प्रकृति की गोद में बसा अमरकंटक एक प्रसिद्ध और मन को शांति देने वाला प्राकृतिक एवं धार्मिक पर्यटन स्थल है। सबका पोषण करने वाली सदानीरा माँ नर्मदा का उद्गम स्थल होने के साथ ही यह अपने प्राकृतिक पर्यटन स्थलों एवं धार्मिक स्थलों के लिए सुविख्यात है। अमरकंटक की दुर्गम पहाडिय़ों और घने जंगलों के बीच सोनमूड़ा, फरस विनायक, भृगु का कमण्डल, धूनी पानी और चिलम पानी के साथ ही एक और महत्वपूर्ण स्थान है- चंडिका गुफा। यह स्थान रहस्य और रोमांच से भरा हुआ है। घने जंगलों में सीधे खड़े पहाड़ पर लगभग मध्य में यह गुफा कब और कैसे बनी कोई नहीं जानता? वह कौन योगी था, जो इस अत्यंत दुर्गम स्थान तक आया और यहाँ साधना की। गुफा के बाहर पत्थरों पर लिखे मंत्र भी रोमांच और कौतुहल पैदा करते हैं। ये मंत्र कब लिखे गए, यह भी कोई नहीं जानता। अमरकंटक का यह स्थान सामान्य पर्यटकों के लिए अनदेखा-अनसुना है। बहुत जिद्दी और साहसी लोग ही यहाँ आ सकते हैं। यह जोखिम भरा भी है। एक रोज हम बहुत सारा साहस बटोर कर, अनेक कठिनाईयों को पार कर इस रहस्यमयी और योगियों की तपस्थली चंडिका गुफा तक पहुँचे।
श्री नर्मदा मंदिर से दक्षिण दिशा की ओर लगभग चार किलोमीटर की दूरी पर चंडिका गुफा है। यह अमरकंटक का सबसे दुर्गम पर्यटन स्थल है। खड़े पहाड़ के लगभग मध्य में यह गुफा है। यह सिद्ध पीठ है। कुछ लोग इसे शक्तिपीठ भी कहते हैं। यहाँ साधु-संन्यासी विशेषकर तांत्रिक-योगी साधना करते रहे हैं। चंडिका गुफा तक पहुँचने के लिए कोई सीधा-सपाट मार्ग नहीं है। यहाँ तक आना एक रोमांचकारी और जोखिम भरी यात्रा है। पहाड़ पर ही एक पतली पगडंडी है, जिस पर केवल अकेले चला जा सकता है। यदि सामने से कोई आ जाए तो निकलना मुश्किल हो जाए। इस क्षेत्र की जानकारी रखने वाले लोगों को ही यह रास्ता मालूम है। यही कारण है कि यहाँ तक सामान्य पर्यटक पहुँच नहीं पाते हैं। आमतौर पर बहुत से पर्यटकों को चंडिका गुफा की जानकारी भी नहीं रहती है। पर्यटक मार्गदर्शक (टूरिस्ट गाइड) भी यहाँ आने से मना कर देते हैं। एक गाइड से जब हमने चंडिका गुफा चलने के लिए कहा तो उसने स्पष्ट इनकार कर दिया। उसने कहा- “पाँच सौ रुपये के लिए मैं अपनी जान जोखिम में नहीं डाल सकता”। उसने बताया कि यहाँ मधुमक्खियों के छते लगे हुए हैं। मधुमक्खियां हमला कर दें तो फिर आपके पास भागने का भी रास्ता नहीं होता है। एक ही रास्ता बचा रहता है कि आप चुपचाप बैठ जाओ, स्वयं को अधिकतम ढंक लो, बाकी मधुमक्खियों के ऊपर छोड़ दो। मन में विचलन पैदा करने वाली कुछ घटनाएं भी उसने सुनाईं। किंतु, उसके ये सब विवरण हमारी जिद को कमजोर नहीं कर सके। बल्कि हमारी इच्छा को और प्रबल कर दिया। विशेषतौर पर मेरे मन में एक ही धुन सवार थी कि कैसे भी करके चंडिका गुफा के दर्शन करने हैं।
हमने अमरकंटक के एक साहसी युवक श्वेतांबर को ढूंढ़ निकाला, जिसे चंडिका गुफा का रास्ता ज्ञात था। वह अकसर वहाँ जाता रहा है। विशेषकर नवरात्री के पावन पर्व पर वह और उसके मित्र चंडिका गुफा जाते हैं। हमने श्वेतांबर को अपनी यात्रा का मार्गदर्शक नियुक्त किया और चल पड़े एक रोमांचकारी यात्रा पर। इस यात्रा में मैं, मेरे मित्र मुकेश भांगरे, राजकुमार राठौर, अशोक मरावी और श्वेतांबर सहित पाँच लोग थे। धूनी-पानी और भृगु कमण्डल होते हुए थोड़ी देर बाद हम उस स्थान तक पहुँच गए, जहाँ से कठिन यात्रा शुरू होनी थी। पहाड़ पर पेड़ों और घास के झुरमुट के बीच से एक पतली पगडड़ी दिखाई दी। श्वेतांबर ने सबको सावधान किया कि हम सब धीरे-धीरे आगे बढ़ेंगे, पहाड़ का सहारा लेकर साध कर अपने कदम रखेंगे। ओस गिरी है इसलिए घास पर पिसल सकते हैं।
हम सबने कतार के रूप में आगे बढऩा शुरू किया। कई स्थानों पर श्वेतांबर ने खुद को आगे रखा और कई जगह उसकी सहायता से हम आगे बढ़े। एक स्थान ऐसा आया, जहाँ वह पगडंडी खत्म हो गई। सब श्वेतांबर की ओर देखने लग गए। अब कैसे आगे बढ़ेंगे? कहीं हम गलत रास्ते पर तो नहीं आ गए? उसने बताया कि हम ठीक रास्ते पर हैं। दरअसल, आगे की राह के लिए हमें दूसरी पगडंडी पकडऩी थी, जिसके लिए हमें पेड़ और घास को पकड़ कर 15-20 फीट नीचे उतरना था। हममें से कोई भी पर्वतारोही नहीं था। न कभी इस प्रकार खड़े पहाड़ पर चलने, चढऩे और उतरने का अनुभव रहा। वहाँ से नीचे उतरना कठिन था। ओस के कारण मिट्टी भी गीली हो गई थी, जिसके कारण फिसलन बढ़ गई थी। हम जहाँ खड़े थे, वहाँ ऊपर पहाड़ था और नीचे खाई। विकट स्थिति में फंस गए थे। मुकेश भांगरे के चेहरे पर थोड़ी घबराहट दिखाई थी। वह आगे बढऩे में हिचक रहे थे। किंतु, अब वापस लौटना मुश्किल था। वहाँ से आगे की ओर फिर भी बढ़ा जा सकता था, लौटना कठिन था। हम सबने मुकेश जी की हिम्मत बढ़ाई। उनका सहारा बने। हाथ पकड़ कर उन्हें जैसे-तैसे नीचे उतारा। ‘डूबते को तिनके का सहारा’ यह कहावत हम सबने खूब सुनी है। अर्थ सहित वाक्य में प्रयोग भी बचपन से करते आ रहे हैं। किंतु, अपन राम ने जीवन में पहली बार इस कहावत का व्यवहार में उपयोग किया। पहाड़ पर उगी घास को पकड़-पकड़ कर हम नीचे उतर रहे थे। यह अच्छा था कि घास जंगली थी और उसने पहाड़ को मजबूती से पकड़ रखा था। आज घास के तिनके हमारा सहारा बने। बहरहाल, नीचे उतर कर पगडंडी से फिर कुछ रास्ता तय किया। रास्ते में एक स्थान पर चट्टान बाहर की ओर निकल रही थी, उसको पकड़ कर दूसरी ओर निकलना था। यहाँ जरा-सी असावधानी हमें लगभग 300 फीट गहरी खाई में पहुँचा सकती थी। चट्टान को पकड़ कर उस ओर जब निकल रहे थे, तब यह ख्याल आया कि मोटापा (तोंद निकलना) कितना दु:खदायी है।
अनेक कठिनाइयों को पार करते हुए अंतत: हमें हमारी मंजिल नजर आने लगी। हम चंडिका गुफा तक पहुँच गए। सबने ‘माई’ का जोरदार जयकारा लगाया। सघन जंगल और विशाल पहाड़ के मध्म में हम माँ चंडिका की गुफा के सामने खड़े थे। ऊपर कहीं से बूंद-बूंद करके पानी गिर रहा था। हम हैरत से गुफा के बाहर चट्टानों पर काफी ऊंचाई तक लिखे मंत्रों को देख-पढ़ रहे थे। एक संदेश/उपदेश भी लिखा था। मुझे सिर्फ वही समझ आया। ‘मृत्यु से पहले जागो। हमेसा सुरति ईश्वर और मौत पर बनी रहे’। इस उपदेश का गहरा अर्थ है। अकसर हम सोये रहते हैं। या फिर भौतिक दुनिया की मोह-माया में खोये रहते हैं। अंत समय तक जागते नहीं। यह विचार नहीं करते कि ईश्वर ने हमें धरती पर किस हेतु भेजा है? क्या उसने मनुष्य को सिर्फ खाने-पहनने, आजीविका, संतति पैदा करने के लिए बनाया है? हम विचार नहीं करते और न जाने किस नींद में सांसारिक द्रव्यों के पीछे दौड़ते रहते हैं। अवश्य ही हमें समय रहते जाग जाना चाहिए और अपनी सुरति (मन, बुद्धि, चित्त, अहम) को हमेशा ईश्वर को जानने-समझने में लगाना चाहिए। ईश्वर के उद्देश्य के अनुरूप अपना जीवन बनाना चाहिए। उसका उद्देश्य क्या है- मानवसेवा। अनुमान लगाया जा सकता है कि चंडिका गुफा जैसे शांत और आध्यात्मिक ऊर्जा से भरे स्थान पर आकर योगी/तपस्वी योगक्रिया द्वारा मन, बुद्धि, चित्त और अहम को एक कर सुरति में परिवर्तित करते होंगे और फिर उस सुरति के माध्यम से ईश्वर की मंशा को जानने का प्रयत्न करते होंगे। सुरति का एक अर्थ स्मृति भी है। इसे स्मृति का अपभ्रंश भी कह सकते हैं। इस अर्थ से भी देखें तो संदेश स्पष्ट है कि व्यक्ति तभी सफल हो सकता है या मुक्ति पा सकता है, जब उसकी स्मृति में सदैव ईश्वर और मृत्यु बनी रहे। ये दोनों यदि हमारी स्मृति में रहे तो हम राह से नहीं भटकेंगे। हमें पता है कि एक दिन मृत्यु आनी है, तब किस बात के लिए मोहमाया में पडऩा। जिस व्यक्ति के ध्यान में यह बात सदैव रहे, वह सार्थकता की ओर ही बढ़ता है।
बहरहाल, हम सबने यहाँ काफी समय बिताया। सबके चेहरे पर आनंद का भाव था। हमारे लिए यह लंका जीत लेने से कतई कम विजय नहीं थी। ‘डर के आगे जीत’ वाली अनुभूति भी हो रही थी। हालाँकि कोई भी भ्रामक विज्ञापन के आधार पर बिकने वाली उस कोल्डड्रिंक को पीकर नहीं आया था, सब माँ नर्मदा के जल का आचमन करके ही यहाँ के लिए निकले थे। जंगल की ओर से आ रही सरसराती हवा, पत्तों की खडख़ड़ाहट, पक्षियों की आवाजें, मन को आनंदित कर रही थीं। अद्भुत शांति की अनुभूति हो रही थी। हम समझ गए कि क्यों योगियों ने इसे अपनी तपस्थली के तौर पर चुना होगा।
(लेखक ट्रैवलर-ब्लॉगर हैं। वर्तमान में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं।)