उसका बचपन एक छोटे से कस्बेनुमा शहर में बीता था। वहीं उसकी पढ़ाई लिखाई हुई थी। उसने अभी-अभी टीन ऐज पार करके युवावस्था में बस कदम रखा ही था और साथ ही अभी-अभी उसने उस छोटे से शहर से एक बड़े शहर में प्रवेश किया था। यहां पर उसने एक नामी गिरामी विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा के लिए दाखिला जो लिया था। जैसे-जैसे उसके जीवन में चीजों का आकार बढ़ रहा था, मसलन शिक्षा, उम्र या उसके रिहायशी शहर का आकार, वैसे-वैसे उसकी आँखों में सपने भी बढ़ रहे थे। सतरंगी सपने। सपने उसके भविष्य के, उसके अपने जीवन के, प्यार के, परिवार के, खुशियों के, खुशहाली के। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें सपनों से उसी तरह लबालब भरी रहतीं जैसे सावन के बादलों में पानी। हांलांकि जीवन की रूक्ष वास्तविकताओं की गर्मी से वे सपने अक्सर आंखों से बारिश की तरह बह जाते। कुछ दिन आंखें बिन सपने सूनी सूनी सी रहतीं। पर जल्द ही उम्मीदों की ऊष्मा से संघनित हो बूंद बूंद सपने फिर फिर आंखों में जमा होते जाते।
आंखों में सपनों के जमा होने और बहते जाने की इस लुका छिपी के बीच उसकी आँखों में वो सपने सी समा गई थी। उसने सोचा ‘अरे! ये तो वही प्रोफेसर साहब की बेटी है जिससे उसके घर मिला था।’ एक हफ्ते पहले की ही तो बात है। जब वो इस अजनबी शहर में अकेली जान आया था तो उन प्रोफेसर साहब के नाम एक चिठ्ठी लाया था। और जब उनके घर पहुंचा तो यही तो मिली थी। कितना अपनापन था उसकी बातों में। हां ये बात और थी कि प्रोफेसर साहब ने इतने रूखे ढंग से बात की थी कि वो दोबारा उनके यहां जाने की सोच भी नहीं सकता था। उस दिन उसे अपने डिपार्टमेंट में देखकर उसे अच्छा लगा था। जैसे ही दोनों की आंखें चार हुई उसके भीतर ही भीतर कुछ पिघलने लगा था कि अचानक वो उसकी आँखों से ओझल हो गई। पर उम्मीद गायब नहीं हुई। अगले दिन आने की उम्मीद। उसकी उम्मीद उसकी आँखों की उम्मीद से मुखर हुई थी। वो फिर आई। वो फिर-फिर आती रही, दोनों की नज़रें मिलती रही। उसके भीतर ही भीतर बहुत कुछ सुलगता जाता और पिघलता जाता। पर बाहर कुछ बुझाई ना देता। मौन खुल ना पाता। भीतर के भाव शब्दों का आकार तो लेते पर ध्वनि ना बन पाते।
आखिर हर चीज की एक हद तो होती ही है ना। उसकी आँखों की आस कब नाउम्मीदी में बदल गयी इसका भान उसे उस दिन हुआ जब उसने उसकी आँखों में निराशा का गीलापन देखा था। मौन से बनी दूरी आस को मिलने वाली आवाज़ खत्म कर सकती थी। तो निराशा से आकार लेते शब्दों को मिली ध्वनि मौन से बने पुल को हमेशा के लिए तोड़ सकती थी। आस हार गई। नाउम्मीदी जीत गई। आवाज़ नाउम्मीदी को मिली। उसने मायूसी से कहा था ‘अब फिर कभी यहां लौट कर नहीं आऊंगी।’ उसकी आँखों के कोर कातरता के गीलेपन से भीग-भीग जाते थे। उस लम्हे उन दोनों की आखों ने एक दूसरे को देखा था। उसे लगा कि उसकी सांसें थम जाएंगी। निराशा के बादलों के बीच भी आस की एक चमक समेटे वो कातर दृष्टि उसकी आत्मा को बेध-बेध जाती थी। पर मौन तोड़ने का साहस वो तब भी ना जुटा पाया। समय किसी के लिए रुकता नहीं। उसके लिए भी क्योंकर रुकता। पर समय की बहती धारा में वो लम्हा पत्थर बन कर जड़ हो गया था और समय के बहाव में छूट गया था। समय अपनी गति से बहता रहा। पर वो लम्हा उसकी आत्मा पर हमेशा के लिए चस्पां हो गया।
विशेष प्रस्तुति : दीपेंद्र सिवाच
दीपेंद्र सिवाच जी वर्तमान में ऑल इंडिया रेडियो देहरादून में कार्यरत है। वे हमेशा अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगों को मुग्ध करते रहते है। इसी कड़ी में दीपेंद्र सिवाच जी का नवीन आलेख। इनसे gmail से सम्पर्क किया जा सकता है। आपकी ईमेल आईडी है
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