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बहुमत ना होने के बावजूद क्यों नहीं कॉमन मिनिमम प्रोग्राम की जरूरत?

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
14/07/24
in राजनीति, राष्ट्रीय, समाचार
बहुमत ना होने के बावजूद क्यों नहीं कॉमन मिनिमम प्रोग्राम की जरूरत?
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नई दिल्ली: इस बार के लोकसभा चुनाव ने बीजेपी को फिर सरकार बनाने का मौका तो दिया लेकिन पिछले दो बार की तुलना में कमजोर जनादेश मिला, ऐसा जनादेश जहां पर पार्टी अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर पाई। बात जरूर 400 पार की हुई थी, चुनावी प्रचार के दौरान हर बार इस नारे का जिक्र रहा, लेकिन असल आंकड़ों में पार्टी सिर्फ 240 सीटें जीत पाई। इसी वजह से कई लोग अब बीजेपी की इस गठबंधन वाली सरकार की तुलना उस अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार से कर रहे हैं जहां भाजपा बहुमत से 90 सीटें कम रह गई थीं, लेकिन फिर भी 5 साल पूरे किए गए।

समझने वाली बात यह है जब 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे, एनडीए सरकार के तहत एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बनाया गया था। उसके तहत सभी साथी दल उन शर्तों पर साथ आए थे कि भाजपा अपने कोर एजेंडे से पीछे हट जाएगी। उसमें बात चाहे राम मंदिर की हो, जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने की हो या फिर हिंदुत्व की कट्टर विचारधारा की।

सभी तरह के समझौते करने के बाद 5 साल तक सरकार को चलाया गया था, ऐसे में इस बार जब एक बार फिर भाजपा बहुमत से पीछे रह गई और एनडीए के सहारे सरकार बनाने की नौबत आई, कहा गया कि फिर कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बनेगा। एक बार फिर भाजपा पर स्थानीय दलों का दबाव बढ़ेगा।

लेकिन बीजेपी के ही अपने नेता बताते हैं कि इस बार वैसी स्थिति नहीं है जैसी अटल बिहारी वाजपेयी के समय देखी गई थी। यहां भाजपा के पास कोई 180 सीटें नहीं हैं बल्कि 240 का आंकड़ा है। नेताओं का मानना है कि यह आंकड़ा ऐसा नहीं कि पार्टी को जल्दबाजी में कॉमन मिनिमम प्रोग्राम की ओर बढ़ना पड़ेगा।

बात चाहे जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने की हो या फिर अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाने की, पिछले कार्यकाल में ही सरकार ने यह दोनों काम पूरे कर लिए थे, ऐसे में इन मुद्दों के सहारे अब कोई भी पार्टी को नहीं घेर सकता। इसी तरह बात अगर यूनिफॉर्म सिविल कोड की हो तो वहां भी एनडीए के कई दल बीजेपी का समर्थन करते हैं। एक देश एक चुनाव को लेकर भी कई दलों की आम राय सामने आ चुकी है, ऐसे में बीजेपी के लिए ज्यादा चुनौती नहीं रहने वाली।

इस बार के एनडीए दलों में एक खास बात यह भी है किसी ने भी अपनी तरफ से ज्यादा मांगें सरकार के सामने नहीं रखी हैं। एक तरफ अगर चंद्रबाबू नायडू आंध्र प्रदेश के लिए स्पेशल पैकेज की मांग कर रहे हैं तो वही बिहार के लिए नीतीश कुमार भी आर्थिक सहायता चाहते हैं।े इसके अलावा किसी भी दल ने अभी तक जोर-शोर से अपनी कोई अलग मांग नहीं उठाई है।

अटल युग और मोदी युग में एक बड़ा अंतर यह भी है कि एक सरकार मजबूरी और समझौतों से बंधी हुई थी, लेकिन वर्तमान सरकार उसकी तुलना में ज्यादा मजबूत और स्थिर दिखाई पड़ती है।

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