क्षुधा, भोजन, संतुष्टि…… चक्की के दो पाट हम दोनों पीसने में जीवन के अनंत दिवस बिरवे घिसती हूँ प्रतिक्षण मैं तुम भी बीतते हो हर पल, पोसने में ढेर सारे खट्टे मीठे,फीके तीखे जीवन का स्वाद अंततः टूट ही जाना है सांस लेते दोनों पत्थर,
मृत्यु की पूर्णता संतुष्टि का नेपथ्य है।
बंद किसी डायरी के एकाकी से तुम एकाकी सी मैं पन्ने दर पन्ने शब्दों का बंधन स्याही का प्रेम, कमजोर से पहले और आखिरी पन्ने मध्य कभी तुम हल्के कभी चीखती मैं बराबर होती है केवल एक ठहराव पर पन्नों की बायीं और दायीं संख्या, तुम्हारे सामने मैं मेरे सम्मुख तुम…. तुम्हारे आरम्भ पर है मेरी परिणति मेरे आरम्भ पर आश्रित हो तुम मेरा स्त्रीत्व ही तुम्हारे पुरुषत्व का प्रसंग है
तुम्हारा पुरुषत्व ही मेरे स्त्रीत्व का निष्कर्ष है।
जन्म और मरण के जिल्दों में सुरक्षित हम युगल रूप में खुली डायरी का जीवन हैं
पन्नो के बदलने से परिभाषाएं नहीं बदलती….
प्रेम ही होता है पूरी डायरी में प्रथम से अंतिम शब्द के बीच ——————– कथानक के अनुसार केवल परिवेश बदल जाते हैं।