जम्मू-कश्मीर से लेकर नॉर्थ-ईस्ट तक स्थित हिमालयी राज्यों में बन रही बड़ी-बड़ी विकास परियोजनाओं का असर खतरनाक रूप में हमारे सामने यूंं तो साल भर किसी न किसी रूप में आता ही रहता है लेकिन बारिश शुरू होते ही इसका विकराल स्वरूप हमें डराने लगता है. समय आ गया है कि केंद्र एवं राज्य सरकारें इस बात पर गंभीरता से विचार करें कि क्या देश का विकास मॉडल हिमालयी राज्यों पर लागू करना उचित है या इसके लिए अलग मॉडल तैयार करने की जरूरत है?
हिमालयी राज्यों के विकास मॉडल को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं. सवाल आम आदमी ने उठाए तो इन राज्यों में रहने वाले खास लोगों ने भी उठाये. सवाल सुप्रीम कोर्ट ने भी अनेक मौकों पर उठाए तो उन हस्तियों ने भी उठाए जिन पर भारत सरकार ने अनेक मौकों पर भरोसा किया. जिम्मेदारियाँ सौंपीं. गंगा एक्शन प्लान से लेकर अनेक विकास परियोजनाओं को लेकर बनी कमेटियों के सदस्य, चेयरमैन तक रहे वैज्ञानिक रवि चोपड़ा ने भी सवाल उठाए लेकिन विकास के नाम पर आम से लेकर खास तक की अनसुनी की गयी. किसने की, कब की, क्यों की, अब यह किसी से छिपा नहीं है. साल 2013 में आए आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक हाई पॉवर कमेटी बनाई.
छलनी हो रहा हिमालय
आल वेदर रोड के नाम पर जब हिमालय को छलनी किया जाना शुरू हुआ तब भी मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा. कमेटी फिर बनी. दोनों ही कमेटियों के हिस्सा रहे रवि चोपड़ा अक्सर निराश हो जाते हैं क्योंकि रिपोर्ट को दरकिनार कर फैसले लिए जाते हैं. जल्दबाजी में फैसले लिए जाते हैं. यह काम वे लोग करते हैं जिनके पास हिमालय की संवेदनशीलता की रत्ती भर जानकारी नहीं है. ऐसा न होता तो छोटे-छोटे हिमालयी राज्यों में बड़ी-बड़ी परियोजनाएं नहीं बनतीं.
साइंटिस्ट हिमालय को कच्चा पहाड़ कहते हैं. यह पूरा इलाका भूकंप के खतरनाक ज़ोन में आता है. ऐसा नहीं है कि पहली बार रिपोर्ट दबाई गयी है. उत्तराखंड के जोशीमठ में जब घरों में दरारें आनी शुरू हुई और लोग घर छोड़कर जाने को मजबूर हुए तो पता चला कि यहाँ को लेकर 1976 में आई एक रिपोर्ट को भी दरकिनार किया गया था. मिश्रा कमेटी की यह रिपोर्ट स्पष्ट कह गई थी कि जोशीमठ के आसपास खुदाई नहीं की जा सकती. यह ऊँचाई पर बसा कस्बा है. कोई भी हरकत हुई तो यह समाप्त हो जाएगा.
बिजली परियोजनाओं ने किया सबसे ज्यादा प्रभावित
हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड समेत लगभग सभी हिमालयी राज्यों में बिजली परियोजनाओं के लिए बड़े पैमाने पर हिमालय को छलनी किया गया है. उत्तराखंड में ऋषिकेश से कर्ण प्रयाग तक बन रही रेललाइन के चक्कर में 30 से ज्यादा गांवों में दरार पड़ने लगी है. कई सुरंगें भी बनाई गयी हैं. जब रेल शुरू होगी, आशंका है तब आसपास गांवों को और नुकसान हो सकता है. पद्मभूषण डॉ अनिल जोशी सवाल पूछते हैं कि मौजूदा मॉडल आखिर विकास कर किसका रहा है? जवाब भी देते हैं-कम से कम हिमालय और यहाँ रहने वालों का तो विकास नहीं हो रहा है. हर बड़े प्रोजेक्ट के साथ कुछ गाँव, पुरवे खत्म हो जाते हैं. हिमालय की गोद में बसे किसी भी राज्य की आबादी करोड़ों में नहीं है. कुछ लाख लोग ही रहते हैं तो इनकी जरूरतें भी सीमित हैं.
पहाड़ के लोग करते हैं विरोध
विकास का मॉडल भी सीमित होना चाहिए. डॉ जोशी कहते हैं कि हम सड़कों का विरोध नहीं करते, बिजली परियोजनाओं का विरोध नहीं करते लेकिन ऐसी सड़कों, ऐसी बिजली परियोजनाओं का विरोध निश्चित करते हैं और करते रहेंगे जो हिमालय को छलनी करके बनाए जा रहे हैं. बड़ी-बड़ी सुरंगें बनाकर विकास का नया मॉडल देने की कोशिश हो रही है, हम पहाड़ के लोग इसका विरोध करते हैं. विकास के ये मॉडल हमारे लिए तो हैं भी नहीं, फिर सरकारें बताएं कि यह मॉडल किसके लिए अपनाए जा रहे हैं? डॉ जोशी कहते हैं कि प्रधानमंत्री को अब इसमें हस्तक्षेप करना होगा. राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा करनी होगी. फिर हिमालय की गोद में बीएसई राज्यों एवं उनके गाँव-कस्बों का मॉडल बनाए जाने की जरूरत है. पहले हम इकनॉमिक डिसपैरिटी के शिकार रहे हैं और अब इकोलॉजिकल डिसपैरिटी के शिकार हो रहे हैं. इसमें तत्काल बैलेंस बनाने की जरूरत है.
हिमालय में हैवी कंस्ट्रक्शन ठीक नहीं
पर्यावरणविद सुरेश भाई कहते हैं कि हिमालय में हैवी कंस्ट्रक्शन संभव नहीं है फिर भी हम करते जा रहे हैं. हिमालय में बहुमंजिली इमारतों की जगह नहीं है फिर भी हम बनने दे रहे हैं. विकास के नाम पर पानी बहाव के अनेक रास्ते बंद हो गये हैं जबकि पहाड़ों से रिसाव बना हुआ है. यही रिसाव लोगों के घरों-प्रोजेक्ट तक पहुंचता है. दरों-दीवारों को कमजोर करता है. नतीजतन, हल्का सा भूकंप आने पर ऐसे भवन इमारतें धराशाई होते हुए देखे जा रहे हैं. जान-माल का नुकसान न हो तो शोर भी नहीं होता.
सुरेश भाई कहते हैं कि उन्होंने 1977-78 में आई विभीषिका को देखा है. खूब पानी आया लेकिन उसके बहाव के रास्ते में कोई बाधा नहीं थी तो नुकसान न के बराबर हुआ. साल 2013 में आई वैसी ही विभीषिका में बहुत कुछ तबाह हो गया क्योंकी हमने विकास कर लिया था. ऐसे विकास का क्या फायदा जो स्थानीय लोगों के जान पर बन आए. वे कहते हैं कि सभी हिमालयी राज्यों के विकास को एक अलग मॉडल की जरूरत है. उन्होंने बताया कि साल 2015 में एक प्रस्ताव प्रधानमंत्री को सौंपा था. नीति आयोग में बैठक भी हुई थी लेकिन फिर आगे क्या हुआ, किसी को नहीं पता.
विनाश का कारण हैं बड़े प्रोजेक्ट
सुरेश भाई दुखी मन से कहते हैं कि देश में हिमालय और दलित, एक जैसे हो गए हैं. दोनों समाज के लिए मेहनत करते हैं. पसीना बहाते हैं. समाज को लौटाते हैं. पर, समाज और सरकारें कुछ भी नहीं वापस करने को तैयार हैं. पर्यावरण और हिमालय को समझने वाले सभी विद्वानों का मत है कि बड़े प्रोजेक्ट्स विनाश का कारण हैं. अगर इन्हें नहीं रोका गया तो हमें अभी और विनाश देखना होगा. हम प्रकृति से खेल रहे हैं और वही विनाश के रूप में हमें वापस मिल रहा है. यह सचेत होने का समय है. पूरे हिमालय के लिए एक पृथक विकास मॉडल बनाए जाने की जरूरत है.