नई दिल्ली : रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच दुनिया पर एक बार फिर से खाद्य संकट छा सकता है। आशंका जताई जा रही है कि यूक्रेन के साथ हुए अनाज समझौते से रूस पीछे हटने की तैयारी कर रहा है। अगर ऐसा होता है तो दुनिया की एक बड़ी आबादी में खाद्य की कमी हो सकती है और भुखमरी का खतरा बढ़ सकता है।
दरअसल, संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता से यूक्रेन को दुनिया के उन हिस्सों में अनाज की आपूर्ति करने की अनुमति मिली है जहां पर भुखमरी की स्थिति है। हालांकि, अब युद्धग्रस्त यूक्रेन के काला सागर बंदरगाह पर पोत नहीं आ रहे हैं और खाद्य सामग्री के निर्यात में लगातार कमी आती जा रही है। ऐसे में इस बात को लेकर चिंता बढ़ती जा रही है कि रूस अनाज समझौते से पीछे हट सकता है।
तुर्किये और संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता ने टाला था संकट
तुर्किये और संयुक्त राष्ट्र ने पिछली गर्मी में वैश्विक खाद्य संकट को दूर करने के लिए मध्यस्थता की थी। उन्होंने अलग से भी रूस से करार किया था ताकि अनाज और उर्वरक के निर्यात के लिए पोतों को सुविधा दी जा सके। मॉस्को जोर दे रहा है कि वह अब भी बाधा का सामना कर रहा है, लेकिन आंकड़े दिखा रहे हैं कि वह रिकॉर्ड स्तर पर गेहूं का निर्यात कर रहा है।
चौथी बार किया जाना है समझौते का नवीनीकरण
रूसी अधिकारी लगातार कह रहे हैं कि काला सागर के रास्ते अनाज निर्यात समझौते की अवधि का विस्तार करने का कोई आधार नहीं है, जिसका चौथी बार सोमवार को नवीनीकरण किया जाना है। रूस समझौते से हटने की पहले से धमकी दे रहा है और पूर्व में समझौते में तय चार महीने की अवधि के बजाय करार को दो बार दो-दो महीने के लिए विस्तारित किया गया।
रूस और यूक्रेन हैं प्रमुख आपूर्तिकर्ता
संयुक्त राष्ट्र और अन्य देश इस समझौते को बरकरार रखने का प्रयास कर रहे हैं। यूक्रेन और रूस दोनों गेहूं, जौ, वनस्पति तेल और अन्य खाद्य उत्पादों के प्रमुख आपूर्तिकर्ता हैं जिन पर अफ्रीका, मध्य पूर्व और एशिया के कुछ देश निर्भर हैं। समझौते के तहत यूक्रेन को 3.28 करोड़ मीट्रिक टन (36.2 मिलियन टन) अनाज भेजने की अनुमति दी गई है, जिसमें से आधा अनाज विकासशील देशों के लिए है। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान के वरिष्ठ अनुसंधान फेलो जोसेफ ग्लॉबर ने कहा, रूस अगर समझौते को जारी रखता है तो उसे दुनिया से अच्छी प्रतिक्रिया मिलेगी। उन्होंने कहा, जहां तक रूस का सवाल है, अगर वह इस समझौते की अवधि का विस्तार नहीं करता तो मुझे लगता है कि सार्वजनिक धारणा और वैश्विक सद्भावना के रूप में उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।