-चौरी चौरा एक आंदोलन-एक समीक्षा-
‘‘चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन’’ पेंगुइन बुक्स इंन्डिया के प्रकाशन से छप कर आई है। लेखक सुभाष चन्द्र कुशवाहा।
पहले ही कवर पेज पर ‘‘विचारोत्तेजक और ह्नदयस्पर्शी’’ सुघीर चन्द्र जी जोकी नामचीन इतिहासकार हैं। उनके लिखे इस शब्द पर नजर पड़ते ही कुछ अंदर तक भीगता है। आर्कषक कवर अपने आपमें एक ज़िज्ञासा पैदा करने लगता है, कि अंदर पेजों पर आंदोलन का वह इतिहास है, जो हमारे देश के उन गरीब मजदूरों-किसानो नौजवानों का, स्वतः अपनी आजादी के लिये उठाया गया वह कदम था, जिसका नेतृत्व कोई बड़ा नेता या पार्टी नही कर रही थी। बल्कि यह वो चिंगारी थी, जो बरसों से शोषण की ज्वाला में अपने आप को तपा रही थी। धीरे-धीरे सुलग रही थी। एक तरफ अंग्रेजी सत्ता के दमन चक्र से गरीब जनता पीड़ित थी। उससे ज्यादा स्वयं उनके अपने ही देश के जमींदार, ताल्लुकेदारो के भयानक शोषण के कारण उनकी रही-सही कमर को तोड़ने का काम कर रही थी।
1857 के गदर पर अनेकों पुस्तकंे मिल जायंेगी। दिल्ली के आखिरी राजा बहादुरशाह ज़फर के नेतृत्व में हिन्दुस्तान के राजा, नवाब, जमींदार, ताल्लुकेदार, छोटी-छोटी रियासतों के राजाओं की गोलबंदी ने अंग्रेजांे के खिलाफ टक्कर लेने में मदद की थी, जो कि पूरी तरह नाकाम रही थी। पूरा आंदोलन बिखर चूका था। चुन-चुन कर तमाम राजाओं को मौत के घाट उतारा गया था। तमाम लोगो को काले पानी की सजायें दी गई थीं। पूरे सुनियोजित ढ़ंग से किया गया वह गदर था, जिसकी बागडोर काबिल लोगो के हाथों मे थी।
और चौरी चौरा कांड किसी भी तरह से, न किन्ही प्रकार के हथियारांे से, न धन बल से, न ही योजनाबद्व तरीके से अंजाम दिया गया था। उनके पास कुछ था, तो सिर्फ यही कि वे इस देश के वो गरीब किसान थे जो लंबे समय से अंग्रेजों व जमींदारो के अत्याचारो से पूरी तरह त्रस्त हो चूके थे। उनके पास सिर्फ और सिर्फ गुस्सा था, जो बिना किसी नेतृत्व के, वहां फूट पड़ा था। और वह आक्रोश, जिसनेे बड़े-बड़े जमींदारो के पांव उखाड़ दिये, उनको हथियारों के बल पर काबू न किया जा सका। उस समय चल रहा गांधी जी का असहयोग आंदोलन घ्वस्त हो गया। बर्तान्वी सरकार की नींव हिल चूकी थी। शायद हिन्दुस्तान के इतिहास में यह पहला आंदोलन था, जिसकी बाग्डोर जनता के हाथ में थी।
पूरी पुस्तक में चौरी चौरा आंदोलन की यह हकीकत व सच पूरे सबूतांे के साथ प्रस्तुत है, जिसे इस किताब के लेखक सुभाष चंद्र कुशवाहा जी ने बड़ी ही मेहनत व शिद्दत से, जुटाया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि सच्चाई को कब्र में दफन कर दिया गया था। इस किताब के जरीये लेखक ने यह मिथक भी तोडा है, कि इतिहास को खंगालने का काम सिर्फ इतिहास का विधार्थी ही नही कर सकता है। यह तो वह जुनून होता है जो सच्चाई की तह तक जाने तथा अठ्ठासी साल पुरानी कब्र को खोद कर हर सच्चाई को सामने लाने का काम करता है।
बहुत सी बातें, कांग्रेस की तमाम कमजोरियों को छुपाते तोड़ते-मरोड़ते हुए, उस आंदोलन की सच्चाई को पूरी तरह नकारते हुये, अपनी सुविघानुसार पाठ्यक्रमो में शामिल की गई थीं; और उतना ही आज की पीढ़ी जान रही थी, जितना उसे पढ़ाया जा रहा था। लेकिन कहीं-न-कहीं यह अहसास जरूर होता है कि हमारे देश का आंदोलन-वह चाहे किसी भी कोने से उठा हो, उसकी बागडोर चाहे जनता के हाथों में रही हो, या फिर किसी नेता के हाथ में, वह सफल हुआ हो अथवा असफल, वह अपने आपमें एक बड़ा आंदोलन रहा है। ऐसे आंदोलन की गँूज सदियों तक बनी रहती है। आंदोलन के अंदर की कलह, बिखराव, नफरत घार्मिक टूट-फूट, विश्वासघातों जैसे कारणो ने भी बड़े-से-बड़े आंदोलन को भारी-से-भारी नुकसान पहुँचाया है। अंग्रेजो की नीति ‘‘फूट डालो राज करो’’ ने क्रांतिकारियों व इस देश की जनता को हमेशा बरगलाया है। ये एक कड़वी सच्चाई के रूप में इस किताब में आई है कि जिन नेताओं से इस देश की जनता को उम्मीद थी, गाँधी से भी जो उम्मीद थींे उनपर वे हर बार पानी ही फेर रहे थे। बल्कि कहना चाहिये कि वे लोग अंग्रेज-भक्त, तथा गरीब किसानो का शोषण करने वाले जमींदारों के रक्षा कवच के रूप में हर बार सामने आये थे। इसलिये जितनी बार भी गांधी जी से किसी जमींदार के अत्याचारों की शिकायत की जाती, उसके जुल्मो को रोकने की फरियाद की जाती, गांधी जी का रवैया हर बार नकारात्मक ही रहता, वह कैसे जमींदारो के खिलाफ जा सकते थे,़ जबकि उनका असहयोग आंदोलन ही जमींदारो के फंड से चल रहा था ? कहना न होगा उनके आदोलन के वह लोग स्तंभ थे। वे इस देश की जनता को अपने तरीके से चलाना चाहते थे। गांधी की नीति कहीं-न-कहीं इस रूप मे रही कि अत्याचार करने वाला तथा अत्याचार सहने वाला दोनो केटेगरी हमेशा बनी रहें। ताकि उनका असहयोग आंदोलन भी जनता के द्वारा चलता रहे, तथा दूसरी तरफ जमींदारो तथा राजघरानो से भी संबंध मघुर बने रहे। उनकी इस दोहरी नीति का खुलासा इस पुस्तक में कई जगह बखूबी हुआ है। लेकिन हर बार कं्रा्िर्रन्तकारियों के हौसलांे व उनके कारनामों के आगे वह बेबस हो जा रहे थे।
इस पूरी किताब को पढ़ चुकने के बाद एक दूसरा ही आंदोलन हमारे सामने प्रस्तुत होता है। चैरी-चैरा के किसान आंदोलन का उग्र रूप एक लंबे समय का शोषण के प्रतिशोध का ही उग्र रूप था। जिसकी चिंगारी से आसपास के गांव भी प्रभावित हुये। अंग्रेजांे तथा जमींदारो के अत्याचारों से आजिज आई जनता का वह आक्रोश था, जिसने अंग्रेजी सरकार की चूले हिला कर रख दी थी। इस आंदोलन की तपिश को गाँघी तथा नरम दलीय कां्रगेस पचा नही पा रही थी। उन्हें अपना ही अस्तित्व खतरे में दिखाई पड़ने लगा। इतने बड़े आंदोलन की नब्ज को, इस मौके की नज़ाकत को गाँघी समझ नही पा रहे थे, या कि अंग्रेजांे को खुश करने के लिये उसे सपोर्ट नही करना चाह रहे थे ? क्योकि इस किताब की कुछ लाइने पढ़कर, जो गांधी के विचारो को सामने रख रही हंै, हैरान करने वाली हंै- ‘‘कि गांधी की अंग्रेज-भक्ति इतनी ज्यादा प्रबल थी, कि रौलेट एक्ट को सरकार द्वारा लागू हो जाने पर जो कि पूरी दुनिया व भारत में उभर रहे क्रांतिकारी जन आंदोलन का प्रभाव था। लेकिन गांधी जी इसे क्रंातिकारियों के द्वारा किया गये आंदोलन का प्रभाव नही मानते थे।
उन्हें वह समाज का शत्रु ही मानते थे, भटके हुये लोगों का ग्रुप कहते थे। गांधी के व्यक्तित्व की झलक इस किताब के द्वारा मिली-1919 के अंतिम दिनों में अपने साप्ताहिक पत्र में लिखा कि ‘‘सरकारी घोषणाओं के साथ सुधारो का जो कानून पास हुआ है वह इस बात का प्रमाण है कि अंग्रेज भारत के साथ न्याय करना चाहते थे और अब इस बारे में हमारे संदेह दूर हो जाने चाहिये….।’’गांधी का यह विचार उस भयानक दौर में आया था जब कि जांलियांवाला बाग कांड, पंजाब में मार्शल लाॅ लगने, तथा रौलेट एक्ट बनने के बाद इन तीनांे भीषण दमनकारी चक्रों से पूरी दुनिया स्तब्ध थी। उस वक्त गांघी का यह वक्तव्य हैरान करता है। आखिर नरम दलीय कंागे्रस व गांधी जी अपने देशवासियों के प्रति कितने ईमानदार थे तथा अंग्रेजी सरकार के कितने भक्त थे ? यह पुस्तक इस मायने में और भी महत्वपूर्ण है कि इसमें उन तमाम लोगों के चेहरे बेनकाब हुये हैं जिन्हांेनें स्वाधीनता आंदोलन को खत्म करने, उसमें फूट डालने का काम तथा अंग्रेजी सरकार की भक्ति में अपना समय जाया किया हैं। गाँधी जी का असहयोग आंदोलन, जो कि पूरे देश में अपनी पूरी कोशिश के बावजूद उनकी नीतियों के तहत उभार पर नही आ पा रहा था, जैसा कि वह चाह रहे थे; तब जब कि महात्मा गाँधी को महिमा मंडित करने, उनको चमत्कारी पुरुष साबित करने में स्वयंसेवक पूरे दम खम के साथ लगे हुये थे। पूरे देश में एक लहर भी चल रही थी। अंग्रेजी सामानों का बहिष्कार, स्कूल-कालेजांे का बहिष्कार, कोर्ट कचहरियों का बहिष्कार, करने का आह्वान गांधी के द्वारा चल रहा था। इसकी गति घीमी थी। इस पुस्तक में गाँधी के विचारांे को इतना खुलकर सामने रखा है कि स्वयं गांधी के सबसे करीब रहे जवाहरलाल नहेरू तक ने जेल में से लिखे अपने बयान में उनके आंदोलन व उनके विचारों को संदिग्ध माना है, यह उस समय का बयान है जब चैरी-चैरा काण्ड हो चुका था, और गाँधी पूरी तरह बौखला गये थे। इसी बौखलाहट में उन्होंने बिना किसी से राय-मशवरा किये अपने द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन को बंद करने की घोषणा कर दी, जिसके परिणाम स्वरूप पूरे देश में तीखी प्रतिक्रिया हुई।
वे सब अपने आपको ठगा हुआ महसूस करने लगे जिन्होनें गाँधी के आह्वान पर अपनी सरकारी नौकरियां छोड़ दी थीं। विद्यार्थियों ने स्कूल-कालेज छोड़ दिया था। इतना बड़ा निर्णय लेने में क्या कहीं चैरी-चैरा विद्रोह का होना था ???… या कि अपने ही आंदोलन पर भरोसा न करना था ? एक द्वन्द की स्थिति लगातार उनके मन में चल रही थी पहले से ही, और उसको कारण बनाया चैरी-चैरा में हुआ काण्ड, इससे यही साबित होता है कि इस विदा्रेह ने सरकार की ही नहीं बल्कि गाँधीजी के पूरे आंदोलन की भी नीव को हिलाकर रख दिया था, जिसके परिणामस्वरूप इसकी आग पूरे देश को अपने लपेटे में ले रही थी। सरकार का बौखलाहट के रूप में गाँव-गाँव में पुलिसियां दमन चक्र जो चला, जेलें भरती जा रही थी। बेगुनाहो को पकड़ कर पीटा जा रहा था, गलत-सही केस लादे जा रहे थे। जमींदारो की भूमिका सरकार के प्रति विश्वसनीय व खास बनने की होड़ की तरह हो गई थी। अपनी वफादारी दिखाने का इससे बड़ा सुनहरा मौका भला वे हाथ से कैसे जाने देते। और अपनी निजी दुश्मनी निकालने का मौका भी वह कैसे हाथ से जाने देते ? जो कि उन्हांेने किया।
फिर भी इसे सरकार की गाँधी की या फिर वे ताकतवर लोग जो उन कमजोर गरीब मेहनतकश किसान, दलित, मुस्लिम, जिन्होंने सिर्फ लाठी-डन्डांे व रेलवे लाइन में पडे कंकड़ो से उस ताकतवर सत्ता से टक्कर ली, जिनके पास हजारों की भीड़ को खत्म करने के लिये पर्याप्त मात्रा में हथियार थे। बावजूद इसके सरकार की लाख कोशिश के बावजूद तीन हजार से पाँच हजार की भीड़ में से एक सौ पिछत्तर को ही फाँसी की सजा दी जा सकी। वहां भी ठोस सबूत नहीं थे। डरा-धमका कर गवाह तैयार किये गये। यह सरकार की हार व बौखलाहट को ही दर्शाता है।
लेखक सुभाष चन्द्र कुशवाहा जी जो की एक बहुत ही अच्छे कहानीकार भी है,उनकी कहानियां जो की तकरीबन गा्रमीण परिवेश के जीवन को प्रस्तुत करती है।
यह पुस्तक ,,चौरी चौरा विद्रोह और स्वाघीनता आंदोलन,, जिस मेहनत से साक्ष्यों व सबूतो के साथ इस पुस्तक को लिखा है, वह काबिले-तारीफ है। आने वाली पीढीयों के लिये ये पुस्तक झूठ के आवरण को हटाकर एक ऐसी सच्चाई को हमारे सामने रखेगी, जो अब तक संदेह व गलतफहमी के चलते छुपी हुई थी। पूरी पढ़ चुकने के बाद आप इस तसल्ली में होते हंै कि एक ऐतिहासिक आंदोलन का सच पूरी दुनिया के सामने होगा। लेखक ने एक महत्वपूर्ण भूमिका के द्वारा इस पुस्तक के रूप में हमें एक आईना दिखा दिया है, जिसके लिये आने वाली पीढीया सदैव उनकी ऋणी रहेगी वह बघाई के पात्र हंै।
– किरन सिंह बैस-
वाराणसी