कोई हद्दे निगाह है अब तक
एक प्यारा गुनाह है अब तक।
जिसको चूमा था उसने हौले से
वो हथेली सियाह है अब तक।
कतरे कतरे में इश्क ज़िंदा है
ज़र्रे ज़र्रे में आह है अब तक।
वही अंदाज़ हैं विफरने के
वही कातिल निगाह है अब तक।
मेरे एहसास की सुरँगों में
तेरे गेसू की छाँह है अब तक।
डॉ जय नारायण बुधवार
लखनऊ,प्रधान संपादक–‘कल के लिए’
(दिव्यांगों की सम्पूर्ण पत्रिका)