Umesh Chaturvedi
भारतीयता की पारंपरिक अवधारणा को चोट पहुंचाना पश्चिम से प्रभावित आधुनिकता की निशानी बन चुकी है। सनातन संस्कृति और भारतीय इतिहास के गौरवमयी पल तथाकथित प्रगतिशीलता के टारगेट पर रहते हैं। पाखंड के विरोध और सेकुलरवाद के समर्थन की जब भी बात होती है, भारतीय प्रगतिशीलता की नजर सिर्फ सनातनी संस्कृति पर ही जाकर अटक जाती है। भारतीय प्रगतिशीलता इसी बहाने खूब तालियां हासिल करती है। इसलिए भारतीयता को गाली देने और सवाल उठाने का चलन बढ़ गया है। यही वजह है कि गीता प्रेस जैसी शुद्ध आध्यात्मिक और सेवाभावी संस्था को भी सांप्रदायिकता का प्रतीक बताने की होड़ चल पड़ती है।
ऐसे माहौल में अगर गीता प्रेस को गांधी अंतरराष्ट्रीय शांति पुरस्कार मिले और उसके शताब्दी वर्ष में उसके पवित्र आंगन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद पहुंचें तो प्रगतिवादी प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक है। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने वहां जाकर दो तरह के संदेश दिए हैं। पहला संदेश उन प्रगतिवादियों को है, जिनकी नजर में भारतीयता की समूची अवधारणा, उसका पूरा इतिहास सिर्फ और सिर्फ तिमिर काल है। भारतीयता में प्रगतिवाद, आर्थिक विकास आदि की जड़ें जिन प्रगतिशील लोगों की नजर में सिर्फ मध्यकाल, विशेषकर मुगलिया सल्तनत काल से शुरू होती है, गीता प्रेस के प्रांगण में प्रधानमंत्री का जाना उनकी सोच को जवाब है। प्रधानमंत्री मोदी का गीता प्रेस के प्रांगण का दौरा करना अपने समर्थकों को भी बड़ा संदेश है कि वे सनातनी संस्कृति के प्रतीकों का वैसे ही आदर करते हैं, जैसे करोड़ों भारतीय हमेशा करते रहे हैं।
प्रधानमंत्री मोदी जिस तरह देशव्यापी दौरे कर रहे हैं, उससे साफ है कि अगले चुनाव की तैयारियों में वे जुट गए हैं। कुछ लोगों का आरोप है कि गीता प्रेस के प्रांगण में जाकर एक तरह से प्रधानमंत्री मोदी ने अपने वोटरों को संदेश देने की कोशिश की है। आरोप लगाने वालों को ध्यान रखना चाहिए कि मोदी अगर प्रधानमंत्री हैं तो अपनी विचारधारा और उसके प्रति लोगों से मिले अथाह समर्थन की वजह से हैं। फिर वे कोई संत नहीं हैं, वे राजनेता भी हैं। राजनीति उनका धर्म है और उसी धर्म के तहत अगर वे अपने वोटरों को संदेश देने की कोशिश में जुटते हैं तो इस पर सवाल कैसा?
गीता प्रेस को अधम साबित करने वालों ने गांधी जी की बहुत दुहाई दी है। गांधी जी के बयानों को देखिए। उन्होंने कई बार कहा है कि वे चतुर बनिया हैं। ऐसा कहकर वे खुद को जातिवादी साबित करने की कोशिश नहीं करते थे, बल्कि वे यह जताना चाहते थे कि उनके हर कदम की बुनियाद में दरअसल भारतीय राजनीति और राष्ट्र का फायदा वैसे ही देखा जाता है, जैसे बनिया अपने कारोबार में देखता है। मोदी भी उसी गुजरात से आते हैं, जहां के सपूत गांधी हैं। मोदी अक्सर गांधी को अपना प्रेरणा स्रोत बताते भी हैं। इसलिए मोदी के इस कदम को गांधी की उसी राजनीतिक सोच से जोड़कर क्यों नहीं देखा जा सकता?
गीता प्रेस की पहुंच भारत के हर सनातनी परिवार के घर तक है। जिस-जिस घर में हिंदी पढ़ी जाती है, वहां गीता प्रेस का एक ना एक प्रकाशन जरूर है। रामचरित मानस, गीता, रामायण ना सही, हनुमान चालीसा गुटका रूप में हर घर में जरूर उपलब्ध है। दक्षिण भारत में भी गीता प्रेस की पहुंच हिंदी की बनिस्बत संस्कृत के जरिए है। विष्णु सहस्रनाम हो या रामायण या रामायण के सुंदर कांड का संस्करण, दक्षिण भारतीय हर सनातनी परिवार में ये ग्रंथ जरूर मिलते हैं। अगर प्रधानमंत्री मोदी गीता प्रेस की यात्रा करते हैं तो एक साथ वे इन परिवारों तक अपनी पहुंच बनाने की कोशिश करते हैं।
वैसे गीता प्रेस को इतनी तवज्जो और उसकी तरफ लोगों का इतना ध्यान आकर्षित करने में भारतीय जनता पार्टी, उसके अगुआ नरेंद्र मोदी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बजाय प्रगतिशील तबके की बड़ी भूमिका है। मोदी हों या भाजपा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, इस बहाने उपजे आकर्षण को अगर अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए भुना रहे हैं तो इसमें ज्यादा गलती प्रगतिवादी सोच की है। अगर उन्होंने विवाद नहीं खड़ा किया होता तो शायद भारतीय लोगों का इतना ध्यान उस ओर जाता भी नहीं।
गीता प्रेस को जैसे ही गांधी अंतरराष्ट्रीय शांति पुरस्कार देने की घोषणा हुई, आलोचकों का एक खेमा इस पुरस्कार पर सवाल उठाते हुए भारतीय इतिहास के कुछ प्रमुख प्रेसों को सम्मानित करने की दुहाई देने लगा। कहा गया कि नवल किशोर प्रेस और खड्गविलास प्रेस का भारतीयता को बढ़ावा देने में गीता प्रेस की तुलना में कहीं ज्यादा योगदान है।
यह सच है कि नवल किशोर प्रेस ने करीब पांच हजार शीर्षकों वाली किताबें उस दौर में छापीं और हिंदी समाज को उपलब्ध कराई, जब छापे की तकनीक पुरातन थी। खड्गविलास प्रेस की भी वैसी ही भूमिका रही। इस हिसाब से देखें तो ज्ञानमंडल यंत्रालय, श्रीवेंकटेश्वर छापाखाना, हिंदी प्रचारिणी सभा आदि तमाम तरह के प्रकाशकों के नाम इस सूची में शामिल हो सकते हैं। लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इनमें से कई अब मृतप्राय हैं। जबकि गीता प्रेस ने मुनाफाहीनता के दर्शन के बावजूद अपना वजूद ना सिर्फ बचाए रखा है, बल्कि सौ साल की यात्रा भी पूरी की है।
जिस तरह का आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दर्शन मौजूदा दौर में स्वीकार्य हुआ है, उसमें हर कदम को राजनीति के तराजू पर तौलने की परिपाटी चल पड़ी है। इससे बचा भी नहीं जा सकता। गीता प्रेस पर उठे विवाद और उसके बीच प्रधानमंत्री मोदी के गीता प्रेस प्रांगण के दौरे को भी इसी नजरिए से देखा जाना भी अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि इसे तूल देकर मोदी विरोधियों ने मोदी को अवसर और राजनीतिक औजार-दोनों मुहैया करा दिये। मोदी अपने विरोधियों की आलोचनाओं के बीच से ही अपने लिए मुफीद राह तलाशते रहे हैं। गीता प्रेस पर उठे विवाद और मोदी के उसके प्रांगण के दौरे को भी इसी नजरिए से देखा और समझा जाना चाहिए।
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।