राहुल गांधी के बाद केजरीवाल और उनके बाद सत्यपाल मलिक से मोदी बौखलाए हुए हैं। मोदी की बौखलाहट से सोशल मीडिया के एंकर और मालिक परेशान और बौखलाए हुए हैं । सोशल मीडिया से पूरी ट्रोल आर्मी बौखलाई हुई है। ट्रोल आर्मी से मोदी विरोधी बौखलाए हुए हैं। समूचे विपक्ष से मोदी समर्थक खुश और विरोधी बौखलाए हुए हैं । ममता खुलेआम और कई लोग दबी जुबान में राहुल गांधी से बौखलाए हुए हैं। राहुल गांधी अपनी कांग्रेस में अपने लोगों से बौखलाए हुए हैं तो रवीश कुमार गोदी मीडिया से इस कदर बौखलाए हुए हैं कि कोई शो बिना बौखलाहट के गुजरता नहीं । ऐसी बौखलाहटों के बीच राजनीति कहां दबी छुपी बैठी है।
नरेंद्र मोदी के देश की सत्ता पटल पर आते ही समझदार लोगों को अहसास हो चला था कि राजनीति का क्या स्वरूप होने जा रहा है। अमित शाह और सबसे बड़े सूबे के मुखिया योगी महाराज दोनों का आपराधिक रिकॉर्ड है । बेशक मोदी और अमित शाह को सुप्रीम कोर्ट से राहत मिल चुकी हो लेकिन योगी ने तो स्वयं को स्वयं से ही एक झटके में राहत दिला दी अपने पर सारे मुकदमे खुद ही वापस लेकर , जिनमें हत्या के प्रयास तक के मुकदमे थे । तो क्या ऐसे में हम इन तीन सर्व शक्तिशाली विभूतियों से ‘गुड गवर्नेंस’ या सुशासन की राजनीति की उम्मीद कर सकते हैं । यह बात तो आपराधिक प्रवृत्ति का व्यक्ति स्वयं भी जानता है। तब छोड़िए कि राजनीति कैसी होगी या कैसी होनी चाहिए। सबसे बड़ा सवाल है कि देश किस ओर ढकेला जा रहा है। आप मानें न मानें पूरा देश ही आज बौखलाया हुआ सा दिखता है। मोदी के चाहने वाले और सबसे निचले तबके के लोग भी महंगाई से तो परेशान हैं ही ।
बाकी समस्याओं को जाने दें। मोदी नोटबंदी से लेकर कोरोना के समय लॉकडाउन तक ज्यादा परेशान नहीं थे । वे जीतते आ रहे थे। पर कहते हैं न समय हमेशा एक सा नहीं रहता। अचानक ‘हिंडनबर्ग रिपोर्ट’ ने तहलका मचा दिया। और हमें मोदी अचानक मूर्ख से लगने लगे । कोई मूर्ख आदमी ही अपने खास को इतने ,इतने और इस कदर ठेके दिलवा कर यह सोच सकता है कि देश अंधा हो चुका है। और क्या सच में देश अंधा सा नहीं हो गया था । ‘हिंडनबर्ग रिपोर्ट’ ने जैसे तूफान खड़ा किया तो हमारा प्रबुद्ध वर्ग अचानक से जाग गया और कहने लगा कि अडानी की संपत्ति तीन सालों में इतनी से इतनी कैसे हो गयी। यानी यह रिपोर्ट नहीं आती तो सब कुछ वैसा ही चलता रहता। राहुल गांधी सवाल उठाते रहते और हाथी मस्त चाल चलता रहता। पर अचानक हमने देखा सब बिगड़ गया । और अंततः जम्मू कश्मीर के पूर्व राज्यपाल, बीजेपी के उप राष्ट्रीय अध्यक्ष और मोदी के चहेते सत्यपाल मलिक ने तो खुद मोदी को ऐसे धो डाला कि हर कोई अवाक है । मोदी विरोधी बड़ा गुट तो जिस कदर खुश है वह तो पूछिए ही मत ।
वे लोग भी खुश हैं जो कल तक जम्मू कश्मीर में धारा 370 हटाने के फरमान पर हस्ताक्षर करने के लिए मलिक को कोस रहे थे। पर अभी भी सवाल यही है कि मलिक की बातों पर आप कितना भरोसा करेंगे। हालांकि उन्होंने चार पांच बातों पर मोदी को सीधे सीधे घेरा है। पर साथ ही उसी इंटरव्यू में अमित शाह पर पूर्व में कही गई अपनी ‘भयानकतम’ टिप्पणी को भी वापस लिया है। जब उन्होंने कहा कि मोदी ने ढाबे से मुझे फोन किया तो हमारा दिमाग खटका । प्रधानमंत्री और ढाबा ? पर काफी देर बाद धीरे धीरे समझ आने लगा कि ये नरेंद्र मोदी हैं ये कुछ भी कर सकते हैं। वैसे भी जिसने बचपन में स्टेशन पर चाय बेची हो उसका ढाबों से अच्छा याराना रहा ही करता है।
लेकिन इतना सबके बाद फिर वेताल का सवाल अपनी जगह लौट कर आया है। क्या अडानी, मोदी की डिग्री और सत्यपाल मलिक के आरोप सिर्फ मध्य वर्ग तक सिमट कर धीरे धीरे अपना प्रभाव छोड़ देंगे ? दिख तो ऐसा ही रहा है। अडानी का मामला लगभग फुस्स हो चुका है और मलिक की यह खुशफहमी है कि अडानी का मामला इन्हें ले डूबेगा। यह सच है कि अडानी पर राहुल गांधी का संसद में किया सवाल (अडानी -मोदी के रिश्तों का) मोदी की सत्ता को ले डूबेगा लेकिन तब जब सबसे निचले तबके का भी यह सवाल बनेगा और केजरीवाल का आरोप कि अडानी का पैसा दरअसल मोदी का पैसा है जो गरीबों से उनका हक छीन कर कमाया हुआ है। फिर भी एक पेंच यहां फंसता है। खासकर गरीबों में – मोदी को न जिताएं तो किसे जिताएं। आज की राजनीति ऐसी बना दी गई है। जब ये प्रश्न खड़े किए जा रहे थे तब विरोध पक्ष के जिम्मेदार लोग सिर्फ बहसों में कह रहे थे कि विकल्प का कोई प्रश्न नहीं होता। ये जरूरत से ज्यादा
समझदार लोग थे जो आजादी के बाद के इतने सारे आम चुनाव देख कर भी आम जनता की नस नहीं पहचान पाए या पकड़ पाए । आज देश इस मुहाने पर आकर ठिठक जाता है कि विपक्ष दरअसल विपक्ष बनने के लिए हाथ पांव मार रहा है लेकिन कोई सूरत नज़र नहीं आ रही। कोई एक नेता ऐसा नहीं जिसके तले सब एक साथ आ सकें। मजेदार बात यह है कि समाज का सबसे निचला तबका जिसे हम असंगठित वर्ग कहते हैं उसे राजनीति में कोई दिलचस्पी हो, न हो लेकिन इस पर जरूर नजर रख रहा है कि विपक्ष कैसा बन बिगड़ रहा है। इसलिए समूचे विपक्ष से उसका मोहभंग यथावत बना हुआ है। यह बात मोदी जानते हैं और हर चुनाव में इसका भरपूर फायदा उठाते हैं। अगले लोकसभा में भी इसे ही दोहराया जाएगा इसमें किसी को क्या शक है, मलिक साहब को हो तो हो ।
बात सारी जमीन से भारत और जमीन से मोदी को देखने की है। जमीन की बात गांव, देहातों और कस्बों से होती है। मैं जिस गांव (धीरे धीरे विकसित होता शहर ) में रहता हूं वहां की लगभग नब्बे फीसदी जनता मोदीमय है आज भी। बाकी दस फीसदी छितराए हुए लोग हैं। ये नब्बे फीसदी जनता मोदी के खिलाफ न कुछ सुनना चाहती है न बहस करना चाहती है। उसने आंख कान मुंह सब बंद किया हुआ है। और आप स्वयं भी ऐसे लोगों से बहस नहीं करना चाहेंगे। तो कुल मिलाकर बात सिर्फ इतनी है कि जब तक आप इन तीनों मुद्दों से इस तबके को आंदोलित नहीं करेंगे तब तक मोदी की सत्ता को आप हिला नहीं पाएंगे। विपक्षी दलों और उनके नेताओं पर मोदी का जुल्म भी इन्हें दिखाई नहीं देता या कहिए वे देखना सुनना नहीं चाहते।
सोशल मीडिया में एक अकेले रवीश कुमार हैं जो एनडीटीवी छोड़ने के बाद बेहद ईमानदारी से पहले से कहीं ज्यादा मेहनत के साथ अपने वीडियो बना रहे हैं। मोदी सत्ता जाती है तो रवीश का इतिहास लिखा जाएगा। आप दूसरे पोर्टल देखें न देखें लेकिन मुझे लगता है कि आप रवीश कुमार के कार्यक्रम बिना देखे नहीं रह सकते। बाकी तो अपनी डफली आप ही पीट रहे हैं और खुश हो रहे हैं। मुकेश कुमार जैसों के कार्यक्रमों में भी कभी कभी मेहमानों को देख कर सिर पीट लेने का मन होता है। मुकेश कुमार को सलाह है कि कभी महिलाओं की समस्याओं पर महिलाओं को बुलाएं। युवाओं की समस्याओं पर युवाओं को बुलाएं। समाज के अन्य पीड़ित लोगों को एक साथ बैठा कर उनके साथ कार्यक्रम करें। कभी थर्ड जेंडर पर उन्हीं लोगों को बुलाएं। कभी किसानों की बात किसानों और खेती के मर्मज्ञों से करें । बहुत सारे विषय हैं गर्त में जाती राजनीति को छोड़ कर। रोजाना आने वाले पैनलिस्टों से तो हाथ ही जोड़ लें ।
हाल ही में उन्होंने नागपुर की एक ऐसी महिला प्रज्वला तट्टे को बुलाया था जो न राजनीतिक हैं और न जिनका पत्रकारिता से कोई लेना देना है लेकिन वे महाराष्ट्र की राजनीति पर बहुत अच्छा बोलीं। घिसे पिटे वानखेड़े, नागर, एस के सिंह जैसों से तो बेहतर होता कार्यक्रम भी सामान्य सा होकर रह जाता है । आखिर एक ही आदमी इस पर भी बोलेगा, उस पर भी बोलेगा। हर विषय पर अपना ज्ञान झाड़ेगा । दरअसल हम सोशल मीडिया पर एक्टिव लोगों को ही मतदाता समझ बैठते हैं। जैसे इन्हीं से देश बन रहा है और इन्हीं से बरबाद हो रहा है। यही जिम्मेदार हैं। हम नहीं समझ रहे कि समाज का किस कदर पतन हो चुका है और उसमें यह वर्ग भी बराबर का भागीदार है।
अखिलेंद्र जी का विश्लेषण अच्छा होता है पर उनके विश्वास पर हमें शक है। अभय दुबे बहुत प्रामाणिक बातें करते हैं। इस बार राजनीति के अपराधीकरण पर बात की । लेकिन एक प्रश्न उनसे पूछना है कि राजनीतिक लोग जब अपराध करते हैं तो उनके अपराध राजनीतिक कैसे हो जाते हैं वे राजनीतिक मुकदमों की बात कर रहे थे। लेकिन उदाहरण स्वरूप योगी आदित्यनाथ उन्होंने जो अपने पर मुकदमों को वापस लिया वे राजनीतिक नहीं, आपराधिक थे । हां, आप यह कह सकते हैं कि वे मुख्यमंत्री बनने से पहले राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे, शायद।
क्या अमरीका की ‘टाइम’ मैगजीन में शाहरुख खान को सबसे ज्यादा तरजीह मिलना किसी चर्चा का विषय हो सकता है। इसे इस रूप में लिया गया कि टाइम मैगजीन ने दो तीन बार मोदी को कवर पेज पर छापा है लेकिन इस बार वहां शाहरुख खान हैं। यानी मोदी को पछाड़ कर शाहरुख खान। क्या यह गम्भीर चर्चा का विषय बन सकता है। एक नीलू व्यास हैं वे ऐसे ही अंट संट टॉपिक पर चर्चाएं कराती रहतीं हैं और लोग ‘सत्य हिंदी’ के नाम पर चले आते हैं। इस बार अमिताभ श्रीवास्तव ने भी ‘सिनेमा संवाद’ में यही विषय लिया। एक श्रीवास्तव नाम के एक्टर ने बड़े वाजिब प्रश्न उठाए । उनके प्रश्न टाइम मैगजीन के इर्द गिर्द के थे। यह मैगजीन राजनीतिक है इसलिए इसके मुख पृष्ठ पर दुनिया के प्रभावी व्यक्ति को होना चाहिए। क्या शाहरुख खान इतने प्रभावी हैं कि रूस यूक्रेन का युद्ध रुकवा दें । हां, अगर टाइम मैगजीन खालिस फिल्मों की होती तो बात अलग थी। वैसे भी अमिताभ ने बताया कि सन् 76 में सबसे पहले परवीन बॉबी इसके मुख पृष्ठ पर आईं थीं। इससे अंदाजा तो बहुत सारी बातों का लगाया ही जा सकता है।
बहरहाल, हमें जमीन की चिंता करनी चाहिए। संतोष भारतीय अक्सर जमीन की बात करते हैं। प्रोफेसर अरुण कुमार को भी लाउड इंडिया टीवी में दो तीन बार बुलाया जा चुका है और वे हमेशा जमीन के लोगों की ही बात करते हैं। जब तक यह वर्ग नहीं जागेगा तब तक मोदी राज में हम मुंगेरीलाल के सपने देखते रहेंगे और वक्त कर्कश से और कर्कश हो जाएगा। मोदी 24 तक ही इंतजार कर रहे हैं। मत भूलिए कि शीर्ष पर दोनों गुजराती हैं । और विपक्ष नाउम्मीदों से घिरा हुआ है। ऐसे में परिणाम आप जान सकते हैं। जैसे तैसे विपक्ष पैबंद लगा कर एक हो भी गया और उसने हाथों में हाथ डाल कर ऊपर उठा दिए तो समझ लीजिए स्वाहा है। ऐसी तस्वीरों से जनता आजिज़ आ चुकी है।