अतीत और वर्तमान की ड्योढ़ी पर बैठे वर्तमान से एकदम मुंह फेरे मुझ जैसे तमाम नास्टैल्जिक पाठको के लिए कहानी “बलमा जी का स्टूडियो “हाथ पकड़कर उसी दुनिया में ले जाती है जहां वाक़ई हम जाना चाहते हैं…कथाकार गांव में जाकर अपना बचपन ऐसे ढूंढती जैसे ससुरैती बेटियां बाबुल के घरों में अपना कमरा ! विस्थापन का दंश पीड़ा और प्रकार सबके अपने-अपने हैं तन का विस्थापन तो सह्य है पर मन का? किशोर लड़के अपना मन गांव में किसी ओसारे किसी दलाने में टांग कर शहरी ज़िंदगी की दौड़ में शामिल होते हैं वहीं गांव से शहर, शहर से ससुराल में थोड़ा-थोड़ा बँटती बेटियां जब सारे टुकड़ों को वापस जोड़ना चाहती हैं तो मनचाही तस्वीर नहीं बनने पर वो चिहुँक उठती हैं किसी ने सच ही कहा है कि मनुष्य अपने वार्धक्य से नहीं अपनी स्मृतियों से मरता है…
कहानी में प्रेम है, प्रेम-पत्र हैं परंपराएं हैं कहानी का सुखद आश्चर्य रहा कि बलमा सिर्फ़ नाम के ही बलमा है कहीं भी बलमा नायिका के नायक नहीं है !
स्टूडियो वाली तस्वीरें किसने नही खिंचवाई होंगी किसने न सजाया होगा इन दिनों गँवई /कस्बाई स्टूडियोमय लुप्त होती फ़ोटोग्राफ़ी को लोककला में जबकि इन फ़ोटोग्राफ़रों को शास्त्रीय कलाकारों में शुमार किया जाना चाहिए जो आज बाजार की “सस्ता और सरल” की साज़िश के चलते अपनी जीविका से हाथ धोने के लिए मजबूर है ये बलमा कोई मेट्रोज़ के फैशन फ़ोटोग्राफ़र नहीं बल्क़ि काज परोजनों में रियाया की परजा बने इधर-उधर डोलते नेग न्योछावर लेते और जिनके इसी हुनर पर अनगिन नौजवान लड़कियां फ़िदा हुआ जाना चाहती थी, वक़्ती मार झेलते ऐसे कितने बलमा आपको भी मिल जाते होंगे !
“एक जमाना था जब हमें देख गांव के लोग बाहर आ जाते थे और अब वो जमाना है जब लैपटॉप चलाती लड़कियां भी भीतर चली जाती हैं “कहानी की पंक्ति बहुत गहरे तक साल जाती है कि शहरी कलेवर गांव के अपनत्व पर भारी हुआ जाना चाह रहें हैं. कहानी पढ़कर रेडियो के आउटडेटेड और इनडेटेड होने का वाक़या याद आया कि कैसे एक FM चिप लगने भर से ही रेडियो ज्यादा व्यवहारिक और व्यवसायिक हो गया ये लेखिका के कलम ही है कि मेरे पाठक हृदय ने हाथ उठाकर प्रार्थना की कि एफ़एम की तर्ज़ पर गँवई कस्बाई बलमाओं के भी दिन बहुरे और “रहती दुनिया” तक लोगों को अपने मनपसंद रोज़ी रोजगार ना बदलने पड़े जितनी ही कसी कहानी उतने ही वास्तविक और सजीव दृश्य चित्रण इतने कि मुझे लगा कि मैं लेखिका के साथ ही मऊनाथ भंजन की यात्रा पर हूं साथ ही बचपन में कई बार पढ़ी “कोहबर की शर्त” के लेखक “केशव प्रसाद मिश्र” की कहानी “कोयला भई न राख” याद आती रही…विस्थापन भी सबको कहां नसीब कुछ बलमा जैसे पौधे भी होते हैं जो हर हाल में अपनी ही मिट्टी में फलते फूलते हैं !
विडंबनाओं से जूझती कहानी है “टूटती वर्जनाएं” एक ऐसे आधुनिक विज्ञान पढ़े-लिखे परिवार की कहानी है जो ना चाहते हुए भी सिर्फ अमंगल को टालने की गरज से को कुप्रथाओं का पालन करता है बल्कि उसके सरलतम तरीके से निभाने की युक्ति भी निकालता है ये इस देश की ही वैज्ञानिकता ही है जहां कम्युनिस्ट भी सनातनी होते हैं जहाँ नास्तिकों के गुरु सबसे बड़े आस्तिक भी होते हैं जहाँ चंद्रयान के भी लिए मुहूर्त निकाला जाता है…”स्वर्ग नरक” स्तरीय लेखकीय परंपरा की बेल लगती है कहानी की “बूढ़ी सास” “बूढ़ी काकी” की अग्रज लगती हैं असल में ऐसी कहानियां ही हमारी आस्था है जहां धर्म की जय और अधर्म का नाश जैसी ध्वनियाँ अघोषित रूप में भी उदघोषित होती हैं श्रृंखला की इस कहानी को वाचिक परंपरा में सुनना चाहूंगी…
“अंजुमन खाला…” खास वर्ग के सामाजिक संरचना और उसकी समस्याओं का शिल्प है कहानी मूलतः संपत्ति विषयक है अकेली औरत और सिर्फ बेटियों वाले घरों की समस्याएं भावी वरों की सम्पत्ति पर गड़ी गिद्धदृष्टि से जुड़ी होती है… भाई भाई का निबाह तो सदियों से घरों में होता आया है पर बहन बहन का निर्वाह नामुमकिन सा जान पड़ता है…जिसके जड़ो में छिपा होता है बाहरी दख़ल यानि बेटी के पति और उनके ससुरालियों की रायशुमारी ! “लोक” लिखती क़लम जब उर्दू नाम की कहानियां लिखती हैं तो सफेद को भी सुफ़ेद लिखती है हमशीरा, बेधक, हसद जैसे शब्दों का प्रयोग लेखिका की अतिरिक्त मेहनत को भी दर्शाता है… कहानी लार्ज स्केल की हैं ऐसी कहानियां कही जानी चाहिए यह किसी शमा और सलमा की कहानी ना होकर सुनीता और पूजा की भी होती तो अंत वही होता जो इनका हुआ !
बुद्धि शुद्धि कहानी एक सजग पाठक के अपने अनुभव जैसे लगते हैं सात्विक राजसिक तामसिक या वैष्णव भोजन के सामिष निरामिष भोजन विचारों को यदि छोड़ भी दें तो खानपान का निषेध जिसने भी बनाया है उसने अपने से अलग खाने वालों को न सिर्फ हीनता बल्कि अपमान से भी जोड़ा है जो सामाजिक विषमता का सबसे बड़ा कारण है… हम सभी ने जीवन में कुछ निषिद्ध भोज्य या पेय भूलवश ले लिया होगा पर ज्ञात होने जो पीड़ा होती है वो भूख प्यास और पश्चाताप से भी बड़ी होती है वो पीड़ा होती है विवेक के नाश की पीड़ा, बोध की पीड़ा ! जगत मिश्र के अंतर्द्वंद में हम खुद को भी पा सकते हैं हर स्थिति में फायदे की स्थिति में रहने वाले जजमानी ब्राह्मणों का वास्तविक चरित्र चित्रण कर पाने के लिए लेखिका साधुवाद के पात्र हैं और शायद यही कुटिलता ही जजमानी ब्राह्मणों के दरिद्रता की नींव है
संसार में स्त्री पुरुष युगल बन सुन्दर रचने गढ़ने के लिए बने हैं… वहीं हमारे समाज में एकाकीपन का चुनाव सीधे तौर पर पुरुषों के लिए संपत्ति और स्त्रियों के लिए शारीरिक शुचिता का विषय है… मन और भावनाओं की परवाह वैसे भी किसे है ! कहानी “जाज़िम” जीवन के पूर्वार्द्ध में साहसी एकाकीपन के चुनाव की है जो इसी जीवन के उत्तरार्ध में अभिशाप सिद्ध होती है दरअसल प्रवासी शहरी घरों में कुछ हतभागी ‘कनिया’ अपनी मिट्टी में जमी जड़ें भी होती हैं जिन्हें कोई भी राह चलते ठोकर मार सकता है ! यह लेखिका के चिंतन का फलक है जो एकाकीपन के चुनाव को इस आयाम से भी देखती हैं जहां एकाकीपन चुनने वाले स्त्री का प्राप्य केसर कुमकुम होना चाहिए वही रीते आंचल में आती हैं नफरतें गालियां और लांछन दुर्भाग्य से ये विषवमन उन स्त्रियों द्वारा ही होता है जो समाज में पितृसत्ता की मुहरें तो होती है पर समझी नहीं जाती…
कील हम सबके जीवन में गड़ी हुई है किसी के दिल में किसी के दिमाग़ में किसी दुआर किसी मोहार पर, पर एक कील है ज़रूर ! प्रेम का सुख वो क्या जाने जिन्होंने प्रेम कभी किया ही नहीं पति के प्रेम को प्रेम मानने वाली पढ़ी लिखी स्त्रियों के जीवन में तक प्रेम जब दाखिल होता है तो अपने जीवन में बहुत आगे निकल चुकी होती हैं बिना समय गवाएं उसी प्रेम की कील को प्रेम के ताबूतों में जड़ बिना किसी विचलन के बड़ी तत्परता से आगेे बढ़ जाती हैं, बड़ी उम्र की तज़ुर्बेकार प्रेमी युगल जानते हैं विचलन का मान 1-0 के बीच का ही तो है वहीं प्रेम का हासिल हर हाल हर काल में शून्य ही रहा है ये वही शून्य है जिसके जुड़ने भर से ही कीमत बढ़ती है !
कहानी सूरमा भोपाली बाल मन के कौतूहल और सवालों से घिरे बड़े बूढ़ों के लिए बड़ा सा दिल रखने वाली बच्ची की है कहानी जिज्ञासा की बारीकियों को बांचने में सफल रही हैं लेखिका के साथ साथ पाठक भी उसी पीढ़ी के हैं जिसमें बच्चों को “बात का नहीं लात का देवता” समझा जाता था बात-बात पर लतिया कर देवता की बड़ी से बड़ी पूजा कर (समझा और सिखा )दी जाती थी गुस्सा किसी का भी हो कोपभाजन के पात्र बच्चे ही होते थे सूझ और सीख के जेस्टाल्टवादी सिद्धांत तब तक पश्चात देशों के धूल फांक रहे थे l”यही ठिंयां मुनरी हेरान” खोई चीजों के एक के चार गुना हर्ज़ाना वसूलने वाली चालाक बुआ से भी ज़्यादा ग्रामीण राजनीतिक खेल की भी कहानी है जहाँ गांव के प्रधानी और ब्लॉक प्रमुखी के चुनाव को लाह के लहपट भी कितना प्रभावित करती है घाटे का अंदेशा जानकर भी जहाँ दांव जीत के लिए खेल दिए जाते हैं!
सशक्त नारी क़िरदार जो बिना स्त्री मुक्ति की बात कहे बिना देह मुक्ति की मांग किये मुक्त जीवन जीना जानती है कहानी “मोरी साड़ी अनाड़ी” न सिर्फ समस्या है बल्कि समाधान भी है तमाम ऐसे साहित्य, फिल्म नाटक त्रिकोणीय संबंधों का विकल्प और उपाय बताने में अमूमन असमर्थ ही रहते हैं हिंदी साहित्य को इस तरह के शिल्प की सबसे ज्यादा आवश्यकता है जहां औरतें अपने ऊपर लगे आरोपों को मिटाने में ही अपना सर्वस्व नष्ट कर देती हैं वहीं नायिका बताती है कि लांछन से परे भी स्त्री की दुनिया है विशुद्ध प्रेम की दुनिया ! प्रेमत्रिकोण में जहाँ दो कोण ही एक बिंदु पर मिलते हैं, जहाँ दो कोणों के मिलते ही तीसरा कोण पहले दोनों से दूर हो जाता है जबकि दो -दो कोण और तीन स्वाभाविक मिलन बिंदु निश्चित तौर पर त्रिकोण में होते ही हैं लेखिका ने शिक्षिका दृष्टि से उपाय सुझाया असल में लेखिका यह समझने में समर्थ रहीं कि असल में प्रेम चाहने वालों को बदले में सिर्फ प्रेम चाहिए, संपत्ति चाहने वालों को सिर्फ संपत्ति, अधिकार चाहने वालों को सिर्फ अधिकार चुनाव आपको करना है !
कथाकार सोनी पांडे जी की कहानियां न सिर्फ लोक से उपजीं बल्कि लोक गीतों से लबरेज है लेखिका का साहस इतना कि दिसा फ़रागत, गू मूत जैसे त्याज्य निषिद्ध और वर्जित शब्द भी लगभग हर कहानी में सामान्य तौर पर प्रयोग किये गये हैं, ग्रामीण/कस्बाई महिला पात्रों तक सीमित किरदार और कहानियाँ वह सब कह देने में समर्थ हैं जो शहरी ठसक से लबरेज कलमें नहीं कह पायीं हैं ।कुल मिलाकर बलमा जी का स्टूडियो एक पठनीय कहानी संग्रह है ऐसी कहानियां जिन्हें हम पढ़कर रोते तो नहीं हां ये कहानियाँ ऐसी उंगलियां है जो रोती आँखों से आंसू ज़रूर पोंछतीं हैं
स्त्री विलाप, दुःख, रुदन की ना होकर ये कहानियाँ हैं नयी उम्मीद की, चेतना की, उपायों की… लेखिका के महसूसने की अतिरिक्त शक्ति का नाम है संकलन “बलमा जी का स्टूडियो”… शुक्रिया सोनी पाण्डेय जी “जाजिम” और “मोरी साड़ी अनाड़ी” जैसी निदानात्मक कहानियों के लिए।
गति उपाध्याय,
मिर्जापुर