“भोग और स्वतन्त्रता”
मेरी कल्पना में विचरती है एक पूर्ण निर्वस्त्र स्त्री
अपनी पूरी ठसक के साथ
अपने रास्ते नापती है
दूसरे किनारे पर रहते हैं ढेर सारे पुरुष …
मेरी आँखें
मेरे हाँथ
मेरी जीभ
मेरी इच्छाएं,कुत्सायें….
आँखों को देखता देख जिव्हा उछालती है एक अश्लील जुमला
या सीत्कार भरी आह
उसकी कानो के पहुँच से बहुत दूर
मेरे कान सुन कर मह्सूस करते हैं गर्म सी गुदगुदी
हथेलियाँ स्पर्श का एहसास जीती हैं….
बीच में रहती है स्त्री की व्यापक स्वतन्त्रता
मैं भोगता हूँ उसे अपनी सभी इन्द्रियों से
उसकी इच्छा के विपरीत भी,
मैं सज्जन हूँ उन कजरारी आँखों की गहराई मे
उसकी स्वतन्त्रता उसके हिस्से में छोड़ कर ,
शायद यही मेरी मनुष्यता है
और मेरी स्वतन्त्रता भी
उसने रोप रखा है अपनी नग्नता में विश्वास का शील
मैं अपना शीलभंग करता हूँ
हमारी स्वतन्त्रता की परिधि कभी काटती नहीं एक दूसरे को…
वह मुस्कुरा देती है मेरी ओर देख कर
मेरा पौरुष उसे जी भर कर जीता है।
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हम दोनों ही अपनी आदर्श पहचान हैं……
अश्वनी तिवारी
-मलंग-