संस्कार पीढ़ी दर पीढ़ी तक स्थानांतरित होते रहते हैं यह हमें परिवार समाज और राष्ट्र से विरासत में मिलते हैं। आजकल 21वीं सदी के इस दौर में संस्कारों में बड़े स्तर पर क्षरण देखा जा सकता है, शायद बढ़ती प्रौद्योगिकी और भौतिकता की लालसा ने मनुष्य को स्वार्थी और आत्म केंद्रित, स्व प्रशंसक अधिक बना दिया है, वह अपनी मौलिक पहचान से विरुद्ध कार्य करते देखा जा सकता है परंतु भारतीय संस्कृति के बरक्स एक बात यह भी सत्य है, कि इसने स्वयं को एक स्तर तक बचा के रखा है ,आज भूमंडलीकरण के दौर में तमाम संस्कृतियों का आपसी मेलजोल बढ़ा है, तथा इसका खिचड़ी रूप देखा जा सकता है।
अब बात करते हैं कि संस्कार रोपित कैसे किए जा सकते हैं, तो यह जिम्मा हमारे परिवारों का है, माता-पिता का है, परिवार से आगे बढ़े तो एक बड़ी भूमिका में हमारे सामने विद्यालय आते हैं ,और शिक्षक कैसे अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं ,यह गौर करने लायक है ।शिक्षक के सामने जब एक बच्चा यानी शिक्षार्थी आता है तो हम अब तक यह मानते आए हैं कि ,’वह एक कोरी स्लेट के समान है’ जिसमें शिक्षक जो चाहे जैसा चाहे लिख सकता है, परंतु आज के समय में यह कहना पूर्णतया सत्य नहीं होगा, क्योंकि आज जब बच्चा शिक्षक के सामने आता है, तो उसका एक समृद्ध मौखिक भाषा भंडार होता है। उसके अपने परिवेश अनुभवों का एक विशाल संसार होता है, बस शिक्षकों को उसके इस अनुभव संसार से जुड़ते हुए उसमें ज्ञान समझ और विवेक को बढ़ाना है । उसके संस्कारों को परिमार्जित और परिष्कृत करना है। संस्कार अच्छे और बुरे किसी भी श्रेणी के हो सकते हैं । परंतु बच्चों में हम उन सभी अच्छे संस्कारों को रोपित करते हैं, जिससे वह आने वाले समय में अपने जीवन की तमाम मुश्किलों का हल ढूंढ सके, स्वयं का सामंजस्य समाज तथा दुनिया के साथ बेहतर ढंग से स्थापित कर सके, इन सभी बातों का ध्यान रखते हुए हम आने वाले भविष्य रूपी इन बच्चों में संस्कारों को रोपित करते हैं।
आज भारत पुनः पुरातन संस्कारों की ओर नतमस्तक होकर देख रहा है, आज वैमनस्यता का जो दौर चल रहा है, उसे सिर्फ संस्कारों की डोर ही बचा सकती है ,भौतिकता की अंधी दौड़ में हमने न जाने कितने अवसादों को अपने जीवन में स्थान दे दिया है जिनकी गहरी होती पैठ ने जीवन में अनेक परेशानियों को खड़ा कर दिया है। हमारी अगली पीढ़ी बौद्धिक रूप से समृद्ध भले ही बन रही है पर वह उसमें खुशी और हर्ष को खोती जा रही है ।तथा जीवन में रिक्तता भर रही है।
अब हमें पुनः एक शिक्षक के दायित्वों का बखूबी निर्वहन कर संस्कारों को रोपित करने के तरीकों को खुले दिमाग से देखना और परखना होगा ताकि हम एक ऐसे भारत का निर्माण कर सकें ,जिसमें जन्म लेने वाला प्रत्येक बच्चा संस्कारवान हो और वह पूरी निडरता और सक्षमता के साथ एक कुशल जीवन व्यतीत करने में समर्थ बन सके ।आज नई शिक्षा नीति में इस बात को महत्वपूर्ण तरीके से रखा गया है ।कि प्राथमिक शिक्षा पूर्णतया बच्चे और उसकी अपनी भाषा को ध्यान में रखकर दी जाए जिससे बच्चा अपनी क्षमताओं के अनुरूप सीख कर आगे बढ़ सके। शिक्षा वास्तव में व्यक्ति को पूर्ण रूप से जीवन जीने में समर्थ बनाती है। और शिक्षा का यह बुनियादी उद्देश्य शायद तभी पूर्ण होगा जब एक शिक्षक शिक्षार्थी को केंद्र में रखकर शिक्षा प्रदान करेगा। तथा संस्कारों में ही हमें बेहतर भारत को तलाशना होगा।