शिव सेना के उद्धव ठाकरे गुट ने चुनाव आयोग पर पक्षपात का आरोप लगाया है। शिव सेना के लिए अदालत में पैरवी कर रहे जाने माने वकील कपिल सिब्बल ने भी सवाल उठाया कि शिव सेना नाम और धनुष बाण चुनाव चिन्ह दशकों से ठाकरे परिवार के नेतृत्व वाली पार्टी के पास है और एकनाथ शिंदे का गुट पार्टी छोड़ कर अलग हो चुका है फिर कैसे आयोग उस नाम और चुनाव चिन्ह को जब्त कर सकता है। लेकिन आयोग के पास यह आसान रास्ता होता है और संतुलन बनाने के लिए लगभग हर बार ऐसा ही किया जाता है। जब भी पार्टियां टूटती हैं तो चुनाव चिन्ह जब्त हो जाता है।
चुनाव आयोग का पक्षपात इतने पर ही खत्म नहीं हुआ है कि उसने शिव सेना का नाम और चुनाव चिन्ह जब्त कर लिया। बाद में जब दोनों गुटों ने नाम और चुनाव चिन्ह के लिए आवेदन किया तो उसमें भी पूर्वाग्रह दिखा। उद्धव ठाकरे गुट ने ‘शिव सेना बाला साहेब ठाकरे’ नाम को प्राथमिकता दी थी। उनकी दूसरी पसंद ‘शिव सेना उद्धव बाला साहेब ठाकरे’ थी। चुनाव आयोग ने ठाकरे गुट को उनकी प्राथमिकता वाला नाम नहीं दिया, बल्कि दूसरी पसंद वाला नाम दिया। पिछले दिनों बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी में विभाजन हुआ तो चुनाव आयोग ने चिराग पासवान को उनकी पसंद का पहला नाम ‘लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास’ दे दिया था। इस आधार पर ठाकरे गुट को भी बाला साहेब ठाकरे का नाम दे देना चाहिए था।
लेकिन चुनाव आयोग ने उद्धव ठाकरे को वह नाम नहीं दिया। उनको अपने नाम यानी उद्धव बाला साहेब ठाकरे वाला नाम दिया गया, जबकि उनके पिता यानी बाला साहेब ठाकरे का नाम एकनाथ शिंदे को दे दिया गया। शिंदे ने ‘बालासाहेबांची शिव सेना’ यानी बाला साहेब की शिव सेना नाम मांगा था और चुनाव आयोग ने वह नाम दे दिया। इसके बावजूद उद्धव ठाकरे गुट संतुष्ट है क्योंकि उनकी पार्टी के नाम में बाला साहेब ठाकरे का नाम भी है और चुनाव चिन्ह भी ‘मशाल’ का मिल गया है।
ध्यान रहे शिव सेना ने विधानसभा की पहली सीट ‘मशाल’ छाप ही जीती थी। यह बात 1985 की है, जब शिव सेना को प्रदेश स्तरीय पार्टी का दर्जा नहीं मिला था। तब उसका हर उम्मीदवार अलग अलग चुनाव चिन्ह से लड़ता था। उस चुनाव में मझगांव सीट से शिव सेना के उम्मीदवार छगन भुजबल ने मशाल छाप पर चुनाव लड़ा था और वे जीते थे। वे उस विधानसभा में शिव सेना के इकलौते विधायक थे। तब मनोहर जोशी भी चुनाव लड़े थे लेकिन हार गए थे। बाद में वे राज्य में शिव सेना के पहले मुख्यमंत्री बने। उस समय पार्टी रेल के इंजन से लेकर गेंद व बल्ले के चुनाव चिन्ह पर लड़ती थी। अब पार्टी इसे संयोग मान रही है कि उसे वह चुनाव चिन्ह मिल गया है, जिससे उसका खाता खुला था।