नई दिल्ली: सम्राट चौधरी की पगड़ी की काफी चर्चा हो रही है. कुछ हद तक वैसे ही जैसे पहले अरविंद केजरीवाल के मफलर की होती रही. हालांकि, दोनों मामलों में काफी फर्क भी है. पगड़ी और मफलर धारण करने की दोनों नेताओं की परिस्थितियां भी अलग हैं – बीजेपी के हिसाब से देखें तो बिहार और दिल्ली की राजनीति में कुछ कॉमन बातें भी हैं.
दिल्ली और बिहार दोनों ही राज्यों में पिछले दो बार से एक ही साल विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. दिल्ली में साल की शुरुआत में, और बिहार में साल के आखिर में – और एक खास बात ये भी है कि दोनों ही राज्यों में बीजेपी की चुनौतियां मिलती जुलती हैं. बीजेपी के पास न तो बिहार में अब तक नीतीश कुमार का विकल्प मिल सका है, और न ही दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का. दोनों ही राज्यों में बीजेपी अलग अलग नेताओं को बारी बारी आजमाती रही है, लेकिन अब तक सफलता नहीं मिल सकी है.
लगता है बिहार में बीजेपी की ये तलाश खत्म होने वाली है, क्योंकि सम्राट चौधरी के रूप में बीजेपी को एक ऐसा नेता मिला है जो तमाम अनिवार्य अर्हताएं करीब करीब पूरी कर रहा है. बीजेपी के लिए अच्छी बात ये है कि उसके पास सम्राट चौधरी को ठोक-बजाकर परखने का पूरा मौका भी मिला है. अगला विधानसभा चुनाव होने तक डेढ़ साल से ज्यादा वक्त बचा हुआ है.
सम्राट चौधरी ने ट्रेलर तो दिखा ही दिया है
ज्यादा दिन नहीं हुए जब सम्राट चौधरी को बिहार बीजेपी की कमान सौंपी गई थी. डॉक्टर संजय जायसवाल से जिम्मेदारी लेने के बाद सम्राट चौधरी धीरे धीरे अपना रंग भी दिखाने लगे. अब रंग जमाने का भी मौका मिल गया है.
सम्राट चौधरी की पगड़ी की चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि उनका कहना था कि वो नीतीश कुमार की सरकार गिराने के बाद भी पगड़ी उतारेंगे. देखा जाये तो सम्राट चौधरी ने आधा संकल्प तो पूरा कर ही लिया है.
नीतीश कुमार की जो सरकार थी, उसे तो गिरा ही दिया है. बेशक नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री हैं, लेकिन पहले की तरह ताकतवर नहीं ही रह गये हैं. वैसे सम्राट चौधरी फिर से नीतीश कुमार के साथ गठबंधन के खिलाफ थे, लेकिन बीजेपी आलाकमान को राजनीति का यही दांव पसंद आ रहा था, लिहाजा बात मान ली. कम से कम इस मामले में तो सम्राट चौधरी का हाल भी नीतीश कुमार जैसा ही रहा होगा. बात मान लेने के अलावा कोई चारा नहीं बचा होगा.
रही बात पगड़ी की तो उसे लेकर भी सम्राट चौधरी ने अपनी बात बता दी है. ये सवाल तो उठा ही है कि सम्राट चौधरी ने पगड़ी उतारने की बात कही थी, और नीतीश कुमार के साथ डिप्टी सीएम पद और गोपनीयता की शपथ लेते हुए भी पगड़ी धारण किये हुए थे.
बिहार के डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी ने ‘पगड़ी वाली कसम’ को लेकर कहा है, ‘बीजेपी मेरी दूसरी मां है… जब मेरी मां चली गई तो मैंने पगड़ी बांधी थी… आज अगर दूसरी मां के सम्मान के लिए मुझे अयोध्या जाकर सिर मुड़वाना पड़े तो मुझे मंजूर है… अयोध्या में पगड़ी खोलेंगे… भगवान श्रीराम के चरणों में सिर मुड़वाएंगे.’
राजनीतिक खांचे में भी फिट बैठ रहे हैं सम्राट चौधरी
बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण कितने हावी हैं, कदम कदम पर देखा जा सकता है. जातीय जनगणना की मांग से पहले के वाकये याद करें तो लगता है कि स्थिति बिलकुल भी नहीं बदली है, और न ही जल्दी बदलने वाली है.
हाल के राज्य विधानसभा चुनावों में कांग्रेस नेता राहुल गांधी लगभग सभी चुनावी रैलियों में जातीय जनगणनी की मांग जरूर रखते थे. लेकिन चुनाव हार जाने के बाद से वो सत्ता में आने पर जातीय जनगणना कराने का वादा भी नहीं दोहरा रहे हैं. न ही कांग्रेस कार्यसमिति के प्रस्ताव का जिक्र ही कहीं सुनने को मिल रहा है. अगर 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव को याद करें तो आपको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के बयान पर विवाद याद होगा. तब बीजेपी की हार में आरक्षण को लेकर मोहन भागवत के बयान को महत्वपूर्ण माना गया था.
नीतीश कुमार के पाला बदलकर एनडीए में जाने के बाद भी यही माना जा रहा है कि बीजेपी के प्रतिद्वंद्वी आरजेडी नेता तेजस्वी यादव के M-Y समीकरण पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. मुस्लिम और यादव के वोट तो लालू परिवार के पास ही रहेगा – लेकिन अब लव-कुश समीकरण का फायदा बीजेपी को मिलेगा, ये भी तय माना जाना चाहिये.
नीतीश कुमार की राजनीतिक ताकत लव-कुश समीकरण में ही छिपी हुई है. ये नाम कोइरी-कुर्मी वोट बैंक को मिला है. नीतीश कुमार खुद कुर्मी समुदाय के नेता हैं और कुशवाहा नेताओं को मिलाकर वो अपनी राजनीति चलाते हैं. उपेंद्र कुशवाहा और आरसीपी सिंह जैसे नेता भी इसी समीकरण की राजनीति करते रहे हैं.