नई दिल्ली: बिहार में अचानक बीजेपी सवर्णों के वोट को लेकर कुछ ज्यादा ही चिंतित नजर आ रही है. बिहार विधानसभा चुनावों के कुछ दिन पहले बिहार सरकार के सवर्णों के हित की चिंता सवर्ण आयोग बनाने के फैसले में देखा जा सकता है. यही नहीं बिहार बीजेपी के एक बड़े नेता को 50 साल पहले हुई पूर्व रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र हत्याकांड की जांच की याद भी आ गई है.
ये दोनों उदाहरण काफी हैं यह बताने के लिए कि एनडीए सरकार को ऐसा लगने लगा है कि सवर्णों के बीच पार्टी का आधार खिसक रहा है. खासकर युवा सवर्णों में, जो जातिगत जनगणना, नीतीश के साथ गठजोड़, और सवर्ण-केंद्रित नीतियों की कमी से शायद नाराज लग रहे हैं. दूसरी तरफ प्रशांत किशोर की जनसुराज जैसी पार्टियां सवर्ण वोटों में सेंध लगाने की कोशिश कर रही हैं. हालांकि, बीजेपी अभी भी सवर्णों की पहली पसंद बनी हुई है,पर खतरा तो साफ दिख रहा है.
सवर्णों को मनाने की नौबत क्यों आ गई है
2023 में नीतीश कुमार सरकार द्वारा जारी जातिगत सर्वे ने बिहार में ओबीसी, अति-पिछड़ा, और दलित केंद्रित नीतियों को बढ़ावा दिया. इस सर्वे के बाद आरक्षण को 65% तक बढ़ाने और सामाजिक न्याय की राजनीति ने सवर्णों में यह धारणा पैदा की कि बीजेपी उनकी उपेक्षा कर रही है.
बीजेपी ने इस सर्वे का औपचारिक विरोध किया, लेकिन नीतीश के साथ गठबंधन के कारण इस मुद्दे पर उनका रुख कमजोर दिखा. अब केंद्र की एनडीए सरकार ने भी जातिगत जनगणना कराने की हामी भर दी है. जाहिर है कि प्रदेश के सवर्णों को लगता है कि एक न एक दिन एनडीए सरकार 65 प्रतिशत आरक्षण की मांग को भी स्वीकार कर लेगी. यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रति सवर्ण युवाओं का मोहभंग हो रहा है. विशेषकर बिहार में उनकी आखिरी उम्मीद बीजेपी ही थी. पर अब बीजेपी को खुलकर पिछड़ा कार्ड खेलते हुए देख बहुत से सवर्ण युवक मायूस हुए हैं.
ब्राह्मणों को फिर से जोड़ने की कांग्रेस की मुहिम से चिंता
कांग्रेस की सवर्ण-केंद्रित रणनीति भी बीजेपी के लिए चिता का विषय है. 2023 में कांग्रेस ने बिहार के 38 में से 25 जिलाध्यक्षों को सवर्ण समुदायों से नियुक्त किया, जिसमें 12 भूमिहार, 8 ब्राह्मण, और 6 राजपूत शामिल हैं. यह रणनीति सवर्ण वोटरों, विशेष रूप से ब्राह्मणों, को फिर से जोड़ने की कोशिश थी. मिथिलांचल, जहां ब्राह्मणों की अच्छी खासी आबादी है, में कांग्रेस ने मदन मोहन झा जैसे ब्राह्मण नेताओं को आगे बढ़ाया. 2025 में राहुल गांधी की पटना यात्राएं जैसे 18 जनवरी को संविधान सुरक्षा सम्मेलन और 5 फरवरी को जगलाल चौधरी जयंती ने ब्राह्मणों और अन्य समुदायों में पार्टी की सक्रियता को बढ़ाया.
कांग्रेस ने कन्हैया कुमार को नौकरी दो-पलायन रोको यात्रा की कमान सौंपी है जो ब्राह्मण युवाओं को शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दों से जोड़ रही है. कन्हैया की ब्राह्मण भूमिहार पृष्ठभूमि और वक्तृत्व कौशल मिथिलांचल और अन्य क्षेत्रों में युवा ब्राह्मणों को आकर्षित कर रहे हैं.
स्वतंत्रता के बाद से 1990 तक कांग्रेस बिहार की सियासत में हावी थी और ब्राह्मणों की प्रिय पार्टी रही थी. बिहार में 18 में से कई मुख्यमंत्री (जैसे श्रीकृष्ण सिंह, जगन्नाथ मिश्रा) ब्राह्मण या सवर्ण समुदाय से थे.आज की तारीख में भी हर गांव में कुछ ब्राह्मण वोटर विशेष रूप से पुरानी पीढ़ी के लोग कांग्रेस को अपनी ऐतिहासिक पार्टी के रूप में देखते हैं.
4-जनसुराज और प्रशांत किशोर का उभार
किशोर ने ब्राह्मण, राजपूत, दलित, और कुर्मी (BRDK) समुदायों को साधने की रणनीति अपनाई है. ब्राह्मणों के लिए, उन्होंने मिथिलांचल में सक्रियता बढ़ाई, जहां उनकी अच्छी-खासी आबादी है. राजपूत वोटरों को लुभाने के लिए पूर्व सांसद उदय सिंह (पप्पू सिंह) को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया, जिनकी राजपूत समुदाय में पैठ है.
प्रशांत किशोर स्वयं ब्राह्मण समुदाय से हैं, जिसका वे अप्रत्यक्ष रूप से लाभ उठा रहे हैं. उनकी स्वच्छ राजनीति और बिहार में व्यवस्था परिवर्तन की बात सवर्ण युवाओं को आकर्षित कर रही है, जो बीजेपी की हिंदुत्व-केंद्रित लेकिन सवर्ण-विशिष्ट नीतियों की कमी से नाराज हैं. ब्राह्मण वोटरों को लुभाने के लिए किशोर ने मिथिलांचल में रैलियां कीं और शिक्षा-रोजगार जैसे मुद्दों पर जोर दिया, जो सवर्ण युवाओं की प्राथमिकता हैं.
2024 के उपचुनावों में प्रदर्शन: जनसुराज ने 2024 के चार विधानसभा उपचुनावों (बेलागंज, इमामगंज, रामगढ़, तरारी) में उम्मीदवार उतारे, लेकिन कोई सीट नहीं जीती. फिर भी, इन उपचुनावों में सवर्ण-प्रधान क्षेत्रों में जनसुराज को कुछ वोट मिले, जो बीजेपी के वोट बैंक में सेंध का संकेत है. ब्राह्मण (3.65%) और राजपूत (3.45%) बिहार की 30-35 सीटों पर प्रभावशाली हैं. जनसुराज की रैलियों में इन समुदायों की भागीदारी और किशोर की ब्राह्मण पृष्ठभूमि ने बीजेपी के इन वोटरों में दरार पैदा की है. 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 39 से 30 सीटों पर सिमटना पड़ा, और बक्सर जैसे सवर्ण-प्रधान क्षेत्र में मिथिलेश तिवारी की हार सवर्ण वोटों के बंटवारे का संकेत देती है.