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भालू की ‘राष्ट्रीयता’ पर नेपाल में छिड़ी बहस

नेपाल के एकमात्र चिड़ियाघर में सीमित सुविधाएं होने के बावजूद अधिकारियों ने भालू की ‘राष्ट्रीयता’ का हवाला देते हुए छुड़ाये गये धुथारु को भारत भेजने से इनकार कर दिया।

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
18/04/21
in अंतरराष्ट्रीय, मुख्य खबर
भालू की ‘राष्ट्रीयता’ पर नेपाल में छिड़ी बहस

छुड़ाये जाने से पहले धुथारु [image courtesy: Laxmi Prasad Ngakhusi]

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नेपाल के एक मशहूर दैनिक कांतिपुर में पहले पेज पर खबर छपने के साथ ये सब शुरू हुआ। इसमें सिराहा में भालू नचाने वाले एक शख्स के जीवन की कहानी का जिक्र था। यह शख्स दक्षिण-पूर्वी जिले में पूरा दिन घूमता रहता था और दर्शकों के सामने एक भालू को नचाकर अपनी जीविका चलाता था। रिपोर्टर की स्टोरी में इस शख्स के बारे में सहानुभूति थी जिसमें उसके गरीबी में जीवनयापन का जिक्र था। इस स्टोरी ने अखबार के अनेक पाठकों के दिल को छुआ।

छुड़ाये जाने से पहले धुथारु [image courtesy: Laxmi Prasad Ngakhusi]
छुड़ाये जाने से पहले धुथारु [image courtesy: Laxmi Prasad Ngakhusi]
लेकिन स्नेहा श्रेष्ठ इस स्टोरी को पढ़कर बेहद नाराज हुईं। एक एनिमल वेलफेयर चैरिटी चलाने वाली स्नेह श्रेष्ठ कहती हैं, इस स्टोरी को पढ़कर मैं सबसे पहला काम करना चाहती थी कि अपनी टीम के साथ सिराहा जाकर इस भालू को छुड़ा लाऊं और उसे अत्याचार से मुक्ति दिलाऊं। छोटे से धुथारु को छुड़ाने के लिए उनकी टीम पूरी रात यात्रा करके काठमांडू पहुंची। लहान जिला मुख्यालय के पास एक गांव से एक साल के नर भालू धुथारु को उनकी टीम छुड़ाने में कामयाब रही।

कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल ट्रेड इन इन्डैन्जर्ड स्पीशीज ऑफ वाइल्ड फाउना एंड फ्लोरा (सीआईटीईएस) सेक्रेट्रिअट के मुताबिक, अपनी सुस्ती के लिए पहचान रखने वाले धुथारु जैसे सुस्त भालू (Melursus ursinus) बांग्लादेश, नेपाल, भारत और श्रीलंका में पाये जाते हैं। यूएनसीएन रेड लिस्ट में भी इनको दुर्लभ प्रजातियों की सूची में रखा गया है। चूंकि स्नेह के एनजीओ जैसे संगठन जंगली जानवरों को अपने आप नहीं छुड़वा सकते हैं, इसलिए धुथारु को सरकार को सौंपा गया था। साथ ही, ये निवेदन किया गया था कि उसे भारत में एक वाइल्ड लाइफ रिकवरी सेंटर में ले जाकर छोड़ा जाएगा क्योंकि नेपाल में इस तरह की सुविधा नहीं है।

लेकिन पिछले छह महीने से वह देश के एकमात्र चिड़ियाघर, जो कि काठमांडू में है, में एक छोटे से पिंजरे में मुरझाया हुआ कैद है। सरकारी अधिकारियों ने श्रेष्ठा और अन्य कार्यकर्ताओं की बार-बार की जा रही इस मांग को खारिज कर दिया है कि भालू को भारत भेज दिया जाए। इसके पीछे अधिकारियों का तर्क है कि वह नेपाल की संपत्ति है।

क्या वन्यजीवों की ‘राष्ट्रीयता’ होती है?
धुथारु के भाग्य के इर्द-गिर्द की इस बहस ने ट्रांसबाउंड्री वन्यजीव संरक्षण से निपटने के मामले में सरकार की खराब तैयारी को उजागर कर दिया है जो नेपाली अधिकारियों के लिए बार-बार आने वाला मुद्दा बन गया है। इससे पहले 2018 में रंगीला, जिसे नेपाल का आखिरी नाचने वाला भालू कहा गया था, के भारत स्थानांतरण के दौरान विवाद हुआ था। श्रेष्ठा को उम्मीद थी कि सरकार आसानी से धुथारु को भारत में एक वन्य जीव अभ्यारण्य में सौंप देगी क्योंकि नेपाल सरकार पिछले दशक में ‘नाचने वाले’ छुड़ाये गये दो भालुओं को भारत को सौंप चुकी है। ऐसा पहली बार 2010 में हुआ था और दूसरी बार 2018 में ऐसा किया गया।

जानवरों के अधिकारों के लिए काम करने वाले अन्य एक्टिविस्ट्स उनकी इस बात से सहमत हैं। पिछले दो मामलों में शामिल रहे नीरज गौतम कहते हैं, “हमने पहले भी दो ऐसे मामले देखे हैं इसलिए भालू को भारत सौंपना कोई मुद्दा नहीं बनाना चाहिए।“ लेकिन thethirdpole.net से बातचीत में डिपार्टमेंट ऑफ नेशनल पार्क्स एंड वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन के प्रमुख गोपाल प्रकाश भट्टाराई कहते हैं कि ये मामला अलग है। 2018 के रंगीला मामले में उसको छुड़ाने वालों के पास ऐसे दस्तावेज थे जिससे ये पता चलता था कि वह भालू भारत की तरफ से नेपाल की तरफ आ गया था। वहीं, धुथारु मामले में उन लोगों के पास ऐसा कोई सबूत नहीं है। इसलिए भारत भेजने की उनकी मांग पर हम विचार नहीं कर सकते। गौतम, जो कि पिछले कुछ महीने पहले तक जान गूडल इंस्टीट्यूट में काम करते थे, ने रंगीला को छुड़ाने और उसे भारत सौंपने की कोशिशों की अगुवाई की थी। वह याद करते हुए कहते हैं कि भालू को स्वदेश भेजने की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं थी जैसा कि भट्टाराई भी अब ये बात कह रहे हैं। और तब तो विभाग एक्टिविस्ट्स की बात तक सुनने के लिए तैयार नहीं था, इसलिए उन सबके पास इस मामले को राजनीतिक नेतृत्व तक ले जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। गौतम कहते हैं कि रंगीला को भेजने का फैसला कैबिनेट द्वारा लिया गया था। वह ये भी बताते हैं कि तब एक्टिविस्ट्स ने कुछ सबूत भी प्रस्तुत किये थे।

गौतम बताते हैं कि हमने उन्हें बताया था कि भालुओं को नचाने वाले समुदाय नेपाल में दुर्लभ हैं, यहां तक कि शायद ही कोई नेपाली ऐसा करता हो, ये सब भारतीयों के प्रभाव में ही होता है और ज्यादातर ऐसे जानवर खुली सीमा के पास छुड़ाये जाते हैं, इसलिए इन जानवरों का संबंध निश्चित रूप से भारत के साथ होना चाहिए।

गौतम बताते हैं कि नेपाल के पहाड़ी इलाकों में भालुओं को नचाने की परंपरा सुनने को नहीं मिलती है। ये परंपरा केवल भारत की सीमा पर दक्षिण के मैदानी इलाकों में ही अस्तित्व में है। भारत में ये गैर-कानूनी है और खत्म होती जा रही है। चूंकि ये परंपरा अब बेहद दुर्लभ है, इसलिए मीडिया की सुर्खियां बन जाती है। इसको हमेशा एक ही नाम दिया जाता है, नाचने वाला आखिरी भालू। राजू को 2009 में बंगलुरु से छुड़ाया गया था। उसके 9 साल बाद नेपाल में रंगीला को छुड़ाया गया। लेकिन दोनों बार एक ही टाइटल दिया गया। धुथारु मामले में, भालू को नचाने ने कांतिपुर के रिपोर्टर से कहा कि उनकी दादी को दहेज में उनकी दादी के भारतीय माता-पिता ने एक भालू दंपति दिया था। धुथारु उस भालू दंपति का बचा हुआ आखिरी सदस्य है। धुथारु उस भालू दंपति परिवार की शायद तीसरी या चौथी पीढ़ी का है।

श्रीदेवी का भूत
गौतम एक अन्य कारण को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि क्यों राष्ट्रीयता के मुद्दे को खत्म कर देना चाहिए। उन्होंने देखा है कि कैसे नाचने वाले एक भालू, श्रीदेवी की 2008 में सेंट्रल जू में मौत हो गई थी। पशु अधिकारों पर काम करने वाले अंतर्राष्ट्रीय संगठन जैसे वर्ल्ड एनिमल प्रोटेक्शन ने इस बात में सहमति जताई थी कि श्रीदेवी की मौत जू में रहन-सहन की खराब स्थितियों की वजह से हुई है। गौतम को डर है कि कहीं ऐसी दुखद घटना गौतम के साथ न हो जाए। श्रीदेवी की मौत और रंगीला को भारत सौंपने के बाद धुथारु पहला भालू है जिसको चिड़ियाघर में रखा गया है। इस मामले में पिछले दो वर्षों के दौरान कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं हुआ है। गौतम कहते हैं, हम बहुत पक्के तौर पर तो नहीं कह सकते लेकिन हमें संदेह है कि अच्छे से देखभाल न होने के कारण श्रीदेवी की मौत हो गई। शायद एक वन्य जीव अभ्यारण्य की स्थितियां अलग होती हैं। संरक्षण के लिए एक चिड़ियाघर कभी भी बेहतर विकल्प नहीं होता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो चिड़ियाघर का मतलब प्रदर्शनी और शिक्षा तक ही सीमित है लेकिन अभ्यारण्य वन्य जीवों को एक बेहतर माहौल प्रदान करता है।

एक वन्य जीव संरक्षण विशेषज्ञ कैरोल बकली कहती हैं कि इसके लिए, दो सुविधाओं को एक-दूसरे के लिए विकल्प के रूप में नहीं लिया जा सकता। चिड़ियाघर के पिंजड़े में कैद और जंजीरों में बंधे भालू और हाथी जैसे जंगली जानवरों – जो कि सामान्य तौर पर रोजाना मीलों चलते हैं- के लिए ये अप्राकृतिक और छोटे आवास होते हैं, जिससे यहां रहने वाले जानवर शारीरिक और मानसिक विकार के चपेट में आ जाते हैं। वह कहती हैं कि एक प्रगतिशील अभ्यारण्य का मुख्य उद्देश्य पुनर्वास और जानवरों को स्वस्थ अवस्था में वापस करना है।
बकली की व्याख्या की पुष्टि करते हुए श्रेष्ठा कहती हैं कि धुथारु को एक संकरे पिंजड़े में रखा जा रहा है जिससे वह मुक्त होकर चल भी नहीं सकता। वह बताती हैं कि चिड़ियाघर ने धुथारु के लिए बड़े पिंजड़े की व्यवस्था करने की उनकी मांग को भी ठुकरा दिया।
सेंट्रल जू के प्रोजेक्ट मैनेजर चिरंजीबी प्रसाद पोखरेल thethirdpole.net से बातचीत में इस मामले पर रक्षात्मक नजर आए। वह कहते हैं कि शायद वे लोग (आलोचना करने वाले) ये नहीं जानते कि हम किस तरह से यहां जानवरों की देखभाल करते हैं। वन्य जीवों के संरक्षण के मामले में नेपाल ने पहले कई उदाहरण प्रस्तुत किये हैं और चिड़ियाघर में हम जानवरों का हर संभव बेहतर देखभाल करते हैं। अगर हम जानवर की भलाई के लिए गंभीर नहीं थे तो हमने उसको उसकी पहली जगह से क्यों छुड़ाया? हमारा उद्देश्य ये है कि जानवर गैर दुख भरा जीवन व्यतीत करें।

पोखरेल हालांकि ये स्वीकार करते हैं कि जगह की कमी होने के नाते चिड़ियाघर प्रबंधन जानवरों को सर्वोत्तम संभव आवास उपलब्ध नहीं करा पाने में सक्षम नहीं है। सरकार समय-समय पर चिड़ियाघर के विस्तार और उसको दूसरी जगह पर ले जाने के बारे में बात करती रही है लेकिन ये योजना कभी जमीन पर नहीं लागू हो पाई।

एक पीड़ादायक भविष्य
विभाग के प्रमुख भट्टाराई वैसे तो सैद्धांतिक रूप से इस बात से सहमत हैं कि चिड़ियाघर जानवरों के संरक्षण के मामले में सर्वोत्तम विकल्प नहीं है लेकिन जानवरों को विदेशी वन्य जीव अभ्यारण्यों के हाथों में सौंपने की जरूरत नहीं है।
वह बताते हैं कि तीन साल पहले वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन एक्ट के पांचवें संशोधन के जरिये एंड पुनर्वास केंद्रों की स्थापना का प्रावधान लाया गया। इसके कानूनों के आधार पर सरकार देश के सातों राज्यों में ऐसे केंद्र स्थापित करने की तैयारी कर रही है। वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन एक्ट वह कानून है जो देश में वन्य जीवों के सभी तरह के मामलों का नियमन करता है। साथ ही इसके जरिये ही चिड़ियाघरों और नेशनल पार्कों का संचालन किया जाता है। इसके अलावा इसी एक्ट के माध्यम से वाइल्डलाइफ स्मलिंग के नियंत्रण संबंधी प्रयास किये जाते हैं।

यह संशोधन न केवल सरकार बल्कि निश्चित मानक पूरा करने पर निजी व्यक्तियों और संस्थानों को भी जानवरों के लिए मुक्ति और पुनर्वास केंद्र खोलने की अनुमति देता है। हालांकि, सरकार को अभी भी नियमन या दिशानिर्देश तैयार करना है जो क्रियान्वयन की सुविधा प्रदान कर सके। भट्टराई कहते हैं कि सब कुछ होगा लेकिन इसमें थोड़ा वक्त लगेगा। इसी संशोधन में संरक्षण और प्रबंधन के लिए विदेशी सरकारों को वन्य जीवों को देने का भी प्रावधान है। हालांकि कानून में ऐसा कोई क्लॉज नहीं है जो किसी विदेशी अभ्यारण्य को किसी जानवर को स्थानांतरित करने से संबंधित हो।

एक्टिविस्ट्स की चिंता ये है कि ये समस्या बहुत वर्षों से बरकरार है। गौतम कहते हैं कि वन्य जीवों के आवास नेपाल में सिकुड़ते जा रहे हैं जिससे बहुत से जानवर गलियों या मानव बस्तियों में पलायन के लिए मजबूर हो रहे हैं। इससे आने वाले वक्त में हमें और जानवरों को रेस्क्यू करवाना पड़ेगा। लेकिन हम (पूरा राष्ट्र) जानवरों की भलाई से जुड़े मुद्दों को गंभीरता से नहीं लेते, इसलिए उनके जीवन को संकट होगा। गौतम कहते हैं कि सरकार के पास नेपाल के भीतर ऐसे जानवरों के देखभाल के लिए बहुत सारे विकल्प हैं। वे कहते हैं कि जगह नहीं है लेकिन ये बात सच नहीं है। हम ऐसे जानवरों को चितवन और बरदिया नेशनल पार्क्स में रख सकते हैं। उन्होंने ये भी बताया कि रंगीला और श्रीदेवी को रेस्क्यू करने के बाद कुछ हफ्तों तक पारसा नेशनल पार्क में रखा गया था। वह हालांकि ये भी कहते हैं कि ये बेहद दुखद है कि अभी तक इसके लिए हमारे पास कोई प्रावधान नहीं है।

भट्टराई चुनौतियों के बारे में बताते हैं। वह कहते हैं, कई व्यावहारिक दिक्कतें हैं। आप सभी जानवरों को एक साथ एक जगह पर नहीं रख सकते। उनके पास अलग-अलग प्राकृतिक आवास हैं और जिन वन क्षेत्रों को हम आवंटित करते हैं, वह उनसे मेल खाना चाहिए। हमें पशु चिकित्सकों और कुशल मानव संसाधनों को भर्ती करने की आवश्यकता है। इसी बीच ये भी दावा किया जा रहा है कि रेस्क्यू के बाद से धुथारु के स्वास्थ्य में सुधार है। साथ ही विभाग उसको संकरे क्वारंटाइन पिंजरे से निकालकर लोगों को देखने के लिए बड़े पिंजरे में रखे जाने की योजना बनाई जा रही है।

श्रेष्ठा का मानना है कि धुथारु के लिहाज से ये बड़ा पिंजरा भी छोटा ही है क्योंकि वहां पहले से चार भालू रह रहे हैं। वह कहती हैं, मेरी इच्छा धुथारु को भारत भेजने की थी लेकिन अगर मैं सरकार को सूचना दिये बगैर धुथारु को भारत भेज देती तो मुझे सलाखों के पीछे भेज दिया जाता क्योंकि मैं ऐसा करने के लिए अधिकृत नहीं थी।


साभार : दथर्डपोल.कॉम

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