गौरव अवस्थी
हमारे तीन दशक के पत्रकारीय जीवन में यह पहला अवसर था, जब लखनऊ में पद और जीवन दोनों से कूच कर गए अलमस्त और सदैव सजग संपादक रहे स्मृतिशेष सुनील दुबे जी की स्मृति में प्रकाशित संस्मरणात्मक पुस्तक ‘सुनील दुबे- कुसुमादपि कोमल वज्रादपि कठोर’ के विमोचन अवसर पर बड़ी संख्या में पत्रकार सेंट जोसेफ स्कूल सीतापुर रोड में जुटे।
दुबे जी जागरण में अपनी सेवाएं देने के बाद राष्ट्रीय सहारा और हिंदुस्तान के लखनऊ में संस्थापक संपादक रहे। उनकी कार्यशैली, उनके स्वभाव-प्रभाव-दबाव की उनके शागिर्दों ने खुलकर चर्चा की। गुण तो गाए ही गए। किन्हीं-किन्हीं ने दुबे जी के स्वभाव के कमजोर पक्ष भी यह कहते हुए सामने रखे कि पीठ पीछे की सब हरकतें जानकारी में होने के बाद भी दुबे जी ने किसी का अहित नहीं किया।
कचोट तब पैदा हुई जब हिंदी पत्रकारिता को अपना सर्वस्व और सर्वश्रेष्ठ देने वाले दुबे जी की स्मृति से जुड़े इस कार्यक्रम को हिंदी अखबारों में ही वह महत्व नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे। उन अखबारों में भी नहीं जिन अखबारों को उन्होंने लखनऊ में लांच किया और आम अभिरुचि का अखबार निकालकर लोकप्रियता के शिखर पर भी पहुंचाया। एक अखबार हिंदी अखबार ने आयोजन की पूरी खबर 6 लाइन में दी है और दूसरे ने 17 लाइनें। जागरण ने जरूर डबल कॉलम खबर फोटो के साथ देख कर अपना कुछ कर्ज चुकाने की कोशिश की।
अब विडंबना देखिए, पूरी उम्र हिंदी पत्रकारिता में बिताने वाले दुबे जी के इस स्मृति समारोह को अंग्रेजी अखबारों ने हिंदी से ज्यादा महत्व दिया। हिंदुस्तान टाइम्स हो या टाइम्स ऑफ इंडिया। इस पोस्ट के साथ हिंदी और अंग्रेजी अखबारों की खबर चस्पा कर रहा हूं। आप खुद ही देख और समझ सकते हैं। चाहे तो मन मसोस भी सकते हैं। हिंदी पत्रकारिता की अपने ही स्वनामधन्य संपादक के प्रति यह बेरुखी भविष्य की हिंदी पत्रकारिता के अपने पूर्वजों को याद रखने के अध्याय के और काला होते जाने का ही अहसास कराती है। संकेत देती है।
इसलिए जरूरी है कि ‘रोबोट’ सी हो रही हिंदी पत्रकारिता में अब जरूरत से ज्यादा अपना सिर खपाने और पसीना बहाने की जरूरत ही नहीं रह गई है। आपके उत्तराधिकारी पता नहीं किस लक्ष्मण रेखा से बांधे गए हों! त्रेता युग में माता सीता (महिला या मातृशक्ति जो शब्द दें) लक्ष्मण रेखा लांघने का मन और साहस कर सकती हैं लेकिन कलयुग में मर्दों से ऐसी मर्दानगी की उम्मीद बेमानी है। बेवकूफी है।
दूसरी ओर, इलीट क्लास तक सीमित बताई जाने वाली अंग्रेजी पत्रकारिता इस माने में हिंदी से कहीं ज्यादा बेहतर स्थिति में है। संपादक स्वतंत्र है। हर घटना को अपने पाठकों तक पहुंचाने का प्रवाह अंग्रेजी में बना हुआ है। भले ही वह अपनी ही बिरादरी से जुड़ी खबर और हलचल ही क्यों ना हो? सारे जहां की खबरें और सूचनाएं देने वाले पत्रकारों की अपने बीच की कोई हलचल खबर क्यों नहीं बनती? सूचना क्यों नहीं समझी जाती? इसे नए सिरे से सोचने की जरूरत है।
इन सब परिस्थितियों-स्थितियों के बीच श्री दिनेश पाठक जी के संपादन और श्री अविनाश जी के संकल्प और मेहनत की बदौलत अपने दिवंगत पूर्वज के प्रति ऐसा श्रद्धाभाव प्रकट करना एक नई सामाजिक चेतना है। नई लकीर है और परंपरा भी। इसके लिए आप दोनों समेत पुस्तक के प्रति समर्पण भाव से सहयोग करने वाले सभी पत्रकारों का हृदय से अभिनंदन-वंदन। हिंदी पत्रकारिता भले ही पतन की राह में हो पर पत्रकार अपनी संवेदना के साथ हर जगह उपस्थित है। इसका जीता जागता प्रमाण सुनील दुबे जी पर आई पुस्तक ‘सुनील दुबे- कुसुमादपि कोमल वज्रादपि कठोर’ है।
उत्तर प्रदेश में पूर्वज पत्रकार की याद में सिर्फ पत्रकारों की उपस्थिति के बीच पत्रकारों द्वारा पत्रकारों के लिए यह एक नया स्तुत्य प्रयास सामने आया है। आयोजक पत्रकार चाहते तो इस पुस्तक लोकार्पण के अवसर पर तमाम राजनेता, साहित्यकार और दूसरे वर्ग के श्रेष्ठजन अपनी उपस्थिति दे सकते थे। तब निश्चित रूप से कार्यक्रम का प्रभाव तो बढ़ जाता। नेता-मंत्री की फोटो देखकर अखबारों (खासकर हिंदी) में खबर का स्थान भी बढ़ जाता पर पत्रकार और पत्रकारिता के भाव न बचता। आयोजकों का इसे सिर्फ और सिर्फ पत्रकार बिरादरी और उनके परिवार के बीच सीमित रखने का भाव इसलिए प्रणम्य है, क्योंकि सुनील दुबे जी ने अवकाश के दिनों में पत्रकार और उनके परिवार को मिलाकर ‘बड़ा परिवार’ बनाने का एक नया जनजागरण किया था। बाद में उनके उत्तराधिकारी बने नवीन जोशी जी ने इस परंपरा को जारी रखा लेकिन अब यह लुप्तप्राय है। यह आयोजन उस परंपरा का लघु रूप नजर आया, जो सुनील दुबे जी ने स्थापित की थी।
ऐसे सफल-सजग और सरल संपादक सुनील दुबे जी की स्मृति को एक बार फिर कोटि-कोटि नमन..