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भोजन से चेतना की ओर: जैन दृष्टिकोण से मुक्ति का मार्ग

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
01/06/25
in मुख्य खबर, साहित्य
भोजन से चेतना की ओर: जैन दृष्टिकोण से मुक्ति का मार्ग
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डॉ तनु जैन डॉ. तनु जैन
आध्यात्मिक वक्ता द्वारा लिखित
सिविल सेवक, रक्षा मंत्रालय


रुद्रप्रयाग: केदारनाथ की बर्फ़ से ढकी पर्वतीय शांति के बीच एक योगी से भेंट हुई, उनके चेहरे पर गहराई थी और ऊर्जा में स्थिरता। बातचीत में उन्होंने बताया कि वे केवल फलों पर जीवित हैं, वर्षों से जल तक ग्रहण नहीं किया। यह सुनकर मैं चकित रह गई। “यह कैसे संभव है?” मैंने पूछा। वे शांत भाव से मुस्कराए और बोले, “यह शरीर केवल एक माध्यम है- मोक्ष की ओर जाने का। इसलिए ध्यान दो, तुम क्या खा रहे हो।”

वह क्षण मेरे साथ रहा, जब मैं हिमालय की गोद से लौटकर नगरों की आपाधापी में लौटी। यहाँ हर बैठक चाय-कॉफी से शुरू होती है, फिर बिस्किट, फिर स्नैक्स even अगर पेट भरा हो। हम भूख से नहीं, आदत, तनाव या औपचारिकता से खाते हैं। कहीं बैठने भर के लिए हम कुछ न कुछ चबाते हैं। शरीर को हमने भोजन का डिब्बा बना दिया है। फिर शिकायत करते हैं- थकावट है, अपच है, बीमारी है।
“हम जो भी एक कौर खाते हैं, वह या तो उपचार की ओर एक क़दम है, या उससे दूर।”

जैन धर्म और कई प्राचीन भारतीय परंपराओं में शरीर को केवल पोषण पाने का यंत्र नहीं, बल्कि आत्मा का मंदिर माना गया है। भोजन करना एक पूजा है, पकाना एक अर्पण है, पाचन एक रूपांतरण है। जैन आहार शास्त्र केवल स्वास्थ्य विज्ञान नहीं, बल्कि गहन आत्मिक चेतना पर आधारित है। हर नियम-सूर्यास्त के बाद उपवास, मूलवाले शाकों से परहेज़, शांतिपूर्वक भोजन-सब अहिंसा के सिद्धांत से जुड़े हैं, जो अदृश्य जीवों की रक्षा करते हैं।

मुझे अपनी माँ की एक बात हमेशा याद रहती है-“सूर्यास्त के बाद मत खाना।” उन्होंने जीवन भर चौविहार या रात्रि भोजन त्याग का पालन किया और उनके पदचिन्हों पर चलते हुए मैंने भी इसे अपनाया। यह अंधविश्वास नहीं था, बल्कि गूढ़ ज्ञान था। रात्रि में भोजन में सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं और पाचन शक्ति भी मंद पड़ती है। उत्तराध्ययन सूत्र कहता है- “रात्रि में मत खाओ; अंधकार में अनेक जीव छिपे होते हैं।” यह शिक्षाएँ केवल हमारे कर्म को नहीं, बल्कि हमारे पाचनतंत्र को भी शुद्ध रखती हैं।

आज विज्ञान भी धीरे-धीरे इन्हीं बातों की पुष्टि कर रहा है। जापान के वैज्ञानिक डॉ. मसारु इमोटो ने यह सिद्ध किया कि जल शब्दों, विचारों और भावनाओं पर प्रतिक्रिया करता है। प्रेम, करुणा और प्रार्थना से बोले शब्दों पर जल ने सुंदर क्रिस्टल बनाए, जबकि क्रोध, द्वेष या घृणा से विकृत संरचनाएँ बनीं। चूँकि हमारा शरीर भी अधिकतर जल से बना है, इसका अर्थ यह है कि भोजन में समाहित हर विचार और भावना हमारे शरीर और मन को प्रभावित करती है।

“जैसा अन्न, वैसा मन। जैसा मन, वैसे विचार।”
-जैन और योगिक शास्त्रों की अंतर्धारा

भोजन केवल ऊर्जा नहीं देता, वह शरीर में कंपन (वाइब्रेशन) भी उत्पन्न करता है। क्रोध, तनाव या लोभ में बना भोजन वही ऊर्जा देता है। प्रेम, मौन और श्रद्धा में पकाया गया भोजन उपचार बन जाता है। यह केवल जैविक बनाम प्रसंस्कृत भोजन की बात नहीं, यह जागरूकता की बात है।

मुझे अब यह समझ में आता है कि जीवन का सच्चा पोषण संतुलन में है। हम सभी सन्यासी नहीं बन सकते, पर हम मध्यमार्ग चुन सकते हैं-जहाँ हम शरीर को सरल, जागरूक विकल्पों से सम्मान दें। हर दिन ताज़े फल, मौसमी सब्ज़ियाँ, स्वच्छ प्रोटीन और साबुत अनाज ले सकते हैं। धीरे-धीरे खाएँ, पूरे ध्यान से चबाएँ और भरने पर रुक जाएँ। तले-भुने व्यंजन, रिफ़ाइंड शक्कर, अत्यधिक कैफ़ीन और मोबाइल स्क्रॉल करते हुए खाने से बचें। सूर्यास्त के बाद शरीर को विश्राम दें और भोजन से पहले आभार प्रकट करें।

“हलका पेट, हलका मन देता है।”
– जैन आचार्य वाणी

पोषण हमारे दिन का मूक निर्माता है। यह तय करता है हम कैसे सोचते हैं, कैसा महसूस करते हैं और कैसे कार्य करते हैं। एक संतुलित, प्राकृतिक और जागरूक आहार न केवल शरीर को पोषण देता है, बल्कि मन को भी स्पष्ट और आत्मा को ऊर्जावान करता है। सच में, सचेत भोजन ही सचेत जीवन की ओर ले जाता है। यह केवल व्यक्तिगत नहीं, आध्यात्मिक साधना भी है।

अपने जीवन के किसी भी उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए-चाहे वह मंदिर हो, कार्यालय हो या रसोई-हमें स्वस्थ शरीर चाहिए और सही पोषण उस स्वास्थ्य की धुरी है। शरीर को सही भोजन से और आत्मा को सही विचारों से पोषित करें। क्योंकि हर कौर केवल अन्न नहीं, एक कर्मिक सौदा होता है।

आइए, इस शरीर को केवल इच्छाओं की पूर्ति का पात्र न मानें, बल्कि अनुशासन, करुणा और चेतना का मंदिर समझें। हमारी थाली केवल स्वाद नहीं, हमारे मूल्यों का प्रतिबिंब बने।

“शरीर मंदिर है, उसे श्रद्धा से पोषित करो।
शरीर वाहन है, उसे मुक्ति की ओर ले जाओ।”


लेखक के विचार व्यक्तिगत हैं।

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