राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा, भगवा ध्वज और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर अनेक प्रकार के भ्रम फैलाए जाते हैं। यहाँ तक कहा जाता है कि आरएसएस भगवा ध्वज को मानता है इसलिए संघ के स्वयंसेवक तिरंगा का सम्मान नहीं करते हैं। प्रखर राष्ट्रभक्त संगठन के बारे में इस प्रकार की भ्रामक बातों को यूँ तो समाज स्वीकार नहीं करता है परंतु फिर भी एक वर्ग तो भ्रम में पड़ ही जाता है। समाज को भ्रमित करनेवाले झूठे नैरेटिव का तथ्यात्मक उत्तर लेखक लोकेन्द्र सिंह ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘राष्ट्रध्वज और आरएसएस’ के माध्यम से दिया है। उन्होंने अपनी पुस्तक में राष्ट्रध्वज तिरंगा, सांस्कृतिक ध्वज भगवा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अंतर्संबंधों का विश्लेषण किया है। राष्ट्रध्वज और आरएसएस के संदर्भ में कई नए तथ्य यह पुस्तक हमारे सामने लेकर आती है। यह पुस्तक हमें बताती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने कब और किन परिस्थितियों में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के सम्मान में अपने प्राणों तक की आहुति दी है। इसके साथ ही यह पुस्तक राष्ट्रध्वज के निर्माण की कहानी से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य भी हमारे सामने लेकर आती है।
हम सब जानते हैं कि ध्वज, किसी भी राष्ट्र के चिंतन एवं ध्येय का प्रतीक होता है। राजनीतिक रूप से विश्व पटल पर राष्ट्रीय ध्वज ‘तिरंगा’ भारत की पहचान है। 1905 से ही अनेक झंडे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में प्रस्तुत किये गए। जिसके बाद संविधान सभा द्वारा 22 जुलाई, 1947 को तिरंगे को राष्ट्रध्वज के रूप में स्वीकार किया। राष्ट्रध्वज के रूप में तिरंगे का सम्मान होने के साथ ही भगवा ध्वज को भारत का सांस्कृतिक प्रतीक माना जाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भगवा ध्वज को अपना गुरु मानता है। भारत के ‘स्व’ से कटे हुए कुछ लोग और समूह भगवा ध्वज को नकारते हैं। साथ ही यह भ्रम भी फैलाते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तिरंगे को सम्मान नहीं देता। लेकिन ऐसा कहने वाले शायद ये नहीं जानते कि एक ध्वज का मान रखना दूसरे का निरादर करना कतई नहीं है। उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत की यह बात समझनी चाहिए, जिसमें वे कहते हैं कि स्वतंत्रता के जितने सारे प्रतीक हैं, उन सबके प्रति संघ का स्वयंसेवक अत्यंत श्रद्धा और सम्मान के साथ समर्पित रहा है।
लेखक लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक ‘राष्ट्रध्वज और आरएसएस’ हमें स्मरण कराती है कि तिरंगे के सम्मान में संघ ने तब भी आंदोलन चलाए जब सत्ताधीश जम्मू-कश्मीर में राष्ट्र की संप्रभुता को ताक पर रखकर दो प्रधान, दो विधान, दो निशान (ध्वज) स्वीकार कर चुके थे। उन परिस्थितियों में भी संघ ने विरोध करते हुए देश में एक प्रधान, एक विधान, एक निशान होने की मांग की। उन्होंने स्पष्ट किया कि एक राष्ट्र में एक ही ध्वज चलेगा, जो कि तिरंगा है। वर्ष 1942 में महात्मा गांधी के आव्हान पर हुए असहयोग आंदोलन के दौरान तिरंगा फहराते हुए स्वयंसेवकों को गोली लगने की बात हो, वर्ष 1947 में जम्मू कश्मीर में श्रीनगर की कई इमारतों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने के विरोध में संघ के स्वयंसेवको की कार्रवाई हो, या फिर गोवा मुक्ति आन्दोलन में संघ के स्वयंसेवकों को गोली लगने के बाद भी अपने हाथ से तिरंगा न गिरने देने की घटना हो। सभी अवसरों पर संघ के कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रध्वज के सम्मान में सर्वोच्च बलिदान देने का साहस दिखाया है। ऐसे कई महत्वपूर्ण तथ्य इस पुस्तक के माध्यम से हमारे सामने आते हैं।
पुस्तक में यह भी उल्लेख आता है कि अपना नैरेटिव गढ़ने के लिए संघ और राष्ट्रध्वज तिरंगे को लेकर उन लोगों ने संघ के संदर्भ में अनेक भ्रांतियां फैलाईं, जिन्होंने स्वयं ही 2022 से पहले तक अपने मुख्यालयों पर तिरंगा नहीं फहराया था। प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियों ने 2022 में पहली बार अपने पार्टी मुख्यालयों पर राष्ट्रध्वज फहराया। लेखक लोकेन्द्र सिंह ने ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर संघ और तिरंगे को लेकर फैलाये जाने वाले नैरेटिव से पर्दा उठाया है। अपनी पुस्तक में उन्होंने बड़ी ही सरलता से राष्ट्रध्वज के विकास की यात्रा में भगवा ध्वज का महत्व एवं तिरंगे के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक के अंतर्संबंधों का विश्लेषण प्रस्तुत किया है। यह बड़ी ही रोचक पुस्तक है।
जो भी सच जानने में रुचि रखते हैं, उन्हें ‘राष्ट्रध्वज और आरएसएस’ अवश्य पढ़नी चाहिए। यह छोटी पुस्तक है। लेखक ने गागर में सागर को समेटने का प्रयास किया है, जिसमें वे सफल रहे हैं। लेखनी में सहजता और सरलता है। पुस्तक अपने पहले अध्याय से लेकर आखिरी अध्याय तक पाठकों को बांधे रखने की क्षमता रखती है। ‘राष्ट्रध्वज और आरएसएस’ का प्रकाशन राष्ट्रीय विचारों को समर्पित अर्चना प्रकाशन, भोपाल ने किया है।
पुस्तक : राष्ट्रध्वज और आरएसएस
लेखक : लोकेंद्र सिंह
पृष्ठ : 56
मूल्य : 70 रुपये
प्रकाशक : अर्चना प्रकाशन, भोपाल