नई दिल्ली: बसपा संस्थापक कांशीराम ने दलित समाज के बीच ऐसी सियासी चेतना जगाई कि मायावती चार बार यूपी की सत्ता पर विराजमान हुईं. अस्सी के दशक में कांशीराम ने समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े दलितों के बीच सियासी अलख ऐसी जगाई कि उन्हें राजनीतिक व्यूह रचना के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया. दलित वोटों के दम पर मायावती का एकछत्र राज लंबे समय तक कायम रहा, लेकिन सत्ता से बाहर होने के साथ ही बसपा की सियासी जमीन लगातार सिकुड़ती जा रही है. ऐसे् में सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी आरक्षण के वर्गीकरण के फैसले ने बसपा को एक मुद्दा दे दिया है, जिसे लेकर मायावती दोबारा दलित समुदाय के विश्वास जीतने की कवायद में हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण को सब-कैटेगरी बनाने का अधिकार राज्यों को दे दिया है. जस्टिस बीआर गवई ने एससी-एसटी आरक्षण में क्रीमीलेयर लागू करने पर भी जोर दिया. सर्वोच्च अदालत के इस फैसले को लेकर मायावती खुलकर विरोध में उतर गई हैं. मायावती ने कहा कि आरक्षण का बंटवारा अनुचित और असंवैधानिक है. सुप्रीम कोर्ट से फैसले पर पुनर्विचार करने के साथ-साथ एससी और एसटी वर्ग के लोगों से अपने संवैधानिक अधिकारों को बचाने की अपील किया. दलित समुदाय से उन्होंने कहा कि आपातकालीन स्थिति को समझते हुए एकजुट हों और सभी राजनीतिक पार्टियों के ऊपर दबाव डालकर उन्हें संवैधानिक संशोधन के लिए मजबूर करें.
कोटा में कोटा को सियासी मुद्दा बनाने में जुटीं
मायावती एससी-एसटी आरक्षण के कोटा में कोटा बनाने का फैसला को सियासी मुद्दा बनाने में जुट गई हैं. आरक्षण के मुद्दे को उठाकर बसपा प्रदेश भर में संगठन को मजबूत करने की तैयारी में जुटी है. बसपा ने रणनीति बनाया है कि ग्राम सभाओं के माध्यम से पार्टी लोगों को आरक्षण के मसले पर जागरूक करेगी. इसके लिए बसपा के जिला से लेकर ग्राम स्तर पर पार्टी नेताओं को विशेष दिशा-निर्देश भी जारी किए गए हैं. बसपा की कोशिश अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के वोटरों के बीच आरक्षण के मुद्दे को प्रभावित तरीके से स्थापित किया जाए सके. एससी-एसटी आरक्षण के फैसले से दलित समाज को होने वाले सियासी नुकसान को बताने से ज्यादा आरक्षण खत्म किए जाने की साजिश करार देने की रणनीति है.
बसपा प्रमुख मायावती के भतीजे आकाश आनंद ने दलित आरक्षण को सियासी मुद्दा बनाना शुरू कर दिया है. उन्होंने कहा कि बीजेपी और कांग्रेस जब लाल किताब दिखाकर कहती है कि हम संविधान बचाने आए हैं, लेकिन ये लोग आपसे आपका हक छीनने का काम कर रहे हैं. हरियाणा के गोहना में आकाश आनंद ने कहा कि साथियों, एक तरफ बीजेपी है, जिसके निशाने मान्यवर कांशीराम साहेब का मूवमेंट है, दूसरी तरफ कांग्रेस है, जिसे हमेशा से बाबा साहेब से नफरत रही है. दोनों ही दल जातिवादी मानसिकता से चलते हैं. ये लोग आरक्षण और संविधान को तरह-तरह से अपने फायदे के लिए तोड़ने मरोड़ने की कोशिश करते रहे हैं. इस तरह से दलित समुदाय के विश्वास को जीतने की और उनके हितैशी बनने की कोशिश में है.
बसपा ने कभी यूपी की राजनीति में बनाया असर
अस्सी के दशक में कांशीराम ने दलित समुदाय के बीच के शासन और सत्ता में भागीदारी के लिए बहुजन समाज पार्टी का गठन किया है. सामाजिक न्याय का बुलंद करते हुए कांशीराम ने ‘जिसकी जितनी भागीदारी, सत्ता में उसकी उतनी हिस्सेदारी’ की बात कही थी. इस तरह कांशीराम ने दलित समाज के हक और हुकूक के लिए पहले डीएस-4, फिर बामसेफ और 1984 में दलित, ओबीसी और अल्पसंख्यक समाज को सियासी अधिकार दिलाने के लिए बहुजन समाज पार्टी का गठन किया. बसपा ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी एक अलग छाप छोड़ी, जिसके सहारे मायावती चार बार मुख्यमंत्री बनी.
कांशीराम बहुजन समाज की सियासत करते रहे, जिसके साथ मायावती ने सर्वजन जोड़ा. इसके असर यह हुआ कि साल 2007 में मायावती पूर्ण बहुमत के साथ यूपी में सरकार बनाई, लेकिन इसके बाद से बसपा के कमजोर होने का सिलसिला शुरू हो गया. 2012 में मायावती के उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर होने के बाद से पार्टी का प्रदर्शन कभी भी बेहतर नहीं हो पाया है. यूपी में घटते जनाधार और दलित वोटबैंक पर जंग के साथ ही बसपा के लिए चुनौती बढ़ गई है. मायावती सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है.
बसपा से बिखरने लगे जाटव भी
उत्तर प्रदेश में दलित मतदात 21 फीसदी है और बसपा को 2019 में मिला वोट शेयर 19.43 प्रतिशत से गिरकर 9.39 प्रतिशत पर पहुंच गया. यह दिखाता है कि नॉन जाटव वोटर तो पहले ही उससे दूर हो गए थे, 2024 के लोकसभा चुनाव से जाटव मतदाता भी छिटक गए हैं. जाटव जाति के मतदाताओं का 60 फीसदी हिस्सा अभी भी बसपा के साथ रहा, लेकिन उनके 30 फीसदी वोट सपा-कांग्रेस लेने में सफल रहीं. महज 10 फीसदी वोट ही बीजेपी की ओर गया. इसी तरह पासी वोट में भी बिखराव दिखा है.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से यूपी में दलित समुदाय को मिलने वाले 21 फीसदी आरक्षण के बंटवारे का रास्ता खुल गया है. यूपी में सियासी तौर पर जाटव और गैर-जाटव के बीच दलित बंटा हुआ है. राजनाथ सरकार के दौरान यूपी में 21 फीसदी दलित आरक्षण को 10 फीसदी और 11 फीसदी में बांटने की बात कही थी, लेकिन उस समय बसपा के मजबूत होने के चलते उसे अमलीजामा नहीं पहना सकी. यूपी में अनुसूचित जाति को मिलने वाले आरक्षण का लाभ जाटव समुदाय को सबसे ज्यादा हुआ है और उसके बाद धोबी, पासी और अन्य जातियों को मिला है, लेकिन कोरी, कोल, बाल्मिकी जैसी दलित जातियां को आरक्षण वैसा नहीं मिला जैसे जाटवों को मिला है.
मायावती अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सियासी धार देकर जाटव समुदाय के विश्वास को बनाए रखते हुए पासी, धोबी और खटिक समाज को एकजुट करने की कोशिश में जुट गई हैं, इसे बड़ा सियासी दांव माना जा रहा है. एक बार फिर बसपा प्रमुख बहुजन समाज की तरफ रुख करती दिख रही हैं. उनके लिए आरक्षण का मुद्दा एक बड़ा मुद्दा बनता दिख रहा है.
यूपी में आरक्षण का मुद्दा बनाने की तैयारी
मायावती ने उत्तर प्रदेश में आरक्षण को बड़ा मुद्दा बनाने की रूपरेखा बनाई है. कोटे के अंदर कोटा यानी उप वर्गीकरण के फैसले को लेकर जमीनी स्तर पर सियासी माहौल बनाने की स्टैटेजी है. बसपा के लोग अब गांव-गांव जाकर एससी-एसटी वर्ग के लोगों को यह समझने की कोशिश करते दिखेंगे कि बीजेपी और कांग्रेस दलित आरक्षण को खत्म करने की साजिश रच रही है. इस तरहह मायावती की चिंता अपने बिखरते वोट बैंक को बचाने की है. इसको लेकर पार्टी कार्यकर्ताओं को गांव-गांव में चौपाल लगाने का निर्देश दिया है. इसमें दलित और आदिवासी समाज के लोग आमंत्रित होंगे. हरियाणा में जिस तरह से आकाश आनंद ने मोर्चा खोल दिया है, उसके साफ जाहिर है कि बसपा को अपने खिसके हुए सियासी आधार को पाने का प्लान है.