कर्नाटक के ज्यादातर एग्जिट पोल यह बता रहे हैं कि किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल रहा है. यह स्थिति किसी भी राज्य में विधायकों की खरीद-फरोख्त को बढ़ावा देती है. एग्जिट पोल की मानें तो कर्नाटक फिर से 2018 में खड़ा दिखाई दे रहा है. अगर ऐसा हुआ तो जेडीयू-एस किंग मेकर होगी और वह कांग्रेस और भाजपा से मोल-तोल करके सरकार तय करेगी.
एग्जिट पोल से इतर असली तस्वीर 13 मई को मतगणना के नतीजों के बाद ही सामने आएगी. यहाँ हम उन पांच कारणों का आकलन करने की कोशिश कर रहे हैं, जिसने सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को एग्जिट पोल में भी सरकार बनाने से रोक दिया.
भाजपा की कमजोरी बने ये पांच कारण
- विधान सभा चुनाव के ठीक पहले राज्य सरकार ने मुस्लिम आरक्षण वापस लेकर कर्नाटक में प्रभावशाली भूमिका वाले दो समुदायों लिंगायत और वोक्कालिगा में देने की फैसला कर लिया. इस घोषणा के साथ ही इन दोनों समुदायों में तनिक खुशी मिली लेकिन मुस्लिम समाज के लोग खफा हो गए. उन्हें लगने लगा कि भाजपा सरकार उनकी अनदेखी कर रही है. हालाँकि, सरकार के इस फैसले पर अदालत ने रोक लगा रखी है लेकिन चुनाव में माहौल बनाने और बिगाड़ने में इस मुद्दे की जो भूमिका थी, वह मतपेटियों में बंद हो चली है. कहा जाता है कि मुस्लिम समुदाय कर्नाटक की राजनीति में उत्तर कर्नाटक एवं तटीय इलाकों की 50-60 सीटों पर जीत-हार में अहम भूमिका रखता है.
- सत्तारूढ़ दल भाजपा ने अपने विकास कार्यक्रमों को आम लोगों तक नहीं पहुँचाया. उसकी चर्चा पूरे चुनाव में न के बराबर हुई. किसी भी बड़े नेता की रैली में कर्नाटक सरकार की उपलब्धियों की चर्चा नहीं की गयी. छोटे नेताओं ने नुक्कड़ सभाओं में अपनी सुविधा से जरूर अपने विकास कार्यक्रम को बताया. जबकि, सत्तारूढ भाजपा को प्राथमिकता के आधार पर यही काम करना चाहिए था.
- यद्यपि, भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व के सामने थोड़ी मुश्किल भी थी. पार्टी ने बहुत कम समय में राज्य को दो सीएम दे दिए. येदुरप्पा और बोम्मई. इसके पीछे कारण कुछ भी लेकिन एक संदेश तो चला गया कि सबसे बड़ी पार्टी, केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी भी बार-बार सीएम बदल रही. कर्नाटक ने पाँच साल में तीन सीएम देखे. येदुरप्पा पूरे दो साल रहे. फिर बोम्मई आ गए. इसका भी राज्य में जमीनी स्तर निगेटिव असर हुआ. येदुरप्पा को हटाने का विरोध काफी दिनों तक राज्य में तारी रहा. जैसे-तैसे उन्हें मनाने को पीएम मोदी को कोशिश करनी पड़ी लेकिन तब तक नुकसान हो चुका था.
- पूरा चुनाव विकास के मुद्दों से हटकर हिन्दू-मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण तक सिमट गया. सत्तारूढ़ दल भाजपा ने ही इसे हवा दी. कभी बजरंग दल तो कभी बजरंग बली छाए रहे. प्रचार के अंतिम चार-पाँच दिनों में तो भाजपा की रैलियों में बजरंग बली के नारे लगे. जब इस तरह की चीजें चुनावी मौके पर होती हैं तो निश्चित ही मतों का ध्रुवीकरण भी होता है, ऐसे में नुकसान और फायदा, दोनों की संभावना रहती है. एग्जिट पोल में यही नफ़ा-नुकसान देखने में आ रहा है. आरक्षण की आग पहले से ही लगी थी, बजरंग बली ने मुस्लिम कम्युनिटी को भड़काने और भाजपा के खिलाफ एकजुट होने का कारण बन गए.
- भाजपा सत्ता में थी, ऐसे में उसे घोषणा पत्र में जमीनी वायदे करने चाहिए थे, लेकिन हुआ उलट. तमाम हवा-हवाई दावे किए गए. यहाँ भी मुस्लिम समुदाय को चिढ़ाने या यूँ कहिए कि हिंदुओं को एकजुट करने के लिए एनआरसी और कॉमन सिविल कोड लागू करने की बात कह दी गयी. राज्य में युवाओं, किसानों, महिलाओं, बेरोजगारों, बुजुर्गों, एससीएसटी महिलाओं के लिए अतिरेक स्तर तक चुनावी वायदे किए गए. खूबसूरत लोकतंत्र के चुनावी वायदों का सच जनता जान चुकी है, दल कोई भी हो, चुनावी घोषणा पत्र मीडिया की सुर्खियां, पार्टी नेताओं के भाषण के आधार के अलावा कुछ भी महत्व नहीं रखती. आम मतदाता का इन घोषणा-पत्रों पर कोई भरोसा नहीं है.