महर्षि पुलह के आग्रह से देवर्षि भी उत्साहित हुए और कहने लगे कि ‘‘शुकदेव तो गोलोक की अधिष्ठातृशक्ति पराम्बा भगवती श्रीराधा के लीला शुक थे। इसे प्रभु की आह्लादिनी शक्ति मां राधा की भक्तिलीला कहें कि उन्होंने अपने प्रिय शुक को धराधाम भेज दिया। धराधाम में शुकदेव शुक पक्षी के रूप में पर्याप्त समय तक विचरण करते रहे और अपनी इस विचरण यात्रा में वह जा पहुँचे अमरनाथ, जहाँ भगवान् भोलेनाथ, पार्वती को अमर कथा सुना रहे थे। जिज्ञासा पर्वततनया पार्वती की ही थी। उन्होंने पूछा था कि देवाधिदेव आप अजर अमर हैं- जबकि मुझे जन्म लेना और शरीर छोड़ना पड़ता है। इस प्रश्न पर भगवान् भोलेनाथ बोले- प्रिये! मैं आत्मा की अमरता का तत्त्व जानता हूँ। यदि तुम भी यह अमृतमय अमरकथा जान लो तो तुम्हें भी मेरी स्थिति मिल जाएगी। पार्वती के हाँ कहने पर कथा प्रारम्भ हो गयी। परन्तु लीलामयी की लीला- उन्हें बीच में ही निद्रा आ गयी और यह सम्पूर्ण कथा-लीला शुक सुनते रहे।
कथा की समाप्ति पर जब भोलेबाबा की भावसमाधि टूटी तो उन्होंने पार्वती को सोते देखा। तब यह कथा किसने सुनी? इस सवाल के उत्तर में उन्होंने शुकदेव को निहारा। पहले तो भोलेनाथ कुपित हुए पर जब शुकदेव जी अपना पक्षी शरीर त्यागकर चेतनअंश से महर्षि व्यास की पत्नी वाटिका के गर्भ में प्रवेश कर गए तो कृपालु भोलेनाथ ने उन्हें अनेकों वरदान दे डाले। गर्भकाल में शुकदेव को भगवान श्रीकृष्ण की कृपा मिली और समयानुसार उनका अवतरण हुआ।
आत्मा के अमृततत्त्व के ज्ञाता शुकदेव सदा से नित्य-शुद्ध-बुद्ध एवं मुक्त थे। उनमें किसी भी तरह का कोई कलुष न था। सहज ही उनका चित्त निरोध अवस्था में प्रतिष्ठित था। न्यास उनके स्वभाव में था। आसक्ति उन्हें छू भी नहीं गयी। कर्मों का कीचड़ भला उनमें कैसे लिपटता। उनमें तो भगवान् की भक्ति सहज ही व्याप्त थी। अपने भक्ति संवेदनों से संवेदित होकर शुकदेव वन की ओर तप हेतु चल पड़े। महर्षि व्यास अपने पुत्र को लौकिक एवं वैदिक कर्मों के लिए शिक्षित करना चाहते थे। सो वे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़े। पिता-पुत्र में बड़ा रोचक संवाद हुआ। महर्षि व्यास ने उन्हें ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास का आश्रम धर्म समझाने की चेष्टा की।
नित्यज्ञानी शुकदेव पिता के इस कथन पर बोले- हे पिता यदि स्त्री
त्याग का व्रत लेने वाले ब्रह्मचारी मुक्त हो सकते तो सृष्टि के सभी नपुंसक मुक्त हो जाते, क्योंकि वे सभी स्त्री त्यागी हैं। यदि मुक्ति गृहस्थी करने वाले- सन्तान को जन्म देने वालों को मिलती तो पेट-प्रजनन में जुटे सभी मनुष्य एवं पशु मुक्त होते। और यदि मुक्ति वन में रहने वाले वानप्रस्थों को मिलती तो वन में विचरण करने वाले वन पशु नित्य मुक्त होते। यदि संन्यास लेने और भिक्षा मांगने वाले मुक्त हो पाते तो संसार के समस्त भिक्षुक मुक्त होते। पर ऐसा नहीं है, मुक्ति तो ऋत् के ज्ञान में है- ‘‘ऋतम् ज्ञानेन मुक्ति’’।
यह चर्चा हो रही थी और शुकदेव आगे बढ़ते जा रहे थे। एक स्थान पर पर्वतीय नदी में कुछ नवयुवतियाँ, स्वर्ग की अप्सराएँ स्नान कर रही थीं। शुकदेव उनके पास से निकले-परन्तु उनमें कोई परिवर्तन न आया। वे यथावत स्नान करती रहीं। परन्तु जब महर्षि व्यास उधर से निकले तो उन्होंने अपने वस्त्र सम्हाले। उनके मुख पर लाज की रेखाएँ चमक उठीं। इस अनोखे प्रसंग पर महर्षि व्यास चकित हुए और उनसे बोले कि यह कैसी विचित्र बात है कि मुझ वृद्ध को देखकर तो तुम्हें लाज आती है परन्तु मेरे युवा पुत्र को देखकर तुम तनिक भी लज्जित नहीं हुईं। वैसे ही निर्वस्त्र स्नान करती रहीं।
महर्षि के इस कथन के उत्तर में इन देवस्त्रियों ने कहा- महर्षि आपके पुत्र आयु से युवा हैं- परन्तु उनका चित्त सहज निरुद्ध अवस्था में है। वे लोक और वेद का न्यास कर चुके हैं। उनकी भावना में भावमय भगवान् प्रतिष्ठित हैं। वे साक्षात् भक्ति हैं। जबकि आप के साथ ऐसा नहीं है। आप में तप है, ज्ञान है परन्तु भक्ति की सम्पूर्ण प्रतिष्ठा नहीं हो पायी है। आप का चित्त मोह से चंचल है। उसे निरोध अवस्था में प्रतिष्ठित करने के लिए अभी आपको बहुत कुछ करना पड़ेगा। देवस्त्रियों की इस दो टूक बात से महर्षि को चेत हुआ। उन्हें शुकदेव की उच्चतम अवस्था का भान हुआ।’’ इस कथा को सुनाते हुए देवर्षि बोले- ‘‘हे महर्षियों, शुकदेव का जीवन सभी भक्तों के लिए आदर्श है। उनकी भावनाएँ भगवान् में ही विहार करती है।’’ महर्षि पुलह ने सिर हिलाकर देवर्षि का अनुमोदन किया। भक्तिगाथा की अगली कड़ी की सभी को प्रतीक्षा थी।
डॉ. प्रणव पण्ड्या