गौरव अवस्थी
चौदह बरस की निरंतरता कम नहीं होती। दिल्ली, इंदौर होते हुए ‘यादों की बारात’ इस साल चित्तौड़ पहुंच रही थी। प्रसंग वही प्रभाष जोशी जी की यादों से जुड़ने का। 15 जुलाई (प्रभाष जी की जयंती) को देश का ‘दिल’ दिल्ली जब पूरी तरह जागी भी नहीं थी, तब हिमाचल भवन के सामने उनके (प्रभाष जी) अनुयायियों की तरुणाई अंगड़ाई ले चुकी थी। एक-एक कर लोग पहुंच रहे थे। कई तो समय से पहले ही जम गए। इन्हीं में एक यह अकिंचन भी था। प्रभाष प्रसंग में जाने वालों में तीन पीढ़ियां- पहली, जिन्होंने उनके संग सत्संग या सत्कार्य किए। दूसरी, वह जो कुछ समय के लिए ही सही उनका सानिध्य सुख प्राप्त और तीसरी, नाम-काम-धाम से प्रभावित। तीन वर्ग-पुरुष, महिला और बच्चे। बस से जाने वालों में प्रभाष जी के पुत्र संदीप और पुत्रवधू श्रीमती उमा जोशी भी। दोनों उन्हीं की तरह अहम-वहम से दूर।
बसों की प्रतीक्षा बरबस हर वाहन की घर्र-घर्र पर हमारी ही क्या सभी की निगाह आड़ी-तिरछी कर देती। बस यात्रियों की इसी भीड़ के बीच एक कम वजनी (अंडर वेट) महिला बेझिझक पेट के लिए सभी से ‘वजन’ तुलवाने का अनुरोध कम गिड़गिड़ा सी ज्यादा रही थी। उधर, एक एकांत में कलाकार आदित्य अपनी कला को निखारने की मौन साधना में रमे थे। यह हमें पता भी न चलता अगर युगवार्ता और नवोत्थान के संपादकीय विभाग के सदस्य छोटे कद और बड़े संकल्प वाले तिवारी जी (पूरा नाम नहीं पता) यह कहकर ध्यान आकर्षित न करते- ‘आपकी फोटो बन गई..’ कुरूप हो या सुरूप। अपनी फोटो के लालच से भला कौन ऊपर?
चाय की चुस्कियों के बीच भाई राकेश सिंह ने सूचना दी- बस थोड़ी देर और! खैर, इंतजार खत्म हुआ और दो बसें आ पहुंची। जाने और जानने की जल्दी में जल्दी-जल्दी सबने सामान धरा और बस में स्थापित। दस मिनट में प्रकिया पूरी और शुरू हो गई प्रभाष प्रसंग से जुड़ी एक और यादगार बनने वाली चित्तौड़ यात्रा। बच्चों में प्रभाष स्मृति का बीजारोपण और हम जैसों को खाद-पानी का सुयोग। यात्रा के अर्द्ध भाग में बस के अंदर सर्वोदयी रमेश चंद शर्मा के सर्वोदय गीत-‘हिम्मत से पतवार संभालो फिर क्या दूर किनारा ओ माझी’ और ग्राम दान से बन जाएगा गोकुल अपना गांव रे.. की मनमोहक प्रस्तुति ने कुछ और ही माहौल बना दिया। होते-करते रात 11 बजे हम सब चित्तौड़ मेवाड़ विवि के परिसर में दाखिल हो ही गए। 12 घंटे से अधिक इस यात्रा की थकान बड़ों में न छोटों में। पुरुषों में न स्त्रियों में। कमरे में सामान रख, मुंह हाथ धोकर सब उसी दिशा में बढ़ चले, जिधर अन्नपूर्णा माई का वास था। बिल्कुल वैसे ही जैसे- चल पड़े उधर ही कोटि पग..।
रात में अन्नपूर्णा माई से मुलाकात के वक्त ही नाश्ते के लिए सुबह साढ़े आठ बजे की ताकीद कर दी गई थी। सो, सब तैयार। भरपेट स्वादिष्ट नाश्ते के बाद शुरू हुआ सिलसिला प्रभाष प्रसंग का। विवि के महाराणा प्रताप सभागार में सबसे पहले वही ‘कबीर गायन’ जो प्रभाष जी की पसंद था और जीवन का आधार भी। पहले विश्वविद्यालय के फाइन आर्ट विभाग के अध्यक्ष डॉ. त्रिगुनातीत जैमिनी, हरिओम गंधर्व व रोशनी कसौधन की प्रभावी प्रस्तुति और बाद में भीलवाड़ा की सांस्कृतिक संस्था रसधारा के कलाकारों की प्रार्थनाएं । मुख्य समारोह के पहले लोक गायक प्रहलाद सिंह टिपानिया ने कबीर के पद सुंदर और मधुर वाणी में सुनाकर एकबार फिर मंत्र मुग्ध कर दिया। यह वही टिपानिया हैं, जिन्हें प्रभाष जी ने ही पहचान दिलाई और सही-सच्चे मुकाम तक पहुंचाया।
चित्तौड़ की अपनी यह पहली यात्रा थी। मेरी ही तरह पता नहीं कितनों की होगी? चित्तौड़ की लड़ाइयां विश्व प्रसिद्ध हैं। मौर्यवंशी, गुहिलवंशी, राजपूताना, मुगलों और गुजरात के सोलंकी शासकों के अधीन रह चुके चित्तौड़ की गाथाएं तो खूब हैं पर पन्ना धाय का अध्याय वाकई में चित्त चुरा लेता है। इतिहास में ऐसा कोई दूसरा अध्याय कहां? इस समृद्ध इतिहास के बावजूद चित चोर चित्तौड़ की इस यात्रा में चहुं ओर प्रभाष जी ही थे। बलिया के सांसद वीरेंद्र सिंह हों या पूर्व सांसद महेश चंद्र शर्मा या केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान या पद्मश्री विजय दत्त श्रीधर। सब उन्हीं गुणों का गान कर रहे थे, जो प्रभाष जी के सरल-तरल-विरल व्यक्तित्व में समाए थे।
चूंकि किसी काम को करने के लिए एक नाम जरूरी है। कहने के लिए इस सब आयोजन का करता-धरता तो प्रभाष परंपरा न्यास है पर मेरुदंड तो राम बहादुर राय जी ही हैं। प्रभाष जी की तरह ही नाम से ज्यादा काम पर ध्यान। यकीन न हो तो 13हवें प्रसंग में बीएचयू के प्रो. सदाशिव कुमार द्विवेदी के प्रभाष जोशी स्मारक व्याख्यान की उस मुद्रित ‘पुस्तिका’ पर गौर फरमाएं, जिसमें नाम न परंपरा न्यास का है, न राम बहादुर राय या अन्य किसी का। परंपरा ऐसे ही बनती है, बचती है और बढ़ती भी। अक्सर देखा जाता है कि नाम के फेर में काम पीछे छूट जाते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि काम करने वालों को नाम बताने की जरूरत नहीं पड़ती।
आयोजन के लिए चित्तौड़ के चुनाव पर कुछ सवाल उठे। यह भी राय साहब के संबोधन से ही सबको या कहें खासतौर से हमें मालूम चला। इसीलिए प्रभाष प्रसंग चित्तौड़ में क्यों? का जवाब राय साहब को देना ही था। राय साहब ने दिया भी-‘इसलिए कि मेवाड़ विवि के कुलाधिपति डॉ अशोक कुमार गदिया जोशीले हैं और जिद्दी भी। उन्होंने अपने विवि के गांधी संग्रहालय को प्रभाष जी की स्मृति से जोड़ा है। प्रभाष जोशी स्मृति गांधी संग्रहालय का उद्घाटन प्रभाष प्रसंग के कार्यक्रम के अवसर पर ही संपन्न कराने का उनका संकल्प था। कई वर्षों से यह संकल्प अधूरा था। इसलिए उनकी इच्छा पर ही इस बार का प्रभाष प्रसंग चित्तौड़ में।’
प्रभाष जी की स्मृतियों से जुड़े इस संग्रहालय की बाहरी दीवार पर संग्रहकर्ता कलाकार सिद्दीक अहमद मंसूरी ने गांधी जी के 151 चित्र बनाकर न केवल अपनी कला बल्कि अपनी गांधीवादिता का प्रमाण भी दिया है। देश और दुनिया में गांधी जी से जुड़े तमाम संग्रहालय हैं पर अपनी तरह का यह अनूठा संग्रहालय है। यहां द स्टेट्समैन में 1948 का वह अंक भी संजो कर रखा गया है जिसमें बापू के शहीद होने की खबर छपी थी। हमने कौसानी का वह गांधी संग्रहालय भी देखा है, जहां गांधी जी ने कई दिन बिताए थे। इसमें और उसमें मूलभूत फर्क यह दिखा कि वहां चित्र संजोए गए हैं और यहां बनाए। विवि के संग्रहालयों की देखरेख करने वाली महानिदेशक डॉ चित्रलेखा सिंह को भी इसके लिए खूब सराहना मिलना भी इस बात का प्रमाण है कि अच्छे काम के कद्रदान समाज में आज भी हैं। यह भी प्रभाष परंपरा ही है। अपने संबोधन में विजय दत्त श्रीधर ने उनके इस गुण की चर्चा करके इसे प्रमाणित भी किया। इस पूरे आयोजन में प्रभाष जी की सहधर्मिणी श्रीमती ऊषा जोशी की मौन उपस्थिति भी यह बताने के लिए काफी है कि जिस तरह उन्होंने प्रभाष जी का ताजिंदगी साथ दिया, उसी तरह प्रभाष परंपरा न्यास का साथ और सानिध्य देने को वह तत्पर हैं।
इस यात्रा की एक बड़ी उपलब्धि ‘विनोबा दर्शन’ पुस्तक है, जिसमें विनोबा दर्शन की झलक प्रभाष जी की उन 39 रिपोर्ट से मिलती है जो उन्होंने 1960 में विनोबा के इंदौर प्रवास के वक्त नई दुनिया के लिए लिखीं थीं। प्रभाष जी का पहला लेखन 63 वर्ष बाद पुस्तकाकार रूप में आया है तो इसके पीछे भी अपने पूर्वज के प्रति आस्था और कर्म के प्रति निष्ठा ही है।
इस पुस्तक की जरूरत डॉ रामाशंकर कुशवाहा द्वारा प्रभाष जी के जीवन पर लिखी गई किताब ‘लोक का प्रभाष’ से निकली। लोक का प्रभाष तो प्रभाष जी के जीवन को समझा देती है पर प्रभाष जी का लोक बहुत बड़ा है। यह बताने और समझाने के लिए भी एक किताब की जरूरत महसूस हो रही है। प्रभाष जी को गए 14 बरस बीत गए। हर आयोजन में नए-नए चेहरे बताते हैं कि उनका पूरा ‘लोक’ एक आयोजन में समेटना मुश्किल ही नहीं असंभव है। इसीलिए ऐसी किताब भी हम जैसों को जरूरी लगती है। पत्रकारों खासकर नई पीढ़ी के पत्रकारों को यह जानना जरूरी है कि मिशनरी पत्रकारिता का ‘लोक’ कित्ता बड़ा होता जाता है? उसे नापना-मापना किसी के बस का नहीं। यह भी एक तरह का ‘शोध’ कार्य ही है।
फिर लौटते हैं विनोबा दर्शन पर। इसके संकलनकर्ता हैं हाल ही में दिवंगत नई दुनिया के इंदौर संस्करण के लाइब्रेरियन रहे कमलेश जैन। उन्होंने ही प्रभाष जी की वह रिपोर्ट सुरक्षित रखीं और सुरक्षित हाथों तक पहुंचाई भी। वरिष्ठ पत्रकार और प्रभाष परंपरा के वाहक श्री मनोज मिश्र के संपादन में निकली यह किताब नई पीढ़ी के पत्रकारों के लिए तो उपयोगी है ही, हम जैसे अधकचरे पत्रकारों के लिए भी कम प्रेरणादायक सिद्ध नहीं होगी।