अवधेश कुमार
चुनाव परिणाम कोई भी हो सार्वजनिक तौर पर पार्टियां अपने अनुसार उनका विश्लेषण करती हैं। हालांकि अंदर से सच्चाई जानने और समझने की कोशिश करती हैं ताकि भविष्य में वो गलतियां फिर ना दोहराई जाए जिनके कारण परिणाम अपेक्षानुरूप नहीं आए। उत्तर प्रदेश के मैनपुरी लोक सभा उपचुनाव तथा खतौली एवं रामपुर उप चुनाव परिणामों के संदर्भ में भी यही बातें लागू होती हैं। सपा और रालोद निश्चित तौर पर मैनपुरी और खतौली के परिणामों से प्रफुल्ल और उत्साहित होंगे। रामपुर से उन्हें धक्का लगा है, लेकिन इसका कारण वे अपनी दृष्टि से तलाश रहे हैं। यह स्वाभाविक भी है।
भाजपा ने सार्वजनिक तौर पर ऐसा कोई विश्लेषण इन चुनावों का नहीं दिया है, जिसे जमीनी वास्तविकता को समझने वाले स्वीकार कर लें। मैनपुरी में भाजपा ने इतनी बड़ी पराजय की कल्पना नहीं की थी। भाजपा के उम्मीदवार रघुराज शाक्य 2 लाख 88 हजार मतों से डिंपल यादव के हाथों पराजित हुए जो किसी दृष्टि से सामान्य नहीं माना जा सकता। 2019 लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव स्वयं उम्मीदवार थे तो उन्हें भाजपा उम्मीदवार प्रेम सिंह शाक्य ने जबरदस्त चुनौती दी और वे केवल 94000 वोट के अंतर से जीत सके। तो फिर जीत और हार का अंतर इतना बड़ा क्यों हुआ? भाजपा को इसी तरह खतौली विधान सभा उपचुनाव परिणाम पर भी कठोरता से मंथन करना चाहिए। विधानसभा चुनाव में उसके उम्मीदवार विक्रम सैनी वहां जीते थे, लेकिन हेट स्पीच मामले में उनकी सदस्यता चली गई थी।
जाहिर है, भाजपा को यहां विजय मिलनी चाहिए थी। इसके विपरीत रालोद के मदन भैया ने भाजपा की राजकुमारी सैनी को 22 हजार 165 वोटों से हरा दिया। विधानसभा चुनाव की दृष्टि से यह छोटी पराजय नहीं है। भाजपा यह कह कर आत्मसंतुष्ट हो सकती है कि रामपुर में पहली बार किसी हिन्दू प्रत्याशी और वह भी भाजपा की जीत हुई है। किंतु इन दोनों चुनाव परिणामों का क्या? मैनपुरी के बारे में यह कहना आसान है कि मुलायम सिंह की मृत्यु के कारण उपजी सहानुभूति में लोगों ने उनकी बहू को स्वीकार किया है।
कहा जा सकता है इसमें भाजपा जीत जाती तो बड़ी बात होती। किंतु प्रदेश के राजनीतिक वातावरण को देखें तो भाजपा ने रामपुर और आजमगढ़ लोक सभा उपचुनाव में सपा को पराजित किया। आगे इसका विस्तार मैनपुरी तक होना चाहिए था और खतौली तो भाजपा के हाथ से जाने का कोई कारण ही नहीं होना चाहिए। आखिर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता के समक्ष प्रदेश में कोई दूसरा नेता नहीं है। गुजरात के बाद उत्तर प्रदेश इस समय हिन्दुत्व के प्रति जन आकषर्ण का सबसे बड़ा मॉडल भी है। उस दिशा में सरकार की नीतियां भी स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं। मैनपुरी में ऐसा मानते हैं कि शिवपाल सिंह यादव के साथ आ जाने से जमीनी स्तर पर चुनाव का प्रबंधन काफी सशक्त हुआ। शिवपाल सपा में आ चुके हैं और अखिलेश यादव ने घोषणा की है कि उनकी भूमिका बड़ी होगी। अखिलेश यादव से नाराज और बिखरे हुए पुराने सपाइयों और समर्थकों को इक_ा करने में शिवपाल यादव की भूमिका होगी। भाजपा ईमानदारी से अपने कार्यकर्ताओं से ही फीडबैक ले तो उसे इस संदर्भ में सच्चाई का पता चल जाएगा।
उत्तर प्रदेश और केंद्र का भाजपा नेतृत्व यह हमेशा ध्यान में रखे कि 2022 के विधानसभा चुनाव में जगह-जगह अपने ही कार्यकर्ताओं और समर्थकों का विद्रोह उसे झेलना पड़ा था। पुलिस प्रशासन के रवैये से मंडल और जिला स्तर के पदाधिकारी तक क्षुब्ध और निराश थे। जिस क्षेत्र में जाइए वहीं लोगों की नाराजगी दिखती थी। अंतत: दो बातों ने लोगों को भाजपा उम्मीदवारों के लिए काम करने और जिताने को विवश किया। लोगों के अंदर भय था कि सपा वापस हो गई तो अपराध का बोलबाला बढ़ेगा। दूसरे, केंद्र में नरेन्द्र मोदी और प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के कारण हिन्दुत्व एक प्रबल मुद्दा बना और उसके प्रति भी आकषर्ण था। मुसलमानों को एकमुश्त सपा के पक्ष में जाते देखने की भी विपरीत प्रतिक्रियाएं हुई। इसमें भाजपा को बहुमत मिल गया। उप चुनावों में वह स्थिति नहीं है। सच यह है कि सरकार वापस आने के बाद अनेक जगह पुलिस और प्रशासन का मनमाना रवैया फिर असभ्य तरीके से सामने आ रहा है। इसे संभालने की आवश्यकता है। पुलिस के व्यवहार के विरु द्ध लोगों में गुस्सा पैदा हुआ। गुंडागर्दी न हो, कानून-व्यवस्था कायम रहे इसके लिए पुलिस की वांछित भूमिका होनी चाहिए। इस समय प्रदेश की पुलिस वांछित भूमिकाओं की सीमा से बाहर आकर भी काम कर रही है। यह स्थिति होगी तो लोगों के अंदर गुस्सा पैदा होगा।
सच यह है कि स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं को भी यह नागवार गुजर रहा था। खतौली से रामपुर में यह स्थिति थी। स्थानीय लोग बता रहे हैं कि पुलिस सीमा से ज्यादा डर का वातावरण बना रही थी। 2017 से 2022 तक की सरकार में आम नेताओं-कार्यकर्ताओं की शिकायत थी कि थानेदार तक उनकी बात नहीं मानते। अगर किसी बात पर संघर्ष करिए तो मुकदमे होंगे, जेल में डाला जाएगा और सार्वजनिक रूप से पुलिस पिटाई भी कर सकती है। नई सरकार में इसकी समीक्षा करते हुए व्यापक सुधार होना चाहिए था। वह नहीं हुआ है। जमीन के कटु यथार्थ को उसी रूप में देखना होगा। इस समय पुलिस सामान्य मामलों में, जिनमें थाने से ही लोगों को छोड़ा जा सकता है, गिरफ्तारियां कर रही हैं और न्यायालय उनको मिनट में जमानत दे दे रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है? कानून और व्यवस्था के नाम पर पुलिस प्रशासन की भूमिका इसी तरह रही तो कोई भी सरकार अलोकप्रिय हो सकती है।
श्रीकांत त्यागी प्रकरण में पुलिस-प्रशासन की भूमिका से पूरे समुदाय में नाराजगी पैदा हुई और वह अभी तक दूर नहीं हुई है। खतौली उपचुनाव में यह साफ देखा गया। अच्छा हो मुख्यमंत्री नेताओं-कार्यकर्ताओं के साथ इन सबकी समीक्षा करें और आवश्यक सुधार के लिए दिशा-निर्देश दें। सरकारी योजनाओं से लेकर विकास के कार्यक्रमों की धरातल पर क्या स्थिति है इसका फीडबैक भी अपने ही परिवार के कार्यकर्ताओं-नेताओं से सतत पाने की ढांचागत व्यवस्था करना आवश्यक है। स्वयं भाजपा और दूसरे साथी संगठनों के कार्यकर्ताओं की ओर से आई सूचनाओं और शिकायतों को गंभीरता से लें अन्यथा राजनीतिक स्थिति धीरे-धीरे प्रतिकूल भी हो सकती है।