“अहं ब्रह्मास्मि”
मैं लिखना चाहता हूँ
शाम के समय भटक चुके पंछी की यात्रा अनवरत
वापस नीड़ तक पहुंचने तक,
उलझने, आत्मविश्वास, ईर्ष्या, लोभ, निराशा, जय
और सबसे ज़्यादा असफ़लता,
क्योंकि जीवन में असफलताओं का, निराशा का साथ ही साथ आत्मविश्वास का भी
साक्षात देव् हूँ मैं,
अहं ब्रह्मास्मि।
मुझे अच्छा लगता है लिखना
मेरे शब्दों के अंधेरे नाबदान में रोशनी किसी चूहे की तरह रेंगती है, भागती है,
तुम सड़ांध से परहेज़ करो
मैं इस बंद नाली के अंधेरों में उजाले की धमाचौकड़ी लिखूंगा,
मेरे शब्द मर्यादा की अंतिम सीमा पर सत्य को ललकारेंगे
नैतिकता की सरहदों के घुसपैठिये करार दिए जाएंगे
अश्लील बेहूदा और बौड़म कह कर भुलाए भी जा सकते हैं
लेकिन झुठलाए तो कतई नही जा सकते।
लिखने तो लिखे जा चुके लगभग सारे धर्म ग्रंथ
नियमवालियाँ, संविधान
मात्र बाकी जो रहा वह तात्कालिक सत्य
जिसे जानता हर कोई है मात्र जानना नही चाहता
मैं लिखना चाहता हूं वह सत्य
जिसके माथे लगा टीका काला ही सही
किन्तु स्वयं जो सनातन हो,
ये जो स्वीकार्य अपराध हैं, अपराधी हैं
जिनके पक्ष में दलीलें हैं, सरकार है, सबूत है,
और है मूर्खों की एक बड़ी विशाल भीड़
मैं जब भी लिखूँगा इसका विपक्ष लिखूँगा,
हाँ मैं बेइंतहा लिखना चाहता हूँ
कि पत्तों पर हमेशा बची रहनी चाहिए ओस की नन्ही बूंदें
गलियों में बेलौस खिलखिलाहटें
घूंघट की ओट से ताकती कजरारी आँखें
संगीनों के हिस्से शांति के कुछ पुष्प
और क्रंदन, विलाप और विषाद भी,
क्योंकि मैं
अपने हिस्से का समय हूँ
जिसकी विडंबना है कि वह जानता है
कि नन्ही ओस की बूंद का जन्म खौलते कतरा भर पानी से होना है,
मैं लिखना चाहता हूँ
कि मेरे शब्दों में दुनिया अपना अक्स देखे
सच्चा और नंगा
नंगापन हमेशा अश्लील नही होता
कई बार लोग विद्रूप सच को भी अश्लील बता उसे झूठी नैतिकता का आवरण पहनाते हैं,
मैं लिखना चाहता हूँ तमाम दुनियावी आवरणों के विरुद्ध
कि भीतर का सच कभी मरता नहीं
अश्वनी तिवारी
-मलंग-
-मलंग-