नई दिल्ली : भारत के दो पड़ोसियों- चीन और पाकिस्तान के साथ रिश्ते हमेशा से तनाव भरे रहे हैं. दोनों ही पड़ोसियों के साथ अब तक सीमाएं भी तय नहीं हुईं हैं. हाल ही में चीन ने एक नया नक्शा जारी किया है. वो हर साल नक्शे जारी करता है. इस नक्शे में चीन ने अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश को भी अपना हिस्सा बताया है. अक्साई चिन पर चीन अक्सर दावा करता है. लेकिन इस दावे में कितना सच है? इसका पता लगाना भी जरूरी है. इंडिया टुडे ने पुराने नक्शों और तथ्यों के जरिए इस दावे का सच पता लगाने की कोशिश की है.
ऐसा ही एक दस्तावेज छह दशक पुराना है. 1961 में उस समय के विदेश सचिव आरके नेहरू ने चीन के अधिकारियों के साथ एक बैठक की थी. इसके बाद उन्होंने राज्यसभा में कहा था कि चीनी अधिकारियों से बात करने का मतलब ये नहीं है कि वो उन्हें कुछ ऑफर कर रहे हैं या कोई कमजोरी दिखा रहे हैं.
उन्होंने कहा था, ‘हमें इसे एक मौजूदा समस्या की बजाय सतत समस्या के रूप में देखना चाहिए. इस तात्कालीक समस्या के कुछ ऐसे बुनियादी मुद्दे हो सकते हैं, जो भारत और चीन के बीच हमेशा तनाव पैदा करेंगे और हमें इसके लिए तैयार रहना होगा. उस स्थिति से निपटने के लिए हमें बहुत कुछ करना होगा.’
उन्होंने कहा था, ‘अक्साई चिन का चैप्टर खोलने से पहले, हमें पुरानी कहावत के साथ आगे बढ़ना होगा कि हमारी असली सीमाएं तिब्बत के साथ लगती थीं, न कि चीन के साथ. लेकिन 1951 में तिब्बत पर चीन का कब्जा हो जाने के बाद स्थिति उलट-पुलट हो गई हैं. हालांकि, कोई भी अतीत के पन्नों को तभी पलटना पसंद करेगा, जब वो उसके अनुरूप हों.’
तीन सीमाएं…
अंग्रेजों ने 1855 में ग्रेट ट्रिग्नोमेट्रिक सर्वे ऑफ इंडिया की शुरुआत की. इसने कई दशकों तक लद्दाख की सीमाओं को तय करने वाली तीन लाइनें खींची.
सबसे पहले डब्ल्यूएच जॉनसन आए. जम्मू-कश्मीर के महाराजा गुलाब सिंह ने जॉनसन को काराकोरम दर्रे से कहीं आगे उत्तर-पूर्वी सीमा दिखाई. 1863 में महाराजा की सेना शहीदुल्ला के किले पर तैनात थी, इसलिए वो भी भारत में शामिल हो गया. लेकिन 1866 में जैसे ही सैनिक वहां से हटे, शहीदुल्ला पर चीन का नियंत्रण हो गया.
19वीं सदी के आखिर में रूस तिब्बत तक अपनी पकड़ बनाने की कोशिश कर रहा था. इसे देखते हुए 1897 में अंग्रेजों ने एक और सीमा रेखा खींचने के बारे में सोचा. इसे जॉनसन-अर्दाघ लाइन कहा जाता था. इसमें कुनलुन पहाड़ों की चोटियों तक सीमा रेखा खींच दी गई.
इसी बीच, 1899 में काशगर (सिंकियांग का हिस्सा) में ब्रिटिश कॉन्सुल जनरल जॉर्ज मैकार्टनी ने एक सीमा का प्रस्ताव रखा था. इसे मैकार्टनी-मैकडोनाल्ड लाइन के रूप में जाना जाता है. इसमें काराकोरम पहाड़ियों तक को सीमा में दिखाया गया था. ये भी तिब्बत की ओर रूसियों को बढ़ने से रोकने के लिए किया गया था.
बर्टिन लिंटनर ने अपनी किताब ‘चाइनाज इंडिया वॉर’ में लिखा, ‘चीन ने कभी भी जॉनसन-अर्दाघ लाइन को नहीं माना. 1892 में उसकी एक पेट्रोलिंग यूनिटन ने काराकोरम दर्रे पर कुछ बॉर्डर मार्कर्स लगा दिए, जहां शिनजियांग और लद्दाख के बीच एक पुराना रास्ता था. तब से ही चीन ने ये दावा करना जारी रखा कि लद्दाख के अक्साई चिन क्षेत्र का बड़ा हिस्सा उसका है.’
इसमें आगे लिखा है, ‘अंग्रेजों ने चीन की इन चालों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. रूसी साम्राज्य और तिब्बत के बीच एक और बफर जोन बनाने के लिए 1893 में एक नई बॉर्डर लाइन खींची गई. इसे मैकार्टनी-मैकडोनाल्ड लाइन कहा जाता है. इसमें अक्साई चिन का ज्यादातर हिस्सा चीनी क्षेत्र में दिखाया गया.’
दस्तावेजों के मुताबिक, पहला विश्व युद्ध खत्म होने तक ब्रिटिश सरकार ने जॉनसन-अर्दाघ लाइन को अपनी आधिकारिक सीमा माना. 1943 तक अंग्रेजों ने पश्चिमी क्षेत्र के पास की सीमाओं को एक बिंदीदार रेखा से चिन्हित किया था, क्योंकि 1921 से 1927 के बीच सीमा के परिसीमन को लेकर तिब्बत के साथ कोई बात नहीं बन सकी थी.
1949 में चीन जब पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना बना, तब वो चाहता तो मैकार्टनी-मैकडोनाल्ड लाइन को मान सकता था, क्योंकि इसमें अक्साई चिन का एक बड़ा हिस्सा चीन में दिखाया था. लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. जबकि, भारत ने आजादी के बाद जॉनसन-अर्दाघ लाइन को सीमा माना. चीन की हरकत की वजह से कन्फ्यूजन बढ़ा और अक्साई चिन में सीमा को ‘डिमार्केटेड’ यानी ‘अचिन्हित’ के रूप में दिखाया गया.
अक्साई चिनः एक पहेली
ऐसा कहा जाता है कि राष्ट्रीय नक्शे पूरी तरह से पक्षपाती होते हैं. अगर ऐतिहासिक भारतवर्ष के नक्शों को देखा जाए तो उसमें साफ दिखता है कि अक्साई चिन भारत का हिस्सा था. लेकिन इतिहास एक जटिल विषय है, इसलिए इस संघर्ष भरे क्षेत्र के लिए मौजूदा समय को ही प्राथमिक स्रोत मानना होगा.
1917 से 1933 के बीच चीन चीन के ‘पोस्टल एटलस ऑफ चाइना’ में छपे नक्शों में जॉनसन-अर्दाघ लाइन को ही दिखाया. लेकिन 1943 में चीन के ब्यूरो ऑफ सर्वे ने एक नया नक्शा जारी किया, जिसमें पश्चिमी अक्साई चिन को अपना हिस्सा बताया. 1951 में तिब्बत के कब्जे के बाद, चीन ने सिंकियांग-तिब्बत मोटर रोड नाम से एक सड़क बनाई. इस सड़क का 180 किलोमीटर हिस्सा अक्साई चिन से होकर गुजरता है. चीन ने ये सब भारत की परवाह किए बगैर किया.
इस घटना के सामने आने के बाद दोनों देशों के बीच कई दौर की बातचीत हुई. 1961 में ‘द रिपोर्ट ऑफ द ऑफिशियल्स’ आई, लेकिन इसका पालन कभी नहीं हुआ. चीन ने अगले साल अप्रैल में एक रिपोर्ट जारी की और भारतीय दस्तावेजों को बेतुका बताया.
4 दिसंबर 1961 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को चीन से एक लेटर मिला. इसमें 1954 के पंचशील समझौते को खारिज कर नई संधि की शर्तों के बारे में लिखा गया था. इस पर भारत ने जवाब देते हुए कहा कि वो पंचशील समझौते का ही पालन करेगा. इसमें चीन की आलोचना भी की गई और चीन यही चाहता था.
उस समय चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री झोऊ एनलाई की आर्थिक नीतियां फेल हो गई थीं. इससे चीन की जनता में नाराजगी बढ़ गई थी. भारत-चीन युद्ध के दौरान एनलाई ने राष्ट्रवादी भावनाओं का फायदा उठाया और चीन की जनता का पूरा ध्यान अपनी अप्रभावी नीतियों से हटाकर एक विदेशी दुश्मन भारत पर केंद्रित कर दिया.
युद्ध के शुरुआती दिनों में ही चीनी सैनिक लद्दाख में काफी अंदर तक घुस आए थे. इसके बाद एक 20 किलोमीटर की बेल्ट बनाई गई, जो चीन की तीन सूत्रीय शांति योजना के अनुसार थी. वेस्टर्न सेक्टर की ओर दौलत बेग ओल्डी, चुशुल, डेमचोक, लिपकी दर्रा जैसी भारतीय चौकियों को उसे छोड़ना पड़ा, जबकि बाराहोती (मिडिल सेक्टर में) चीन की ओर से दावा की गई नियंत्रण रेखा के अंदर आ गई.
दिसंबर 1962 में कोलंबो में एक सम्मेलन हुआ. इसमें बर्मा (अब म्यांमार), कंबोडिया, घाना, इंडोनेशिया, सेलोन जैसे गुटनिरपेक्ष देश शामिल हुआ. मकसद था भारत और चीन के बीच एक सुलह का प्रस्ताव देना.
इस सम्मेलन के बाद जारी संयुक्त बयान में कहा गया, ‘चूंकि संघर्ष पूर्वी और पश्चिमी, दोनों क्षेत्रों से शुरू हुआ इसलिए वापसी का सिद्धांत दोनों क्षेत्रों पर लागू होना चाहिए. किसी भी स्थिति में एक पक्ष को पीछे हटने और दूसरे पक्ष को आगे बढ़ने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. अगर पीछे हटना है तो ये पूरी भारत-चीन सीमा पर होना चाहिए, न कि किसी एक सेक्टर में.’ इस पर भारत ने तो रजामंदी दिखाई, लेकिन चीन ने साफ इनकार कर दिया.
लगभग एक सदी तक चीन की बाहरी सीमाएं उसके किसी भी नक्शे में कभी भी सटीक नहीं रहीं. जब भी कभी सीमा विवाद होता है तो चीन के नक्शों में सीमाओं को लेकर इस तरह का विवाद देखा जाता है