ऋषिकेश : एक तरफ कोरोनावायरस से पूरे विश्व में आकार मचा रखा है। विश्व के लगभग अधिकांश देश कोरोनावायरस की चपेट में हैं। बड़े बड़े देश के वैज्ञानिक इसको रोकने में लाचार है, असमर्थ हैं।वहीँ दूसरी तरफ इस विकट परिस्थिति में की तरफ काफी लोगों का झुखाव देखने को मिला है. कहते हैं इंसान पर मुसीबत आती है तो सबसे पहले ईश्वर को याद करता है. उसी मनोदशा से देश, विश्व गुजर रहा है वर्तमान में. विश्व की जनता में कोरोनावायरस को लेकर हाहाकार मचा हुआ है। लोगों में निराशा का भाव है लोगों की समझ में नहीं आ रहा कि यह बीमारी आखिर कब तक जाएगी? कब तक कोरोनावायरस से लोगों को मुक्ति मिलेगी?
आखिर कब तक लोग इस कोरोनावायरस से बचाव के लिए सफल होंगे इन सारे प्रश्नों का उत्तर ऋषिकेश स्थित जूना अखाड़े के महामंडलेश्वर अवधूत अरुण गिरी जी महाराजने भविष्यवाणी करते हुए कहा कि कोरोनावायरस 2023 तक रहेगा. 2023 के बाद कोरोनावायरस पूरी तरह समाप्त हो जाएगा और विश्व से पूरी तरह से मुक्त हो जाएगा। लेकिन 2023 तक आपको अपने आपको अपना बचाव करके रखना होगा. वहीँ, धीरे धीरे इसकी शक्ति नष्ट होगी. महाराज का कहना है मेडिकल की पढ़ाई अपनी जगह है और अध्यात्म अपनी जगह. अध्यात्म से सृष्टि चलती है न की मेडिकल से. प्रकति, जीवन सब आध्यात्म के अनुसार चलता है. महाराज यज्ञ के लिए जोर देते हैं. महाराज का कहना है यज्ञ करने से वातावरण शुद्ध होता है मंत्रोच्चार करने से सद्बुद्धि और शक्ति प्राप्ति होती है. शरीर में मन सकारात्मक क्रिया करता है.महाराज का कहना है वह खुद घंटों हवन करते हैं और हवन के धुवें में घंटों में कमरे में रहते हैं. ताकि मन और तन शुद्ध हो सके. अवधूत अरुण गिरी जी महाराज इससे पहले कहीं भविष्यवाणी कर चुके हैं. उनके भक्त जाने माने देश के बड़े नेतागण, अधिकारी से लेकर आम जन तक हैं.
कोरोना से बचाव के लिए उपाय:
अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो महाराज ने उपाय बताये हैं. वे इस प्रकार हैं.
-अधिक से अधिक समय घर पर बिताए, घर में हवन करें
-विशेष तौर से उत्तम किस्म के हवन सामग्री के द्वारा घर में नित्य हवन करें
-योगाभ्यास करें, अपनी इम्युनिटी बढ़ाएं जरूरत के समय ही घर से बाहर निकलें.
-प्रकृति प्रदत साग सब्जियां और भारतीय भोजन घर पर बना हुआ खाएं.
-बाहर की चीजों से परहेज करें. घर पर बनाया हुआ काढ़ा पियें तो निश्चित रूप से धीरे धीरे कोरोनावायरस अपने आप समाप्त हो जाएगा।
-कोरोनावायरस से घबराने की जरूरत नहीं है यदि वैदिक रीति को अपनाकर योग ध्यान किया जाए तो कोरोना कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है.
-महाराज भी हर राशि के अनुसार यज्ञ/हवन सामिग्री तैयार करते हैं ऑनलाइन घर बैठे कोई भी कहीं भी विश्व के कोने में मांगा सकता है.
अध्यात्म है क्या ?
अध्यात्म पारलौकिक विश्लेषण या दर्शन नहीं है। अध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है – ‘स्वयं का अध्ययन-अध्ययन-आत्म। वासुदेवशरण अग्रवाल ने अध्यात्म की सुसंगत व्याख्या की है, ”इसका तात्पर्य यह है कि जो अपना भाव अर्थात् प्रत्येक जीव की एक-एक शरीर में पृथक पृथक सत्ता है, वही अध्यात्म है। समस्त सृष्टिगत भावों की व्याख्या जब मनुष्य शरीर के द्वारा (शारीरिक संदर्भ लेकर) की जाती है तो उसे ही अध्यात्म व्याख्या कहते हैं।” (वही, पृष्ठ 55) गीता में श्रीकृष्ण का उत्तार सरल है – स्वभावो अध्यात्म उच्यते – स्वभाव को अध्यात्म कहा जाता है। (8.3) स्व शब्द बड़ा प्यारा है। इससे कई शब्द बने हैं। ‘स्वयं’ शब्द इसी का विस्तार है। स्वार्थ भी इसी का हितैषी है। स्वानुभूति अनुभव विषयक ‘स्व’ है। सभी प्राणी मरणशील हैं, जब तक जीवित हैं, तब तक स्व हैं, तभी तक सुख हैं, संसार है, जिज्ञासाएं हैं, प्रश्न हैं। विज्ञान और दर्शन के अध्ययन है। प्रत्येक ‘स्व’ एक अलग इकाई है। इसकी अपनी काया देह है, अपना मन है, बुध्दि है, विवेक है, दृष्टि है विचार हैं। इन सबसे मिलकर भीतर एक नया जगत् बनता है। इस भीतरी जगत् की अपनी निजी अनुभूति है, प्रीति और रीति भी है। अपने प्रियजन हैं, अपने इष्ट हैं। इन सबसे मिलकर बनता है ”एक भाव” इसे ‘स्वभाव’ कहते हैं। स्वभाव नितांत निजी वैयक्तिक अनुभूति होता है लेकिन स्वभाव की निर्मिति में माँ, पिता, मित्र परिजन और सम्पूर्ण समाज का प्रभाव पड़ता है। स्वभाव निजी सत्ता और प्रभाव बाहरी। जब स्वभाव प्रभाव को स्वीकार करता है, प्रभाव घुल जाता है, स्वभाव का हिस्सा बन जाता है। इसका उल्टा भी होता है, लेकिन बहुत कम होता है।
अध्यात्म में शक्ति होती है. अध्यात्म एक दर्शन है, चिंतन-धारा है, विद्या है, हमारी संस्कृति की परंपरागत विरासत है, ऋषियों, मनीषियों के चिंतन का निचोड़ है, उपनिषदों का दिव्य प्रसाद है। आत्मा, परमात्मा, जीव, माया, जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, सृजन-प्रलय की अबूझ पहेलियों को सुलझाने का प्रयत्न है अध्यात्म। यह अलग बात है कि इस प्रयत्न को अब तक कितनी सफलता मिल पाई है। अब तक निर्मित स्थापनाएं, धारणाएं, विश्वास, कल्पनाएं किस सीमा तक यथार्थ की परिधि को छू पाई हैं, यह प्रश्न अनुत्तरित है, पर इस दिशा में अनंत प्रयत्न अनेक उर्वर मस्तिष्कों द्वारा किए जाते रहे हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है।
दरअसल, वेदों का रचनाकाल जो अनुमानित 5000 वर्ष पूर्व का है ‘वैदिककाल’ कहा जाता है। तब हमारा देश कृषि और पशुपालन युग में था। उस समय के निवासी कर्मठ, फक्कड़, प्रकृतिप्रेमी, सरल और इस जीवन को भरपूर जीने की लालसा वाले थे। उन्होंने कुछ प्राकृतिक शक्तियों की पहचान की, जैसे मेघ, जल, अग्नि, वायु, सूर्य, उषा, संध्या आदि और स्वयं इनको या इन्हें संचालित करने वाले काल्पनिक आकारों (जैसे वरुण, इंद्र, रुद्र) को देवों के रूप में मान्यता दी। फिर इन्हें प्रसन्न रखने और इनके आक्रोश से उत्पन्न अनिष्ठ से अपने जीवन, अपनी फसलों, अपने पशुओं को बचाने के लिए इनके निमित्त अनुष्ठान किए जाने लगे। ये अनुष्ठान फिर अपनी कामना-पूर्ति और बीमारियों, शत्रु पर विजय पाने के तंत्र के रूप में विकसित हो गए.