पटना : बिहार की राजनीति एक बार फिर करवट ले रही है। इस बार चर्चा का केंद्र हैं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बेटे निशांत कुमार। पटना में मुख्यमंत्री आवास में आयोजित होली मिलन समारोह में जेडीयू कार्यकर्ताओं ने निशांत का जो अंदाज देखा और जेडीयू के वरिष्ठ नेताओं के साथ उनकी नजदीकी देखी, उससे यह तय माना जा रहा है कि निशांत किसी भी वक्त राजनीति में औपचारिक एंट्री ले सकते हैं।
बिहार की सत्ताधारी जेडीयू के भीतर इस बदलाव की बातें ऐसे वक्त में सामने आ रही हैं, जब नीतीश कुमार के स्वास्थ्य को लेकर कई तरह की अटकलें लग रही हैं। जहां विपक्ष इसे खुली जुबान में बोलता है, वहीं सत्ता पक्ष दबी जुबान में इसकी बातें करता है।
नीतीश कुमार लंबे समय तक परिवारवाद के खिलाफ मुखर रहे हैं, लेकिन अब उनका रुख बदलता दिख रहा है। कर्पूरी ठाकुर के बेटे को केंद्रीय मंत्री बनवाने के बाद अब अपने बेटे निशांत को राजनीति में लाने की बातें इस बदलाव की पुष्टि करती है।
राजनीति में आने से पहले ही निशांत के पक्ष में पार्टी के भीतर माहौल बनाने की कवायद शुरू हो चुकी है। जेडीयू कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच उनकी मौजूदगी को स्वाभाविक बनाने की रणनीति अपनाई जा रही है। इससे यह संदेश दिया जा रहा है कि पार्टी कार्यकर्ता खुद निशांत को राजनीति में देखना चाहते हैं और यह केवल नीतीश कुमार का व्यक्तिगत निर्णय नहीं है।
अगर निशांत कुमार जेडीयू में सक्रिय होते हैं, तो इसका फायदा बीजेपी को भी मिल सकता है। एक तो यह कि परिवारवाद के मुद्दे पर बीजेपी खुद को बिना कहे एक ऐसी पार्टी के रूप में पेश कर सकती है, जो सिर्फ इस सियासी रोग से दूर रह सकती है।
सूत्रों से यह भी पता चला है कि बीजेपी और जेडीयू के बीच इस मुद्दे पर पहले से ही सहमति बन चुकी है। यह भी लगभग तय माना जा रहा है कि 2025 में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के बाद भी कुछ समय तक नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री (अगर एनडीए की जीत होती है) बने रहेंगे।
हालांकि, असल सियासी खेल इसके बाद शुरू हो सकता है। नीतीश कुमार की बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। ऐसे में एक संभावना यह बताई जा रही है कि चुनाव के बाद नीतीश कुमार खुद मुख्यमंत्री पद से हटकर बीजेपी के किसी नेता को यह जिम्मेदारी सौंप दें।
अगर ऐसा होता है, तो निशांत कुमार को उपमुख्यमंत्री बनाया जा सकता है और उनके राजनीति में रहने पर यह सत्ता हस्तांतरण आसानी से हो सकता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की जेडीयू ने बिहार में बिना किसी गठबंधन में रहते हुए अकेले चुनाव लड़ा था। तब उसे 16% से ज्यादा वोट मिले थे। यही वजह है कि नीतीश कभी आरजेडी के तो कभी बीजेपी के मजबूरी बनते रहे हैं। बीते दो दशकों से बिहार में उनके बिना सत्ता का समीकरण बनना मुश्किल रहा है।
इसकी वजह ये है कि बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण हमेशा से महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। नीतीश की अगुवाई में जेडीयू को कुर्मी, कोयरी, अति पिछड़े और महादलित वोटों का मजबूत समर्थन प्राप्त है।