रणधीर कुमार गौतम
नई दिल्ली। सामाजिक चिन्तक राल्फ डाह्रेंडोर्फ के शब्दों में कहें तो “लोकतंत्र जनता की आवाज है, जो संस्थाओं को उत्पन्न करती है, और ये संस्थाएँ फिर सरकार को नियंत्रित करती हैं, और यह बिना हिंसा के सत्ता बदलने की संभावना बनाती है. इस अर्थ में, लोक या जनता संस्थाओं को वैधता देती है.” वर्तमान चुनाव परिणाम लोक के इसी शक्ति का प्रतिफल माना जा सकता है. इस अर्थ में देखें तो इस चुनाव परिणाम का विश्लेषण लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को और भी बेहतर तरीके से समझने का पैमाना हो सकती है, क्योंकि चुनावी राजनीति लोकतांत्रिक समाज में राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को बढ़ाने में एक अहम् कारक है.
यह अक्सर विस्मृत कर दिया जाता है कि भारत का मूल चरित्र ही लोकतान्त्रिक है. कोई अतिरंजना नहीं होगी अगर कहा जाए कि इसकी हवा, मिट्टी और पानी में भी लोकतंत्र की सुगंध है; इसकी संस्कृति, इतिहास और धरोहर में लोकतान्त्रिक चेतना इतने भीतर तक पैठी है कि इसके पास किसी भी अधिनायक को सबक सिखाने का सामर्थ्य है. सत्ता जब कभी अराजक हुई है लोगों ने उन्हें उखाड़ फेंका है. जैसे, सत्तर के दशक में जब सत्ता अधिनायकवादी हो गई तो उन्हें भी सत्ता से बाहर कर दिया गया, ठीक उसी तरह आज जब वर्तमान प्रधानसेवक मोदीजी ने अपने अधिकारों की लक्ष्मण रेखा को पार करने का प्रयास किया तो लोकशक्ति ने उन्हें अपनी सीमा में रहने की सख्त चेतावनी दी. और यह चेतावनी भी ऐसी कि वो उन्हें उनके गढ़ माने जानेवाले राज्य उत्तर प्रदेश में ही दे दिया गया.
आखिरकार 2024 के चुनाव के ऐसे अप्रत्याशित परिणामों की वजह क्या थी जब भाजपा का गढ़ माने जानेवाले उत्तर प्रदेश ने ही ‘मोदी की गारंटी’ को नकार दिया और मोदी के तांडव नृत्य को नियंत्रित कर दिया? बहुत सारे कारण माने जा सकते हैं.
स्थानीय मुद्दे: राम मंदिर के बावजूद, स्थानीय विकास, बुनियादी सुविधाओं, रोजगार और शिक्षा जैसे मुद्दे महत्वपूर्ण रहें जिसपर मोदी का नेतृत्व असफल रहा. अगर स्थानीय जनता को लगता है कि उनका प्रतिनिधि इन मुद्दों पर पर्याप्त काम नहीं कर रहा है तो वे विरोध में वोट दे सकते हैं और ऐसा हुआ भी.
प्रत्याशी की लोकप्रियता: व्यक्तिगत स्तर पर प्रत्याशी की छवि, कार्यशैली, और जनता के साथ उसका संबंध भी महत्वपूर्ण है. अगर प्रत्याशी की छवि खराब है या वह जनता के बीच अलोकप्रिय है, तो पार्टी की लोकप्रियता के बावजूद वह हार सकता है. मोदी ने मान लिया था कि वह चुनाव में किसी को भी उतार दे उसकी जीत पक्की है, और इस सोच के कारण कई भ्रष्ट और ख़राब छवि वाले लोगों को भी टिकट दिया गया और परिणामस्वरूप उसका परिणाम मोदी और शाह के लिए बुरा रहा.
विपक्ष की रणनीति: विपक्षी पार्टियाँ भी प्रभावी रणनीतियाँ अपना सकती हैं, जैसे कि गठबंधन, क्षेत्रीय मुद्दों को उठाना, या किसी लोकप्रिय स्थानीय नेता को टिकट देना, जिससे बीजेपी के प्रत्याशी को चुनौती मिल सकती थी. मोदी और शाह ने विपक्ष की शक्ति को कमतर आँका या फिर उन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया. उन्होंने अपने चुनावी भाषणों में बहुत किसी को ममता दीदी, किसी को राहुल बाबा आदि कहकर उन्हें महत्वहीन करने का प्रयास किया, लेकिन वे भूल गए कि विपक्ष अपनी रणनीति पर लगातार कार्य कर रहा था, और जिसे राहुल के भारत यात्रा में देखा जा सकता था.
समुदाय और जाति का समीकरण: भारतीय राजनीति में जाति और समुदाय का बड़ा प्रभाव होता है. अगर किसी चुनाव क्षेत्र में जातीय या सामुदायिक समीकरण बीजेपी के खिलाफ हैं, तो यह हार का कारण बन सकता है. उत्तर प्रदेश में सपा ने अपने पारंपरिक जातीय समीकरण से निकलकर अपने प्रत्याशियों को चुनावी मैदान में उतारा. उन्होंने बड़ी संख्या में गैर-मुस्लिम और गैर-यादव उम्मीदवारों को टिकट दिया जो एक बड़ी वजह बनी भाजपा के किले को ध्वस्त करने में.
चुनाव परिणाम वास्तव में भारत की बहुलतावादी संस्कृति और समरसता प्रेमी समाज की भावनाओं को प्रकट करता है. इस लोकसभा चुनाव के परिणाम में एक सशक्त विपक्ष का उभार भारत के लोकतंत्र के पुनर्जीवन के समान है. मोदी सरकार की हार के पीछे और भी कई कारण थे, जैसे; तीन तिकड़म, कॉर्पोरेट का अधिक प्रभाव, मीडिया मैनेजमेंट, चुनाव आयोग के साथ सांठगांठ और संविधानिक संस्थाओं का दुरूपयोग आदि, लेकिन जनता की जागरूकता और लोकतंत्र की रक्षा करने की इच्छाशक्ति ने इन सब पर विजय प्राप्त की है. यह वस्तुतः भारतीय संस्कृति और भारतीयता की जीत है. चुनाव आकलन में जीत का श्रेय पार्टी, दल, या नेता को दिया जाना चाहिए, लेकिन वास्तव में जनता को जो जनादेश दिया जाता है, उसे ही सबसे अधिक महत्व दिया जाना चाहिए. जीत का श्रेय मतदाताओं को दिया जाना चाहिए, क्योंकि वे ही हमारे लोकतंत्र की आधारशिला हैं और उनके मतों का महत्व हमेशा बने रहना चाहिए.
एक बात और जो महत्व की है कि भारत के जनमानस को प्रेडिक्ट करना बहुत ही कठिन है! चुनावी रुझानों और नतीजों में बड़ा अंतर है. एग्जिट पोल की असफलता हमें एक महत्वपूर्ण सबक सिखाती है. इससे साफ होता है कि भारत की सामाजिक संरचना में अत्यंत जटिलता है, और इसलिए भारतीय समाज में किसी भी तरह का अनुमान लगाना सहज कार्य नहीं है. इससे हमें यह भी समझ में आता है कि हमें अपने राष्ट्रीय और सामाजिक मामलों को समझने और उन्हें हल करने के लिए और अधिक विचार करने की जरूरत है. समस्याएँ और समाधान बहुआयामी हैं. कोई भी एक तरह की न तो समस्या है और न ही उनका समाधान का कोई एक तरीका.
बाइनरी पॉलिटिक्स ने हमेशा से भारत के लोकतंत्र के संरक्षण और संवर्धन के लिए प्रयास किया है. किसी भी समाज के विकास में एक तरह का प्रतिस्पर्धा होना अत्यंत आवश्यक है, लेकिन जब प्रतिस्पर्धा अन्याय और न्याय के बीच हो, सत्य और असत्य के बीच हो, तो भारतीयता का विवेक हमेशा लोकतान्त्रिक मूल्यों की रक्षा के साथ खड़ा होता है. राजनीतिक परिवर्तन हमेशा सामाजिक परिवर्तन की प्रेरणा रही है. गैर राजनीतिक लोगों में पिछले कुछ वर्षों से एक अजीब किस्म की निराशा दिख रही थी, लेकिन 2024 का यह जनादेश उन लोगों को फिर से रचनात्मक कार्य करने के लिए प्रेरित करेगा. चुनाव सुधार के प्रयास अभी भी राजनीतिक इच्छा शक्ति से दूर है, लेकिन अब चाहिए कि विपक्ष जन आंदोलन के साथ एक संबंध बनाकर लोकतंत्र में विजिलेंस की प्रक्रिया को संरक्षण और संवर्धन प्रदान करें.
चुनाव परिणाम हमें कुछ सन्देश भी दे गया है जिसे याद रखा जाना चाहिए, जैसे; चुनावी भाषणों में प्रधानमंत्री मोदी समेत अन्य कई उम्मीदवारों ने भाषाई मर्यादा को तार-तार किया था जिसे देश की जनता ने अच्छी दृष्टि से नहीं देखा. जनता भाषाई गरिमा को गंभीरता से समझती भी है और उसपर प्रतिक्रिया भी देती है. आज भी जनता नेता को अपने एक सेवक के रूप में देखना चाहती है, और यही लोकतान्त्रिक सच्चाई भी है कि वे हमारे सेवक हैं. निरंकुश शासक या दैविक छवि के साथ वे जनता का भरोसा खो देते हैं. जनता अपने अधिकारों के प्रति व्यावहारिक तौर पर सजग होती है, और जब मौका मिलता है तो हिसाब चुकता करती है. उन्हें देश चलाने के लिए कोई मसीहा नहीं, बल्कि एक संवेदनशील मनुष्य चाहिए जो उसके दैनिक जीवन की समस्याओं को समझता भी हो और उसका समाधान करने की नीयत के साथ साथ साहस भी हो.
सबसे महत्वपूर्ण बात जो इस चुनाव में दिखी है कि इसमें हारने वाला भी अपने को सफल मान रहा है और जीतने वाला भी अपने को सफल मान रहा है, और ऐसा इसलिए कि सच्चे अर्थों में इस चुनाव में जीत केवल लोकतंत्र और इसके मूल्यों की हुई है. और जहाँ लोकतंत्र है वहां सबकी जय होती है.