कितना भी बांट लो ये मोहब्बत न जाएगी
हाथों में लिए हाथ ये संगत न जाएगी।
साहिर के लफ्ज़ हों कि खय्याम की धुन हो
जो बस गयी है रूह में जन्नत न जाएगी।
गुरद्वारे हों मंदिर हों,या दरगाह कोई हो
फितरत में आ गई है इबादत न जाएगी।
कमजोर कहे या कोई डरपोक समझ ले
आखीर उम्र में ये शराफत न जाएगी।
ये प्यार खरीदा है यही बेचेंगे यारों
अब भा गयी है इसकी तिजारत न जाएगी।
डॉ जय नारायण बुधवार
लखनऊ
प्रधान संपादक– ‘कल के लिए’ (दिव्यांगों की सम्पूर्ण पत्रिका)