नई दिल्ली: भारतीय कला परंपरा केवल सौंदर्य और मनोरंजन तक सीमित नहीं है, वह जीवन-दर्शन की संवाहिका रही है। चिंतन की राष्ट्रीय धारा के ऋषि तुल्य चिंतक-विचार दत्तोपन्त ठेंगड़ी की पुस्तक ‘हिन्दू कला दृष्टि: संस्कार भारती क्यों?’ इसी बिंदु को केंद्र में रखकर भारतीय कला की आत्मा, उसकी गहराई और उसकी सामाजिक भूमिका पर विमर्श करती है। यह एक साधारण पुस्तक नहीं, अपितु एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण का घोष है।
पुस्तक के लेखन का एक उद्देश्य कला-संस्कृति के क्षेत्र में राष्ट्रीय विचार को लेकर सक्रिय संगठन ‘संस्कार भारती’ का परिचय कराना भी है। लेखन ने प्रारंभ में ही बताया है कि संस्कार भारती की स्थापना का उद्देश्य क्या रहा है? ठेंगड़ी जी की यह पुस्तक ‘संस्कार भारती’ के लिए प्रकाश स्तम्भ की भाँति है। प्रस्तावना में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति रहे कमलेशदत्त त्रिपाठी ने उचित ही लिखा है कि दत्तोपन्त ठेंगड़ी जी की यह रचना कला-प्रेमियों और कला-समीक्षकों को तो गंभीर संदेश देती ही है। संस्कार भारती के लिए यह पुस्तक श्री ठेंगड़ी जी का आशीर्वाद है।
लेखक ठेंगड़ी जी ने तीन अध्यायों- अबोधगम्य, दृष्टिकोण और दिशा; में कला के संदर्भ में हिन्दू दृष्टि और संस्कार भारती की भूमिका को लेकर चर्चा की है। विमर्श को गंभीर और प्रामाणिक बनाने की दृष्टि से उन्होंने स्थान-स्थान पर उपयुक्त दृष्टांत एवं संदर्भ भी दिए हैं। दरअसल, हम भारतीय अभी तक मानसिक रूप से औपनिवेशिक दासता से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए हैं। इसलिए हमें अपनी ज्ञान-परंपरा पर तब तक कोई विश्वास और गौरव की अनुभूति नहीं होती, जब तक कि कोई यूरोपीय विद्वान उसकी सराहना न कर दे।
‘हिन्दू कला तथा हिन्दू मानस’ की चर्चा करते हुए यह पीड़ा श्री ठेंगड़ी जी ने भी व्यक्त की है। वे लिखते हैं- “हमारा देश चार दशक से भी पहले स्वाधीन हो गया, किन्तु यहाँ का आधुनिक शिक्षित मानस अब भी पहले की भाँति ही दास भाव से जकड़ा हुआ है। अंग्रेजी रंग में रंगा हिन्दू अब भी यही प्रयास करेगा कि भारत की हर स्थिति को यूरोपीय गज से नापे, भारत की हर समस्या को यूरोपीय दृष्टिकोण से परखे और भारत की हर वस्तु को यूरोपीय चश्मे से देखे। ‘हिन्दू’ से जुड़ी कोई भी वस्तु तभी महान समझी जा सकती है, जब उसे महानता के बारे में पश्चिमी विशेषज्ञ का प्रमाण-पत्र मिले।
विवेकानंद अपने शिकागो भाषण के बाद ही महान बने। रवींद्र-संगीत, संगीत की वैज्ञानिक कोटि में तभी आया जब गुरुदेव को नोबेल पुरस्कर से सम्मानित किया गया। हिन्दू साहित्य की कोई भी कृति तब तक सुंदर नहीं हो सकती, जब तक यूरोपीय देशों में कोई शोपेनहावर उसका गुणगान न करे”।
लेखक ने उन विदेशी विद्वानों और उनके विचारों का भी उल्लेख किया है, जो भारतीय कला-संस्कृति के दीवाने हो गए। फ्रांसिस फोक्स, विलियम जोंस, फर्ग्युसन, एडमंड गिलेस और गेटे से लेकर कई विद्वानों ने भारतीय कला दृष्टि की खूब सराहना की है। श्री ठेंगड़ी ने उन विदेशी विद्वानों को भी आड़े हाथ लिया है, जिन्होंने हिन्दू कला के प्रति अनेकानेक मिथ्या धारणाएं बनायी और फैलाई हैं।
पुस्तक में हिन्दू कला के मूल स्वरूप की व्याख्या की गई है, यहाँ कला एक ‘साधना’ है और कलाकार एक ‘साधक’। लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि भारत की पारंपरिक कलाएं – जैसे नृत्य, संगीत, मूर्तिकला, वास्तुकला आदि केवल अभिव्यक्ति के माध्यम नहीं, बल्कि आध्यात्मिक अनुशासन का हिस्सा रही हैं। यह कला दृष्टि, पश्चिमी दृष्टिकोण से भिन्न, आत्मा से संवाद की कला है। पुस्तक यह भी स्थापित करती है कि कला जीवन के अन्य विषयों एवं क्षेत्रों से अलग-थलग नहीं है। कला जीवन के विविध आयामों के साथ जुड़ी हुई है। याद रखें कि जहाँ पश्चिम का विचार हर बात को अलग-अलग खानों में रखकर उनके बारे में विचार करता है। वहीं हिन्दू सभी विषयों में एकात्मता देखता है।
श्री दत्तोपन्त ठेंगड़ी ने भूगोल से जोड़कर भी कला को देखने का एक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं कि भूगोल और कला का आपसी संबंध हमारे देश में लगभग अनदेखा-सा ही रह गया है। उत्तर भारत और दक्षिण भारत के संगीत में अंतर को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा है- “उत्तर को अनेक आक्रमण झेलने पड़े, अत: उसने योद्धा जातियों को जन्म दिया। दक्षिण में जीवन अधिक शांतिपूर्ण था और लोगों के पास खेती-बाड़ी के लिए समय था। उन्हें विदेशियों से मिलने-जुलने के अधिक अवसर नहीं मिले। अत: वे रूढ़िवादी और अलग-थलग रहे। इसकी झलक उनके संगीत में मिलती है, जो रूढ़िवादी तथा शास्त्रीय बना रहा है”। राजस्थान, पंजाब और बिहार की भौगोलिक परिस्थितियों का संगीत पर क्या प्रभाव है, इसकी चर्चा भी लेखक ने की है। प्रकृति और संगीत के संबंध को भी उन्होंने देखा है।
संप्रदायों एवं विचार-प्रणालियों का कला पर क्या प्रभाव पड़ा है, इसकी चर्चा भी लेखक ने की है। इस संदर्भ में उन्होंने यहूदी, इस्लाम, ईसाई मत के साथ ही यूरोपीय पुनर्जागरण और कम्युनिज्म के संदर्भ में भी कला का विश्लेषण किया है। इन संप्रदायों एवं विचार-प्रणालियों ने कला को किस प्रकार नुकसान पहुँचाया या उसके विकास को बाधित किया, इसका पर्याप्त विवरण हमें पुस्तक में मिलता है। वे लिखते हैं कि हेब्रू राष्ट्र के जनकों तथा संस्थापकों अब्राहम, इसाक तथा जैकब के पास कलाओं के लिए न तो अवकाश था और न ही कोई सुविधा।
बेबीलोनिया की दासता के बाद हमें किसी मूर्ति, चित्र अथवा पच्चीकारी का चिह्न नहीं मिलता। पुजारी केवल नगण्य वास्तुकला और संगीत की अनुमति देते थे। इस्लाम के संबंध में श्री ठेंगड़ी लिखते हैं कि इस्लाम का स्वभाव ललित कलाओं के संवर्धन के अनुकूल नहीं है। उन्होंने विल डूरैंट के विचार का उल्लेख किया है, जिसमें वह कहते हैं- “निरख-परख के बावजूद औरंगजेब मुगल तथा भारतीय कला के लिए अभिशाप था”।
हिन्दू कला का उल्लेख भारत के प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। भारतीय संगीत और नृत्य का प्राचीनतम ठोस प्रमाण ऋग्वेद में मिलता है। ऋग्वेद में गोलाकार में नृत्य करनेवाले जोड़ों का उल्लेख है। भरत मुनि का नाट्यशास्त्र तो नृत्य के सभी तत्वों का स्रोत-ग्रंथ है। लेखक ने स्थापित किया है कि यह परंपरा आधुनिक ग्रंथों तक आती है। भारतीय नृत्य की गौरवपूर्ण यात्रा आनंद कुमारस्वामी का ग्रंथ ‘दि डांस ऑफ शिव’, डॉ. सीपी रामस्वामी अय्यर की पुस्तक ‘दि आर्ट ऑफ डांस’ और मृणालिनी साराभाई के ग्रंथ ‘दि सेक्रेड डांस ऑफ इंडिया’ से होकर आगे तक जाती है। भारतीय कला का संवर्धन करनेवाले आधुनिक कला विशारदों का नामोल्लेख भी लेखक ने किया है।
हिन्दू कला दृष्टि पर विमर्श करने के साथ-साथ श्री ठेंगड़ी जी की इस पुस्तक का प्रमुख उद्देश्य यह बताना है कि ‘संस्कार भारती’ की स्थापना क्यों आवश्यक हुई? लेखक का तर्क है कि स्वतंत्रता के बाद की सांस्कृतिक नीति में भारतीय मूल्यों की उपेक्षा हुई और पश्चिमी प्रभावों के कारण कला का उद्देश्य और स्वरूप विकृत हुआ। ऐसे समय में ‘संस्कार भारती’ का कार्य एक सांस्कृतिक शुद्धिकरण का प्रयास था। यह संगठन एक ऐसा आंदोलन है, जो कला को पुनः उसके आध्यात्मिक और सामाजिक संदर्भों से जोड़ता है।
उन्होंने यह भी बताया है कि ‘संस्कार भारती’ का दृष्टिकोण केवल मंचों और दीर्घाओं तक सीमित नहीं है, वह जनजीवन की कला है। वह एक ऐसी दृष्टि है, जो ग्रामीण भारत से लेकर नगरों तक, सभी में सांस्कृतिक चेतना का संचार करती है। कला को शिक्षा, संस्कार, और राष्ट्रनिर्माण का उपकरण बनाना ही संस्था का उद्देश्य रहा है। अपने इस उद्देश्य में बहुत हद तक संस्कार भारती सफल भी रही है।
पुस्तक की भाषा संस्कृतनिष्ठ किंतु प्रवाहमयी हिन्दी में है। श्री दत्तोपन्त ठेंगड़ी जी ने जटिल विचारों को भी सरल भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, जिससे यह ग्रंथ न केवल शोधकर्ताओं के लिए ही नहीं अपितु सामान्य पाठकों के लिए भी उपयोगी बन गया है। शैली में भावात्मकता के साथ-साथ तर्क की स्पष्टता भी है, जो पाठक को गहराई से सोचने के लिए प्रेरित करती है। कहना होगा कि ‘हिन्दू कला दृष्टि: संस्कार भारती क्यों?’ एक वैचारिक और सांस्कृतिक दस्तावेज है, जो न केवल भारतीय कला की गरिमा को प्रतिष्ठित करता है, बल्कि आधुनिक समय में उसके पुनर्स्थापन की अनिवार्यता को भी रेखांकित करता है।
यह उन सभी पाठकों के लिए अनिवार्य पाठ है, जो भारतीय संस्कृति, कला और विचारधारा को केवल समझना नहीं, जीना भी चाहते हैं। अपनी इस रचना के माध्यम से श्री ठेंगड़ी ने कला-संस्कृति के क्षेत्र में शोध करने वाले समाज विज्ञानियों के सामने शोध की अनेक खिड़कियां खोली हैं। हिन्दू कला दृष्टि के विविध पक्षों को लेकर शोध होते हैं, तब हम न केवल अपने समाज को अपितु विश्व को भी हिन्दू कला के विपुल भंडार तक ले जाने में आवश्यक भूमिका का निर्वहन करेंगे।
पुस्तक: हिन्दू कला दृष्टि: संस्कार भारती क्यों?
लेखक : दत्तोपन्त ठेंगड़ी
पृष्ठ : 120
मूल्य : 150 (पेपर बैक)
प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली
समीक्षक, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं।