पृथ्वी का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक बताते हैं कि पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है. पृथ्वी का तापमान बीते 100 वर्षों में 1 डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ गया है. पृथ्वी के तापमान में यह परिवर्तन संख्या की दृष्टि से काफी कम हो सकता है, परंतु इस प्रकार के किसी भी परिवर्तन का मानव जाति पर बड़ा असर हो सकता है. जलवायु परिवर्तन के कुछ प्रभावों को वर्तमान में भी महसूस किया जा सकता है. पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होने से हिमनद पिघल रहे हैं और महासागरों का जल स्तर बढ़ता जा रहा, परिणामस्वरूप प्राकृतिक आपदाओं और कुछ द्वीपों के डूबने का खतरा भी बढ़ गया है.
पिछले 150 वर्षों में वैश्विक औसत तापमान लगातार बढ़ रहा है. विश्व भर में जलवायु परिवर्तन का विषय सर्वविदित है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में जलवायु परिवर्तन वैश्विक समाज के समक्ष मौजूद सबसे बड़ी चुनौती है एवं इससे निपटना वर्तमान समय की बड़ी आवश्यकता बन गई है. आंकड़े दर्शाते हैं कि 19वीं सदी के अंत से अब तक पृथ्वी की सतह का औसत तापमान लगभग 1.62 डिग्री फॉरनहाइट अर्थात् लगभग 0.9 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है. इसके अतिरिक्त पिछली सदी से अब तक समुद्र के जल स्तर में भी लगभग 8 इंच की बढ़ोतरी दर्ज की गई है. आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि यह समय जलवायु परिवर्तन की दिशा में गंभीरता से विचार करने का है.
दुनिया के 197 देशों के सहयोग से यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज यानी यूएनएफसीसीसी पृथ्वी के तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने के उद्देश्य को पूरा करने की कोशिश में हर साल 1995 से लेकर अब तक बैठक करता आ रहा है. लेकिन उसके नतीजे क्या निकले ये दुनिया से छिपा नहीं है. संयुक्त राष्ट्र ने आशंका जाहिर की है कि अगले पांच साल में पृथ्वी का औसत तापमान 1.5 डिग्री की सीमा को पार कर जाएगा. अगर धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो 15 फीसदी प्रजातियां खत्म हो जाएंगी. धरती जैसे ही 2.5 डिग्री सेल्सियस ज्यादा गर्म होगी तो 30 फीसदी प्रजातियां खत्म हो जाएंगी.
यूनिवर्सिटी ऑफ केपटाउन, यूनिवर्सिटी ऑफ बफेलो और यूनिवर्सिटी ऑफ कनेक्टिकट ने एक शोध में यह दावा किया है. संयुक्त राष्ट्र की संस्था विश्व मौसम संगठन ने हाल में अनुमान लगाया कि अब से 2027 के बीच धरती का तापमान 19वीं सदी के मध्य की तुलना में सालाना 1.5 डिग्री से ज्यादा पर पहुंच जाएगा. यह सीमा महत्वपूर्ण है क्योंकि 2015 के पेरिस समझौते में इसी 1.5 डिग्री सेल्सियस औसत तापमान को दुनिया की सुरक्षा के लिए खतरनाक सीमा माना गया था और विभिन्न देशों ने शपथ ली थी कि इस सीमा को पार होने से रोकने के लिए कोशिश करेंगे.
तीनों यूनिवर्सिटी के शोध में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से दुनिया में बड़ा बदलाव आएगा. शोध में कहा गया है कि यह प्रजातियां सभी महाद्वीपों और समुद्र के किनारों से लुप्त होंगी. शोध में कहा गया है कि जब प्रजातियों के लिए गर्मी का स्तर उनकी सहनशक्ति से अधिक हो जाएगा तो यह जरूरी नहीं है कि उनकी मौत हो जाएगी, लेकिन इस बात के भी सबूत नहीं है कि वे ऊंचे तापमान से बच सकेंगी. शोध में कहा गया है कि कई प्रजातियों को रहने लायक जगह नहीं मिल पाएगी. किसी एक साल में 1.5 डिग्री की सीमा पार हो जाने की संभावना लगातार बढ़ती जा रही है.
एक दशक पहले ऐसा होने की संभावना सिर्फ दस फीसदी थी. 2020 में यह 20 फीसदी हो गई. 2021 में 40 फीसदी, और पिछले साल 48 फीसदी पर पहुंच गई. इस साल यह संभावना 66 फीसदी बताई गई है. एक शोध में पाया गया है कि यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के विषय को गंभीरता से नहीं लिया गया और इसे कम करने के प्रयास नहीं किये गए तो सदी के अंत तक पृथ्वी की सतह का औसत तापमान 3 से 10 डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ सकता है.पिछले कुछ दशकों में बाढ़, सूखा और बारिश आदि की अनियमितता काफी बढ़ गई है.
यह सभी जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप ही हो रहा है. कुछ स्थानों पर बहुत अधिक वर्षा हो रही है, जबकि कुछ स्थानों पर पानी की कमी से सूखे की संभावना बन गई है. वैश्विक स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग के दौरान ग्लेशियर पिघल जाते हैं और समुद्र का जल स्तर ऊपर उठता है जिसके प्रभाव से समुद्र के आस-पास के द्वीपों के डूबने का खतरा भी बढ़ जाता है. मालदीव जैसे छोटे द्वीपीय देशों में रहने वाले लोग पहले से ही वैकल्पिक स्थलों की तलाश में हैं. तापमान में वृद्धि और वनस्पति पैटर्न में बदलाव ने कुछ पक्षी प्रजातियों को विलुप्त होने के लिये मजबूर कर दिया है.
विशेषज्ञों के अनुसार, पृथ्वी की एक-चैथाई प्रजातियाँं 2050 तक विलुप्त हो सकती हैं. भारत में भी जलवायु परिवर्तन का असर साफ तौर पर दिखने लगा है. सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरन्मेंट यानी सीएसई की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल के पहले चार महीनों में देश में खराब मौसम की घटनाओं ने 233 लोगों की जान ले ली और 0.95 मिलियन हेक्टेयर फसल को नुकसान पहुंचाया. चरम मौसमी घटनाओं ने अबकी बार 32 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को प्रभावित किया, जबकि पिछले साल यह संख्या 27 थी.
रिपोर्ट के अनुसार, जनवरी और अप्रैल 2022 के बीच, चरम मौसमी घटनाओं ने 86 लोगों की जान ले ली और 0.03 मिलियन हेक्टेयर फसल को नुकसान पहुंचाया. 2022 में इसी अवधि के दौरान 35 दिनों की तुलना में इस बार 58 दिन बिजली और तूफान आए. इनमें से अधिकांश घटनाएं मार्च और अप्रैल में हुईं. देश ने पिछले साल के 40 दिनों की तुलना में 2023 के पहले चार महीनों में सिर्फ 15 दिन लू दर्ज की. भारत ने 2022 में 365 दिनों में से 314 दिन चरम मौसम की घटनाओं का अनुभव किया.
घटनाओं ने 3,026 लोगों की जान ले ली और 1.96 मिलियन हेक्टेयर (हेक्टेयर) फसल क्षेत्र को नुकसान पहुंचाया. संयुक्त राष्ट्र की एक विशेष एजेंसी, विश्व मौसम विज्ञान विभाग के आंकड़ों के अनुसार, 1970 और 2021 के बीच चरम मौसम, जलवायु और पानी से संबंधित घटनाओं के कारण भारत में 573 आपदाएं हुईं, जिसमें 1,38,377 लोगों की जान गई. विश्व के 230 से अधिक मेडिकल जर्नल की रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चला है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते ही मौजूदा वक्त में मनुष्य इतनी अनगिनत और अप्रत्याशित गंभीर बीमारियों का शिकार हो रहा है.
मानव स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के चलते एक बड़ी आबादी विस्थापित होगी जो ‘पर्यावरणीय शरणार्थी’ कहलाएगी. इससे स्वास्थ्य संबंधी और भी समस्याएँ पैदा होंगी. गर्मी से पूरी दुनिया में होने वाली मौतें बढ़ रही हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार, पिछले दशक से अब तक हीट वेव्स के कारण लगभग डेढ लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है. भीषम गर्मी के प्रकोप से किडनी की कार्यक्षमता भी प्रभावित हो रही है.अंग फेल्योर होने से भी लोगों की जान जा रही है. गर्मी के चलते ही डिहाइड्रेशन से लेकर दिल और फेफड़े की बीमारियां भी हो रही हैं.
इसके अलावा प्रसव में होने वाली परेशानियां, विभिन्न तरह की एलर्जी और मानसिक बीमारियों की भी वजह जलवायु परिवर्तन ही है. पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार, पृथ्वी का तापमान 1.1 से 1.2 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ चुका है. जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने जरूरी है कि वैश्विक तापमान औसत 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड पर स्थिर हो जाए. ऐसा करने के लिए 2030 तक ग्रीन हाउस गैसों और कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन कम कर 40 प्रतिशत तक लाना होगा.