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Home साहित्य

शब्दों की कलाबाजी

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
26/07/20
in साहित्य
शब्दों की कलाबाजी

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कुमार मंगलम रणवीर

कुमार मंगलम रणवीर
परास्नातक,  
काशी हिंदू विश्वविद्यालय

 

 

 


सामने से आते साहब ने
रोबदार आवाज मे पल्ले झाड़ते हुए कहां आज का कवि वाहवाही
लूटने वाला जीव हैं और उसकी
कविता महज भ्रामक खेती….

मेरा कवि मन जैसे 1857 के सिपाही विद्रोह में लहूलुहान होकर
उस आदमी की ओर लपका…
साहब आप अपनी जुबां से जो
अफ़ीम बो रहे हैं, उसी से देश चल
रहे हैं…

साहब तमतमाकर शब्दों से मेरी
फफेली धरना चाहें…
अखाड़े में मैं कभी तो गया नहीं था

शब्दों से हमने भी लंघी मारें
आप वहीं लोग हैं जिसने जमीं को
दीमक बनकर बखूबी से चाटें…..
ढूंढते हैं मय्यत में आप व्यापार और नाफे
हम कवियों का क्या
पेट भरने के लिए शब्द बेचता हूं
जब हो थाली मे भोजन
तब शब्दों के तकिया पर ऊंघता हूं

पता हैं तुम्हें हम कमजोर दिखते हैं
कभी तेरे गर्दन पे पड़ने वाले त्रिशूल दिखते हैं…
हां भावुक हैं हम जरूर पिघलते हैं
लोगों के दुखों मे फुट फूटकर रोते हैं
आलोचक न बन सके तुम असरदार!
बन्दर कभी न जान सका अदरक
का स्वाद!

कल्पना भी हमारी हुई कभी झूठी
नहीं!
वहां भी हमने आजीवन सच को
उतारा,
जीवन का दुहाई देते जहां तुझ
सा बेचारा,
तुमसे निजी मेरी दुश्मनी नहीं
धारणा बदल लो वरना आजीवन
दुश्मन ही सही l

 

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