गौरव अवस्थी
साहित्य की ‘सरस्वती’ के इतिहास में 20 अगस्त का अपना अलग ही महत्व है। साहित्य की इस ‘सरस्वती’ का उद्गम 20 अगस्त 1899 को ही हुआ था। वैसे, उद्गम का अर्थ स्थान से जोड़ा जाता है लेकिन साहित्य की ‘सरस्वती’ के उद्गम का अर्थ यहां तारीख से है। यह वही तारीख है जो आधुनिक हिंदी साहित्य की तवारीख बन गई। इसी दिन इंडियन प्रेस (प्रयागराज) के संस्थापक-स्वामी बाबू चिंतामणि घोष ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा को सचित्र मासिक पत्रिका के प्रकाशन संबंधी पत्र भेजकर संपादन का भार संभालने का प्रस्ताव दिया था। इस पत्र में पत्रिका के शीर्षक का कोई उल्लेख नहीं था। मासिक पत्रिका का नाम ‘सरस्वती’ कैसे पड़ा? यह अब तक रहस्य ही है।
1893 में स्थापित नागरी प्रचारिणी सभा हिंदी के प्रचार- प्रसार में सक्रिय में सक्रिय थी। 7 वर्षों में वह हिंदी को स्थापित करने में कई सफलताएं भी अर्जित कर चुकी थी। दस्तावेज देखने से पता चलता है कि इंडियन प्रेस के सचित्र मासिक पत्रिका के प्रकाशन संबंधी प्रस्ताव को नागरी प्रचारिणी सभा ने पहले- पहल बहुत गंभीरता से नहीं लिया। श्री गोविंददास जी के सभापतित्व में 21 अगस्त 1899 को संपन्न हुए सभा के साधारण अधिवेशन के कुल 25 विचारणीय विषयों में इंडियन प्रेस के सचित्र मासिक पत्रिका के प्रकाशन का विषय 23वें नंबर पर था। 24वें नंबर पर चार पुस्तकों के प्रकाशन संबंधी सूचना और अंतिम विषय के रूप में सभापति का धन्यवाद प्रस्ताव। इसी से स्पष्ट है कि मासिक पत्रिका के प्रकाशन का प्रकरण सभा के लिए कितना महत्वपूर्ण था? नागरी प्रचारिणी सभा के साधारण अधिवेशन में इंडियन प्रेस का यह पत्र विचारार्थ प्रस्तुत तो किया गया लेकिन कार्य अधिक होने के कारण उस दिन उस पत्र पर कोई विचार नहीं किया जा सका। सभा की कार्यवाही में लिखा गया-“(23) इंडियन प्रेस का 20 अगस्त का सचित्र मासिक पत्र संबंधी पत्र सभा में उपस्थित किया गया। आज्ञा हुई कि आगामी अधिवेशन में विचारार्थ उपस्थित किया जाए।”
11 सितंबर 1899 को श्री गोविंददास जी की ही अध्यक्षता में ही संपन्न हुए अधिवेशन में इंडियन प्रेस के पत्रिका प्रकाशन संबंधी प्रस्ताव पर निर्णय लिया गया- ‘इंडियन प्रेस के 20 अगस्त के मासिक सचित्र पत्र संबंधी पत्र पर निश्चय हुआ कि सभा उस पत्र के संपादन करने का वा उसके संबंध में और किसी कार्य का भार अपने ऊपर नहीं ले सकती है परंतु इंडियन प्रेस को सम्मति देती है कि वह उस पत्र को अवश्य निकालें क्योंकि उससे भाषा के उपकार की संभावना है और यदि इंडियन प्रेस के स्वामी चाहे तो सभा उन्हें ऐसे कुछ लोगों के नाम बता सकती है जो संपादक का कार्य करने के उपयुक्त हों। वे उनसे सब बातें स्वयं निश्चय कर लें’। सभा ने मासिक पत्र के प्रकाशन पर अपनी सम्मति तो दी लेकिन संपादन संबंधी कार्यभार स्वीकार नहीं किया लेकिन इंडियन प्रेस के संस्थापक बाबू चिंतामणि घोष ने हार नहीं मानी। वह जानते थे कि प्रस्तावित पत्रिका की सफलता के लिए सभा का सहयोग नितांत आवश्यक है। उन्होंने अपना प्रयत्न जारी रखा और 14 अक्टूबर को पुनः एक मासिक पत्र प्रकाशन संबंधी प्रस्ताव नागरी प्रचारिणी सभा के समक्ष प्रस्तुत किया।
इस नए प्रस्ताव पर 13 नवंबर 1899 को पंडित सुदर्शनदास जी के सभापतित्व में संपन्न हुए नागरी प्रचारिणी सभा के साधारण अधिवेशन में प्रस्तावित मासिक पत्र के लिए संपादक समिति बनाने पर निर्णय लिया गया। सभा की साधारण सभा ने क्रमशः बाबू श्यामसुंदर दास, बाबू राधा कृष्ण दास, बाबू जगन्नाथ दास, बाबू कार्तिक प्रसाद खत्री और पंडित किशोरी लाल गोस्वामी के नाम संपादक समिति के लिए प्रस्तावित किए। अपने प्रयासों की शुरुआती सफलता से उत्साहित बाबू चिंतामणि घोष ने डेढ़ माह में ही सचित्र मासिक पत्रिका के प्रकाशन की व्यवस्था सुनिश्चित की। इस तरह 1 जनवरी 1900 को सरस्वती का जन्म हुआ। उद्गम के साथ ही ‘सरस्वती’ के मुख्य पृष्ठ पर संपादक समिति के सदस्यों के नाम इस क्रम से प्रकाशित किए गए-
बाबू कार्तिक प्रसाद खत्री
पंडित किशोरी लाल गोस्वामी
बाबू जगन्नाथदास बीए
बाबू राधा कृष्ण दास
बाबू श्यामसुंदर दास बीए
सरस्वती के मुख्य पृष्ठ पर संपादक समिति के इन सदस्यों के नाम के ठीक ऊपर ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अनुमोदन से प्रतिष्ठित’ भी बड़े- बड़े अक्षरों में छापा गया। सरस्वती के 1 वर्ष पूर्ण होने पर 12वें अंक में बाबू चिंतामणि घोष का प्रकाशकीय वक्तव्य (पृष्ठ 399) पर ‘प्रकाशक का निवेदन’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। प्रकाशक का यह निवेदन बताता है कि उस समय हिंदी की मासिक पत्रिका निकालना कितने जोखिम का काम था। वह लिखते हैं-‘इसे नष्ट करने के लिए उतारू इतने ही लोगों के कटाक्षों की वज्रवर्षा भी होती रही।’
सरस्वती के दूसरे वर्ष के प्रथम अंक से संपादन संबंधी दायित्व संपादक समिति के स्थान पर अकेले बाबू श्यामसुंदरदास जी ने संभाला। दो वर्ष तक अकेले सरस्वती का संपादन करने के बाद बाबू श्यामसुंदर दास ने व्यस्तता के चलते अपने को संपादन कार्य से अलग कर लिया। दिसंबर 1902 के अंतिम अंक के आरंभ में उन्होंने अपना वक्तव्य ‘विविध वार्ता’ शीर्षक से प्रकाशित किया। उन्होंने लिखा- ‘इस मास की संख्या के साथ सरस्वती का तीसरा वर्ष पूरा होता है। पहले वर्ष से लेकर आज तक मेरा संबंध इस पत्रिका से घनिष्ट बना रहा। पहले वर्ष में एक समिति इस पत्रिका का संपादन करती रही और मैं भी उस समिति का सभासद रहा। दूसरे और तीसरे वर्ष में इसके संपादन का भार पूरा-पूरा मेरे ऊपर रहा परंतु चौथे वर्ष के प्रारंभ से यह कार्य हिंदी के प्रसिद्ध लेखक पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी के अधीन रहेगा। इस परिवर्तन का मुख्य कारण यह हुआ कि मैं समय के अभाव से सरस्वती के संपादन में इतना दत्त चित्त न रह सका जितना कि मुझे होना उचित था। इसलिए केवल नाम के लिए संपादक बना रहना मैंने उचित नहीं समझा परंतु मैं अपने पाठकों और पत्रिका के लिए को विश्वास दिलाता हूं कि यद्यपि आगामी संख्या से मैं इसका संपादक न रहूंगा पर इस पत्रिका के साथ मेरी वैसी ही सहानुभूति बनी रहेगी जैसी अब तक रही और मैं सदा इसकी उन्नति से पसंद होऊंगा। अंत में मुझे अपने उन मित्रों से प्रार्थना करनी है जो लेखों के द्वारा 3 वर्ष तक मेरी सहायता करते रहे। आशा है कि वह अगले वर्ष में भी इसी प्रकार सहायता करते रहेंगे। अब भविष्य में सरस्वती में प्रकाशनार्थ सब लेख परिवर्तन के संवाद पत्र तथा समालोचनार्थ पुस्तक आदि निम्नलिखित पते से भेजे जाने चाहिए-
पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी
संपादक सरस्वती,
झांसी।
पत्रिका का प्रबंध तथा मूल्य संबंधी पत्र व्यवहार पूर्ववत प्रयाग के इंडियन प्रेस से ही रहेगा।’
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादकत्व में निकलने वाली सरस्वती से वर्ष 1903 से लेकर 1905 तक अर्थात 3 वर्ष तक सभा का अनुमोदन संबंध यथावत रहा लेकिन कुछ अपरिहार्य कारणों से सभा को सरस्वती पत्रिका पर से अपना अनुमोदन हटाना पड़ा। वर्ष 1905 में प्रकाशित सभा के वार्षिक विवरण पत्र में इस संबंध में दर्ज है-
‘मासिक पत्रों में अब सबसे श्रेष्ठ सरस्वती है। यद्यपि कई कारणों से अब इस पत्रिका के साथ सभा का कोई संबंध नहीं है पर यह सभा इस पत्रिका की उन्नति देखकर प्रसन्न होती है। सरस्वती में सब प्रकार के लोगों की रूचि के अनुसार सरल भाषा में लेखों के रहने से इसका आदर दिनोंदिन बढ़ता जाता है। सभा को दुख है कि सरस्वती के प्रकाशक ने उसमें अपवादपूर्ण लेखों का रोकना उचित न जानकर सभा से अपना संबंध तोड़ना उचित समझा परंतु सभा को विश्वास है कि इस पत्रिका द्वारा हिंदी का हित निरंतर साधन होता रहेगा।’
काशी नागरी प्रचारिणी सभा का 5 वर्षों तक ‘सरस्वती’ के उत्थान में निरंतर सहयोग और साथ आधुनिक हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण परिघटना के रूप में देखी जाती है। माना भी जाता है कि अगर ‘सरस्वती’ प्रकट न हुई होती तो हिंदी और हिंदी साहित्य इस रूप में हम सबके सामने तो और न ही होता।
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सरस्वती के पूर्व संपादक
बाबू श्यामसुंदर दास
किशोरी लाल गोस्वामी
बाबू कार्तिक प्रसाद खत्री
जगन्नाथदास रत्नाकर
बाबू राधा कृष्ण दास
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
पंडित देवी दत्त शुक्ल
पंडित उमेश चंद्र मिश्र
पंडित देवी दयाल चतुर्वेदी मस्त
पंडित देवी प्रसाद शुक्ल
पंडित श्री नारायण चतुर्वेदी ‘भैया साहब’
नितीश कुमार राय
प्रोफेसर देवेंद्र कुमार शुक्ला
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पूर्व संयुक्त संपादक
ठाकुर श्री नाथ सिंह
श्रीमती शीला शर्मा
पंडित बलभद्र प्रसाद मिश्र