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सीमित रहे सपनों की उड़ान

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
02/04/21
in धर्म दर्शन, साहित्य
सीमित रहे सपनों की उड़ान

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पं श्रीराम शर्मा आचार्य


हर व्यक्ति के अन्दर दिव्यता का खजाना छुपा हुआ है। इसको खोदकर बाहर निकालने के लिए जरूरी है कि मानसिक हलचलों को सृजनात्मक स्वरूप प्रदान किया जाए। इसके लिए ऐसे जीवन दर्शन को प्रोत्साहन देना चाहिए, जो दोनों बातों पर ध्यान रखें। एक ओर मानव स्वभाव और उसके परिष्कार पर, तो दूसरी ओर व्यवहारिक क्रियाकलापों को सुधारने, संवारने पर। ऐसा करने पर हर कोई अपनी जिन्दगी को शुभ और सुन्दर बना सकेगा। सफलता अनायास ही उत्पन्न नहीं होती, इस क्रियाशीलता की प्रतिक्रिया कह सकते हैं। यह क्रिया भी अकारण उत्पन्न नहीं होती। उसके पीछे इच्छा शक्ति की प्रबल प्रेरणा काम कर रही होती है। सरल शब्दों में कहें तो इच्छा से क्रिया, क्रिया से साधन और साधन से परिस्थिति का क्रम चल रहा दिखाई पड़ेगा।

बड़ी-बड़ी सफलताएँ चाहने के लिए न जाने कौन-कौन, कितने-कितने सपने देखता रहता है। सोते में चित्र-विचित्र स्वप्नों की कथाएं, जगने पर कई लोग सुनाते हैं। जाग्रत अवस्था में अपने असफल अरमानों का संजोया हुआ श्मशान देखते दिखाई देते हैं। उन्हें दुख होता है कि इतनी मनोकामनाएं उनने संजोईं, पर एक भी पूरी नहीं हुई। इन दिवास्वप्न देखने वालों को निशास्वप्न देखने वालों की पंक्ति में बिठाया जा सकता है। अन्तर इतना ही होता है कि सपने में राजा बनने और जागने पर गद्दी छिन जाने का उतना दुख नहीं होता, जितना कि अरमानों के महल खड़े करने वालों को उनके उजड़ जाने का होता है।

कल्पनाओं की उपयोगिता तो है, पर उससे दिशा मिलने का ही प्रयोजन सिद्ध होता है। सोचने भर से चाही वस्तु मिलना संभव नहीं। उसके लिए साधन जुटाने और परिस्थितियां उत्पन्न करनी पड़ती हैं। इसके लिए प्रचण्ड पुरूषार्थ करने की आवश्यकता पड़ती है। बिना थके, बिना हारे चलते रहने और कठिनाइयों से पग-पग पर जूझने का साहस ही लम्बी मंजिल पूरी करा सकने में सफल होता है। उचित परिश्रम के मूल्य पर ही अनुकूलताएं उत्पन्न होती हैं। उन्हीं के सहारे सफलताओं की संभावनाएं दृष्टिगोचर होती हैं। यह अथक परिश्रम और साहस भरे संकल्पों पर ही निर्भर है। देर तक टिकने वाला और प्रतिकूलताओं से जूझने वाला साहस ही संकल्प कहलाता है। कल्पना से नहीं, संकल्प शक्ति से मनोरथ पूरा करने की परिस्थितियां बनती हैं।

बच्चे भविष्य के मधुर सपने देखने में निरत रहते हैं। बूढ़ों को भूतकाल की स्मृतियों में उलझे रहना सुहाता है, किन्तु तरुण को वर्तमान से जूझना पड़ता है। बच्चों को स्वप्नदर्शी कहते हैं। वे कल्पनाओं के आकाश में उड़ते हैं और परियों के साथ खेलते हैं। यहां सपनों का कोई मोल नहीं। संसार के बाजार में पुरूषार्थ से योग्यता भी बढ़ती है और साधन भी जुटते हैं। इन दुहरी उपलब्धियों के सहारे ही प्रगति के पथ पर दो पहिए की गाड़ी लुढ़कती है। स्वप्नों के पंख लगाकर सुनहरे आकाश में दौड़ तो कितनी ही लम्बी लगाई जा सकती है, पर पहुंचा कहीं नहीं जा सकता।

ऊंची उड़ान उड़ने की अपेक्षा यह अच्छा है कि आज की स्थिति का सही मूल्यांकन करें और उतनी बड़ी योजना बनाएं, जिसे आज के साधनों से पूरा कर सकना संभव है। कल साधन बढ़े तो कल्पना को विस्तार करने में कुछ भी कठिनाई नहीं होगी। मंजिल एक-एक कदम उठाते हुए पूरी की जाती है। लम्बी छलांग आश्चर्य भर उत्पन्न करती है, मंजिल तक नहीं पहुंचती। कल्पना की समीक्षा करें और उसे आज की परिस्थितियों के साथ चलने योग्य बनाएं। गुण-दोषों का, सम्भव-असम्भव, पक्ष-विपक्ष का ध्यान रखते हुए विवेकपूर्ण निर्णय किया जाए। उसे पूरा करने के लिए अटूट साहस और प्रबल पुरुषार्थ के लिए जुटा जाय। इससे विश्वास किया जा सकता है कि सफलता का वृक्ष अपने समय पर अवश्य ही फूलेगा और फल देगा।


साभार : awgpskj.blogspot.com

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