कर साहित्यकार के रूप में नाम दर्ज किया। भोपाल गैस त्रासदी पर द इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में छपी मदर एंड चाइल्ड उनकी अंतिम कहानी साबित हुई। इस बीच 90 लघु कथा सहित 74 किताबे लिखीं।
गांधी जी के दक्षिण अफ्रीका से लौटने के पांच साल पहले ही उनके गुरु सर फिरोजशाह मेहता ने अंग्रेजी साप्ताहिक बॉम्बे क्रॉनिकल मुंबई से प्रकाशित करना शुरु किया था। अब्बास इसके रजत जयंती वर्ष में इसका हिस्सा हुए। उनके कार्यों को इसमें जगह मिली और उनका स्तंभ अगले 12 वर्षों तक जारी रहा। बाद में रूसी करंजिया के ब्लिट्ज में शामिल होने पर लास्ट पेज भी वहीं छपने लगा और यह अगले चार दशकों तक जारी रहा। अब्बास पिछली सदी के इतिहास के बेहतरीन स्तंभकार थे, जिन्होंने 3000 स्पष्ट गद्य रचनाएँ अखबारों में लिखीं।
क्रॉनिकल के लिए फ़िल्म समीक्षक भी रहे। अब्बास 1936 में बॉम्बे टॉकीज़ में प्रचारक के रूप में शामिल हुए। 1941 में पहला स्क्रीनप्ले नया संसार इनके मालिकों हिमांशु राय और देविका रानी को दिया था। शोमैन राज कपूर की कुछ बेहतरीन फ़िल्मों जैसे आवारा, श्री 420, मेरा नाम जोकर, बॉबी और हिना के लेखक भी वही थे। इसी वजह से कपूर साहब उन्हें ख्वाजा कहते थे। पता नहीं सिने-स्टार अमिताभ बच्चन कैसे उनको याद करते हैं। 1969 में आई बॉलीवुड फ़िल्म सात हिंदुस्तानी के लेखक, निर्माता व निर्देशक अब्बास ही रहे। उनके बैग में कुल चालीस फ़िल्में हैं। साथ ही प्रेस और सर्वोच्च न्यायालय में सेंसर बोर्ड पर उठाए सवाल भी उनके नाम दर्ज हैं।
सोसाइटी फॉर कम्युनल हार्मोनी की नेता और उनकी भतीजी डा. सईदा हमीद ने उनका एक सवाल दोहराया, “इंडिया को किसने मारा?” अपने शहर और देश को सांप्रदायिकता की ज्वाला में जलते देख 1947 में अब्बास ने यह सवाल उठाया था। उन्होंने कहा कि कैसे शहर हिंदू बॉम्बे बनाम मुस्लिम बॉम्बे में विभाजित हो गया। फिर कैसे उन्होंने शिवाजी पार्क क्षेत्र में स्थानीय स्वरक्षा दल के साथ मिलकर शांति और सौहार्द कायम करने का प्रयास किया। जस्टिस राजिंदर सच्चर और पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी जैसे लोगों ने भी यह सवाल दोहराया था। अब्बास की जन्म शताब्दी के अंत से पहले सामाजिक सद्भाव समझौते की परिकल्पना के साथ। इस कड़ी में प्रायः सभी लोग ट्रिब्यून में एक सदी पहले 1924 में प्रकाशित लाला लाजपत राय के 13 लेखों की श्रृंखला पेश करते हैं।
1977 में उनके जाने से एक दशक पहले ही आत्मकथा प्रकाशित हो गई थी। इसके एक अध्याय में फिर से वही सवाल उठाते हैं। यह विभाजन के ठीक तीन दशक बाद की बात है। उनकी रचनाएँ आज भी इस टिप्पणी के लिए मूल्यवान है, ‘भारत को ब्रिटेन ने मारा। पहला झटका तब लगा जब 1857 की घटनाओं के बाद आधी सदी तक उन्हें नज़रअंदाज़ करते रहे और घोर उपेक्षा करने के बाद अंग्रेजों ने मुसलमानों को अलग निर्वाचन क्षेत्र की माँग के लिए उकसाया और फिर उसे स्वीकार भी कर लिया। यह पाकिस्तान की ओर पहला कदम था।’
अब्बास ने दूसरे अपराधी की ओर अंगुली उठा कर कहा, ‘लेकिन अकेले अंग्रेजों ने ही नहीं। भारत को कट्टरपंथी मुस्लिम लीगियो ने मारा, जिन्होंने समुदाय की आशंकाओं और डर का फायदा उठाकर उनमें एक अजीबोगरीब मनोविकृति पैदा की, जो हीन भावना, आक्रामक कट्टरवाद, धार्मिक कट्टरता और फासीवादी नाजी किंवदंतियों का खतरनाक मिश्रण था।‘ तीसरा अपराधी हिंदू अलगाववाद के समर्थक, राष्ट्रवादी और कांग्रेसी नेताओं को कहा था। चौथे और अंतिम अपराधी के बारे में उन्होंने लिखा है कि ‘भारत की हत्या भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने की, जिसने मुस्लिम अलगाववादियों को पाकिस्तान की अतार्किक और राष्ट्रविरोधी मांग के लिए एक वैचारिक आधार प्रदान किया।‘ इसके अलावा उन्होंने पीपुल्स वॉर और पाकिस्तान समर्थक नीतियों का वर्णन करते हुए मातृभूमि, राष्ट्रीयता व आत्म निर्णय जैसे शब्दों का हथियार की तरह इस्तेमाल किया।
दो-राष्ट्र सिद्धांत के खिलाफ अब्बास के विमर्श में एक किस्म की मौलिकता है। आज उनकी 110वीं जयंती के मौके पर उनको श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए यह भी ध्यान रखना चाहिए कि 18वी लोक सभा चुनाव में अल्पसंख्यकों ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल बड़ी चतुराई से किया है। भारत के भविष्य में विभाजन की आशंका को इंगित करते सवाल भी इस कड़ी में हैं।