प्रहलाद सबनानी
सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक
अमेरिकी महाद्वीप की खोज के साथ ही उपनिवेशवाद का प्रारम्भ हुआ और यह 20वीं शताब्दी के लगभग आधे भाग तक निर्बाध रूप से चलता रहा। उपनिवेशवाद की पहली खेप 16वीं शताब्दी में प्रारम्भ हुई जब फ्रान्स, स्पेन एवं इंग्लैंड ने पृथ्वी के दक्षिणी भाग में स्थिति छोटे छोटे देशों को अपना उपनिवेश बना लिया। पश्चिमी देशों ने उपनिवेश देशों के मूल निवासियों को दूर दराज इलाकों में भेजते हुए यूरोपीयन देशों के निवासियों के लिए इन उपनिवेश देशों के व्यापार एवं प्रशासन पर अपना पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया। इन देशों के मूल निवासियों को न केवल उपनिवेश देशों में श्रमिकों के तौर पर इस्तेमाल किया जाने लगा बल्कि अन्य उपनिवेश देशों एवं पश्चिमी देशों में भी इन मूल निवासियों को ले जाकर श्रमिकों के तौर पर बसाया गया। उपनिवेश देशों से बहुत सस्ती दरों पर कच्चा माल अपने देशों में ले जाकर, इस कच्चे माल से उत्पाद निर्मित कर इन उत्पादों को इन्हीं उपनिवेश देशों में बहुत भारी मूल्य पर बेचा जाने लगा। अर्थात, पश्चिमी देश उपनिवेश देशों को अपने देश में निर्मित उत्पादों के बाजार के रूप में भी उपयोग करने लगे।
उदाहरण के लिए, उस खंडकाल में, अंग्रेजी प्रशासकों ने भारतीय जनमानस में यह भाव जगाया कि पश्चिमी मान्यताएं, वैज्ञानिक, सफल एवं विकसित मान्यताएं हैं एवं भारतीय परम्पराएं रूढ़िवादी, असभ्य, प्राचीन हैं एवं इसका विज्ञान से कोई सम्बंध नहीं है। इस प्रकार, पश्चिमी मान्यताओं का भरपूर प्रचार प्रसार किया गया। अंग्रेजी प्रशासन ने इस प्रकार की नीतियां बनाईं जिससे भारत का उद्योग लगभग समाप्त हो गया एवं भारत को केवल कच्चे माल के केंद्र के रूप में विकसित कर लिया गया। भारत से कपास बहुत ही सस्ती दरों पर ले जाकर, इंग्लैंड स्थिति कपड़ा निर्मित करने वाली मिलों में इस कपास का उपयोग कर कपड़ा निर्मित किया जाकर उसी कपड़े को भारत में लाकर भारतीय नागरिकों को ऊंची दरों पर बेचा जाने लगा। इससे भारतीय नागरिक गरीब से अतिगरीब होते गए एवं इंग्लैंड में रोजगार के नए अवसर निर्मित होते गए। इस प्रकार, पश्चिमी देशों द्वारा उपनिवेश देशों का भरपूर आर्थिक शोषण किया गया।
पश्चिमी देशों द्वारा उपनिवेश देशों के शोषण की दो पद्धतियां अपनायी गईं थी। एक पद्धति के अंतर्गत इन देशों के प्रशासन द्वारा उपनिवेश देशों में सीधे ही व्यापार किया जाने लगा। स्पेन ने अपने उपनिवेश देशों में इस पद्धति को अपनाया। स्पेन द्वारा अपनायी गई पद्धति के अंतर्गत उपनिवेश देशों के स्थानीय नागरिकों का धर्म परिवर्तित कर उन्हें ईसाई बनाया गया, ताकि ये नागरिक प्रशासन के प्रति वफादार बनें। स्पेन ने अमेरिकी महाद्वीप के उपनिवेश देशों में स्थानीय परम्पराओं, सभ्यता एवं संस्कृति को तहस नहस कर इन देशों में ईसाईयत को फैलाया। दूसरी पद्धति के अंतर्गत, इन देशों के व्यापारियों ने निजी क्षेत्र में कम्पनियां खड़ी कर (जैसे ईस्ट इंडिया ट्रेडिंग कम्पनी) इन कम्पनियों के माध्यम से उपनिवेश देशों के व्यापार को अपने कब्जे में कर लिया। इन कम्पनियों को प्रशासन द्वारा व्यापार के मामले में खुली छूट दे दी गई थी, ताकि ये कम्पनियां मुक्त हस्त से उनपनिवेश देशों के संसाधनों को लूट सकें। इंग्लैंड ने अपने उपनिवेश देशों में इस पद्धति को अपनाया।
पश्चिमी देशों ने अपने उपनिवेश देशों के स्थानीय नागरिकों का श्रमिक के रूप में इस्तेमाल करते हुए प्राकृतिक संसाधनों का अपने हित में भरपूर शोषण किया। उपनिवेश देशों के इसी दोहरे शोषण के कारण पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्थाएं मजबूत होती चली गईं। पूरी 19वीं शताब्दी के दौरान पश्चिमी देशों ने कई उपनिवेश देशों का इसी प्रकार शोषण किया जाता रहा। उपनिवेशवाद के तुरंत बाद साम्राज्यवाद को भी इन देशों पर थोप दिया गया। साम्राज्यवाद को लागू करने में कुछ देशों पर तो बल प्रयोग भी किया गया। यह सिद्ध किया गया कि उपनिवेश देशों की संस्कृति से पश्चिमी देशों की ईसाई संस्कृति श्रेष्ठ है। स्थानीय नागरिकों के ज्ञान को अधकचरा ज्ञान एवं अवैज्ञानिक ज्ञान कह कर उन्हें पश्चिमी सभ्यता जो कि वैज्ञानिक बताई गई, को अपनाने के लिए मजबूर किया गया। यह पश्चिमी सभ्यता पूंजीवाद पर आधारित थी, जिसके अंतर्गत उपनिवेश देशों के स्थानीय नागरिकों को उपभोगवादी बना दिया गया ताकि पश्चिमी देशों में निर्मित उत्पादों को यह स्थानीय नागरिक उपयोग कर सकें और इस प्रकार पश्चिमी देशों के उत्पादों के लिए एक बाजार तैयार हो सके।
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात पश्चिमी देशों पर उपनिवेश देशों को स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए दबाव बढ़ने लगा क्योंकि इन देशों के नागरिकों ने स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए आंदोलन छेड़ दिया था एवं कई देशों में यह आंदोलन हिंसक बनते जा रहे थे, जिसका शिकार इन देशों पर शासन एवं व्यापार करने वाले पश्चिमी देशों के नागरिक हो रहे थे। अतः 1940 के दशक से लेकर 1960 के दशक के बीच लगभग समस्त उपनिवेश देशों को राजनैतिक स्वतंत्रता प्रदान कर दी गई। पश्चिमी देशों का इन देशों पर राजनैतिक दबदबा समाप्त होने के पश्चात इन्हें यह आभास होने लगा कि किस प्रकार उपनिवेश देशों से पश्चिमी देशों को हो रहे आर्थिक लाभों को चालू रखा जाय। अतः भूमंडलीकरण का मुखौटा पहनकर इन देशों पर एक बार पुनः साम्राज्यवाद स्थापित करने का प्रयास पश्चिमी देशों द्वारा किया गया।
पश्चिमी देशों द्वारा सबसे पहिले तो कई अंतरराष्ट्रीय संस्थानों, जैसे विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा फंड, संयुक्त राष्ट्र, विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व व्यापार संगठन आदि का गठन किया गया। पूर्व के उपनिवेश देशों सहित अन्य छोटे छोटे देशों को भी इन समस्त संस्थानों का सदस्य बनाया गया। सदस्य बनाने पर इन देशों को यह आश्वासन दिया गया कि इससे इन देशों के आर्थिक विकास को बल मिलेगा एवं इन देशों के नागरिकों की गरीबी को दूर किया जा सकेगा। विकसित देशों द्वारा इन देशों को यह आश्वासन भी दिया गया कि इन देशों में विकसित देश अपना पूंजी निवेश करते हुए इन देशों के आर्थिक विकास में अपना भरपूर सहयोग प्रदान करेंगे। उक्त समस्त संगठनों पर मजबूत पकड़ चूंकि विकसित देशों की ही बनी रही अतः इन संगठनों के नीति निर्धारण में विकसित देशों द्वारा मुख्य भूमिका निभाई गई। इन संगठनों की नीतियों को विकसित देशों के हित में बनाया गया।
उक्त संगठनों में से वित्तीय संगठनों ने छोटे छोटे देशों में अपना पूंजी निवेश करना प्रारम्भ किया एवं इन देशों के व्यापार को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इन देशों को ऋण भी प्रदान किए गए। इस पूंजी निवेश को जिन शर्तों पर किया गया वे समस्त शर्तें विकसित देशों के हित में थीं। जैसे, विकसित देशों से उत्पादों के आयात पर किसी प्रकार की रोक यह देश नहीं लगा सकेंगे और यह देश कच्चे माल को विकसित देशों को उपलब्ध कराते रहेंगे। चूंकि इन देशों में पर्याप्त मात्रा में सस्ती दरों पर श्रमिक उपलब्ध थे अतः कुछ विकसित देशों ने अपनी विनिर्माण इकाईयों को भी इन देशों में स्थापित किया। इसके दो फायदे विकसित देशों को हुए, एक तो इन विनिर्माण इकाईयों द्वारा वातावरण में जहरीली गैस छोड़ी जा रही थी, जिससे विकसित देशों की जलवायु विपरीत रूप से प्रभावित हो रही थी, उससे बचा जा सका। दूसरे, इन देशों में उत्पादित वस्तुओं को विकसित देश अपनी शर्तों पर आयात करने लगे। इस सबका परिणाम यह हुआ कि कुछ देशों ने अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों से भारी मात्रा में ऋण लिया, जिसका भुगतान समय पर नहीं कर सके एवं कर्ज के जाल में फंसकर रह गए। इस प्रकार इन देशों को विकसित देशों ने आर्थिक सहायता के नाम पर अपने जाल में फंसा लिया है।
इसी प्रकार विकसित देशों ने छोटे छोटे देशों के कृषि क्षेत्र को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया। इन देशों में कृषि पदार्थों का उत्पादन बढ़ाकर इन देशों के नागरिकों की भूख मिटाने के नाम पर एवं वैज्ञानिक कृषि पद्धति एवं अधिक उत्पादन के नाम पर रासायनिक खाद, बीज एवं केमिकल आदि का उच्च मूल्यों पर भरपूर मात्रा में निर्यात विकसित देशों द्वारा इन देशों को किया जाने लगा। इन देशों के किसान उक्त पदार्थों के इस्तेमाल को बढ़ावा देने लगे जिससे अल्प अवधि में तो कृषि उत्पादकता बढ़ी परंतु लम्बी अवधि में जमीन बंजर होने लगी। इस प्रकार वैश्वीकरण के नाम पर छोटे छोटे देशों के कृषि क्षेत्र को भी बर्बाद कर दिया गया।
साथ ही, वैश्वीकरण के नाम पर छोटे छोटे देशों के नागरिकों को पूंजीवाद के लाभ समझाकर उन्हें भौतिकवादी बनाया गया ताकि इन देशों के नागरिक पश्चिमी देशों द्वारा निर्मित उत्पादों के उपयोग के आदी हो जाएं एवं इन उत्पादों का भरपूर मात्रा में निर्यात इन देशों को किया जा सके। पश्चिमी देशों की इस नीति को भारी सफलता भी मिली है। आज यह देश इस प्रकार के कई उत्पादों (कार, फ्रिज, मोटर साइकल, वॉशिंग मशीन, आदि) का आयात पश्चिमी देशों से कर रहे हैं। पश्चिमी देश अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुक्त व्यापार की वकालत कर रहे हैं ताकि छोटे छोटे देश अपने बाजार विकसित देशों के उत्पादों के लिए खोल दें हालांकि विकसित देश छोटे छोटे देशों द्वारा निर्मित उत्पादों को अपनी शर्तों पर ही खरीदने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार वैश्वीकरण के नाम पर पश्चिमी देशों द्वारा छोटे छोटे देशों को एक बार पुनः साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद की जद में लाने का प्रयास हो रहा है।
अब समय आ गया है कि उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद एवं पूंजीवाद की व्यवस्थाओं, जिसके अंतर्गत पश्चिमी देशों द्वारा विश्व के कई छोटे छोटे देशों का भरपूर शोषण किया गया है, के बाद अब राष्ट्रीयता पर आधारित अर्थव्यवस्था, जिसे भारत लागू करने का प्रयास कर रहा है, को विश्व के समस्त देशों में लागू किया जाना चाहिए ताकि वैश्विक स्तर पर गरीब वर्ग का वास्तव में ही भला किया जा सके।