नई दिल्ली: वक्फ संशोधन विधेयक पर संयुक्त संसदीय समिति देश भर घूम कर सभी को सुन रही है। डेढ़ करोड़ ईमेल और अस्सी हजार कागजात सुझाव के नाम पर अब तक मिल चुके हैं। 8 अगस्त को अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री और सेंट्रल वक्फ काउंसिल के अध्यक्ष किरण रिजिजू वक्फ कानून में 44 संशोधनों का मसौदा संसद में पेश करते हैं। अल्पसंख्यक समुदाय के गरीब और कमजोर लोगों द्वारा लगातार सरकार पर दबाव बनाने का नतीजा इसे बताते हैं। जनता दल (यू) के नेता लल्लन सिंह समेत कई सांसदों ने इसका खुल कर समर्थन भी किया है। लेकिन विरोध की आवाजें भी कम नहीं हैं। इस वजह से नब्बे के दशक में एक दिन उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री रहे जगदंबिका पाल की अध्यक्षता में 31 सदस्यों की संसदीय समिति बनाई गई है।
वक्फ से जुड़े उलेमा और राजनीतिज्ञों के साथ विचार विमर्श की लोकतांत्रिक प्रक्रिया चल रही। दोनों सदनों में संख्या बल के बावजूद सरकार संवेदनशीलता के साथ इस मुद्दे पर आगे बढ़ती प्रतीत होती है। इस मामले में 1954, 1995 व 2013 के संशोधन से पहले यदि ऐसी गहन लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाई होती तो ऐसी विकराल स्थिति उत्पन्न नहीं हो पाती। आक्रामक पोजीशन अख्तियार किए लोग भी दहाड़ नहीं रहे होते। अब मुस्लिम समाज में मौजूद मध्यकालीन रूढ़ियों के पोषक तत्त्वों के सामने में सुधारवादी तत्त्व खड़ा होने का जतन करने लगे हैं। बीसवीं सदी में अंग्रेजी राज के छत्रछाया में सीमित रहे भारत के सामने इक्कीसवीं सदी की उदारता भी मचल रही है। क्या सिर तन से जुदा करने की पैरवी करने वालों की नैसर्गिक न्याय और शाश्वत धर्म की कसौटी पर खरा उतरने की यह कोशिश कामयाब होगी? यदि ऐसा होगा तो तीन तलाक के बाद इस्लाम में सामाजिक सुधार का दूसरा कार्यक्रम साबित होगा।
वक्फ विवाद के उदाहरण : हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला के संजौली में बनाए गए मस्जिद का मामला चर्चा में है। पांच मंजिल की मस्जिद पर वक्फ बोर्ड ने कोर्ट में हलफनामा दायर कर कहा है कि उपर की मंजिल कौन बना गया, उन्हें पता ही नहीं है। तमिल नाडु के मानेंदियावली चंद्रशेखर स्वामी का मंदिर 1,500 सालों से 369 एकड़ भूमि पर पसरा है। सूबे के वक्फ बोर्ड ने इस मंदिर की संपत्ति पर दावा कर दिया है। तिरुप्पुर जिले के अविनाशी और थोट्टीपलायम में 93 संपत्तियों पर 8 अगस्त वक्फ दावा दोहराती है। देवेंद्रार समुदाय के 216 पिछड़े परिवारों को 1996 में राज्य सरकार ने पट्टे पर साढ़े छः एकड़ भूमि आवंटित किया था।
अब उनकी स्थिति दयनीय है। गुजरात वक्फ बोर्ड ने तीन साल पहले भेंट द्वारका के दो द्वीपों पर दावा हाई कोर्ट में किया, जिसे खारिज किया गया। सुन्नी वक्फ बोर्ड का ताज महल पर दावा सुप्रीम कोर्ट में खारिज हो चुका। रिलायंस समूह के मालिक मुकेश अंबानी के घर एंटीलिया को यतीमखाना बताने वाला केस कोर्ट में लंबित है। जे.पी.सी. की तीसरी बैठक में अधिकारियों ने दिल्ली में वक्फ की 200 से ज्यादा विवादित संपत्तियों का ब्यौरा सामने रखा था। भूमि और विकास कार्यालय (एलएंडडीओ) ने 108 संपत्तियों पर और डी.डी.ए. (दिल्ली विकास प्राधिकरण) ने 138 संपत्तियों पर स्वामित्व का दावा किया है। संप्रग सरकार अपने अंतिम काल में राजधानी की 123 संपत्तियों को वक्फ बोर्ड के हवाले कर नियत भी साफ कर दिया था। इसकी आड़ में अरसे से जारी जमीन कब्जाने के षड्यंत्र का यह खुला खेल भी सामने है। पूर्व रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी कांग्रेस की हार के पीछे पार्टी की इस नीति को ही जिम्मेदार बताते।
जस्टिस शाश्वत कुमार कमिटी 2011 में सेंट्रल वक्फ काउंसिल एवं राज्यों में कार्यरत वक्फ बोर्ड से जुड़ी संपत्तियों का ब्यौरा दिया था। कुल 1,20,000 करोड़ रुपए की वक्फ बोर्ड की संपत्ति से सालाना 12,000 करोड़ रुपए की अनुमानित कमाई के बदले 163 करोड़ रुपए की बात सामने आती है। इमाम को सरकारी खजाने से वेतन देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 21 को 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 27 से ऊपर बताया था। इस बात पर सवाल उठाने पर केन्द्रीय सूचना आयुक्त रहते उदय माहुरकर को मुश्किलों का सामना करना पड़ा। सजा के तौर पर टर्म रिन्यू नहीं किया गया। वक्फ के प्रबंधन के लिए विशेष प्रशिक्षित नौकरशाह की नियुक्ति पर शाश्वत समिति और सच्चर समिति की रिपोर्ट से अब तक चर्चा चल रही है।
संसदीय समिति देश में बेतहाशा बढ़ रही वक्फ बोर्ड की संपत्ति पर उठते सवालों के निवारण के प्रयास में लगी है। भारत की आठ लाख एकड़ भूमि पर फैले 8,72,292 संपत्तियों पर काबिज हैं। विभाजन के समय 52,000 संपत्ति पर कब्जा रहा। इक्कीसवीं शताब्दी के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। वक्फ संपत्तियों का 2009 का आंकड़ा चार लाख एकड़ भूमि पर फैली तीन लाख इकाइयां दर्ज करती है। सेना और रेल के बाद तीसरा बड़ा जमींदार साबित हुए हैं। इसके बूते रूस और यूक्रेन के उपरांत इजराइल और फिलिस्तीन बनाने का दावा करने वाले बांग्लादेश बना देने की धमकी दे रहे हैं। इन्होंने तमाम विभाजनकारी अवयवों को साधने में कमी नहीं किया है। क्या गरीब मुस्लिम और दलित अपने समुदाय के सामंतवादी तत्त्वों के सामने दम तोड़ने को ही अभिशप्त हैं? इसका जवाब आधुनिक भारत के स्वरूप पर असर डालेगा।
मनमोहन सिंह सरकार 2013 में वक्फ कानून में संशोधन से पहले ही अपनी नीति स्पष्ट करती है। मुस्लिमों के लिए देश के संसाधनों पर पहला अधिकार तय किया था। नेहरु के कार्यकाल में ही पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों की संपत्ति वक्फ को सौंपने हेतु 1923 के कानून में संशोधन किया गया। संसद 1954 में नया कानून बनाकर वक्फ की संपत्ति में वृद्धि की पटकथा लिखती है। इनमें से अनेक संपत्ति शत्रु संपत्ति अधिनियम के तहत विचाराधीन हैं।
उदारीकरण के दौर में इनके लिए सेक्युलरवाद की परिभाषा खूब उदार हो गई। यह 1995 में हुए संशोधन से स्पष्ट है। इसके सेक्शन 3 में कहा गया है कि वक्फ किसी संपत्ति को अपना मान कर उस पर कब्जा कर सकती। सेक्शन 40 ऐसी संपत्ति पर दावा खारिज कराने के लिए असली मालिक को ही कठघरे में खड़ा करने में सक्षम है। सेक्शन 85 के तहत वक्फ ट्रिब्युनल को यदि भूस्वामी संतुष्ट नहीं कर सका तो संपत्ति वक्फ की मानी जाएगी। 2013 में वक्फ द्वारा कब्जा की गई ऐसी संपत्ति को न्यायिक समीक्षा से परे माना गया है। उदारता की यह मिसाल पश्चिम अथवा पूरब का कोई देश क्या कभी कायम कर सकेगा?
जे.पी.सी. के भाजपा सदस्य निशिकांत दुबे शत्रु संपत्ति की समीक्षा के साथ वक्फ की संपत्ति का इस्तेमाल धार्मिक और लोक कल्याण के कार्यों के लिए सुनिश्चित करने की पैरवी करते। द्रमुक नेता ए. राजा 1913 में पहली बार वक्फ एक्ट लागू करने जैसे तथ्य का संज्ञान नहीं लेने से नाराज हैं। धरती माता की संतानों को जमीन की खरीद फरोख्त का धंधा सिखाने हेतु फिरंगियों ने अथक प्रयास किया था। इसके तहत 1863 में ही रिलीजियस एंडोमेंट एक्ट और 1890 में चेरिटेबल प्रॉपर्टी एक्ट लागू किया गया। संशोधन के पक्ष में व्यापक समर्थन जुटाने की चुनौती भी सरकार के सामने जटिल है। दूसरे धर्मावलंबियों को वक्फ से बाहर रखने की मांग हो रही है। संविधान में वर्णित धार्मिक स्वतंत्रता का सवाल विमर्श के केन्द्र में है। समानता के सिद्धांत पर तुष्टिकरण की नीति हावी दिखती।
इस्लाम में अवैध कब्जेदारी को हराम माना गया है। इस मामले में आजादी का दायरा याद रखना चाहिए, जो सिखाता है कि कहां पर दूसरे के आजादी की सीमा शुरु होती है। किसी भी धार्मिक स्थान के प्रबंधन में सरकार और दूसरे धर्मावलंबियों की दखलंदाजी ठीक नहीं है। लेकिन सुधार की प्रक्रिया में उन्हें सहयोगी नहीं बनाने पर खोटी नीयत का इजहार भी हो जाता है।