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कविता – गुनहगारों की बस्ती

Manoj Rautela by Manoj Rautela
30/12/20
in साहित्य
कविता – गुनहगारों की बस्ती

चित्रा पंवार

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-गुनहगारों की बस्ती-
माना 
कि ये नहीं होते बेटा और  बेटी
परंतु तुम्हारे गर्भ से जन्मी औलाद तो है न
जिनके पैदा होने पर 
वैसे ही उमड़ घुमड़ आँचल से बही होगी ममता
जैसे बहती है जब पैदा होते है बेटा और बेटी
पति पत्नी बन कर
नहीं बसा सकते परिवार
तो क्या प्रेमी भी न होने दोंगे इन्हें
वैसे भी
प्रेम करने की शर्त तो नही है
स्त्री या पुरुष होना
जन्मते नही संतान 
इसलिए वंचित कर दिए गये 
माँ बाप के अधिकार से ?
वात्सल्य में डूबे नन्द यशोदा से
ये भी बन सकते थे किसी कन्हैया के माँ बाबा
बड़े भाई सा फर्ज और बहन सा ख्याल न रखते
मगर  अपने सहोदरों का 
दोस्त बन हर कदम पर साथ तो निभाते 
शिक्षा मिलती तो आत्मनिर्भर होते
स्वाभिमान की रोटी से पेट भरते
मगर अफ़सोस !
बिना किसी गुनाह के 
जो कुछ भी इनका था
बेशक इनका था 
इनसे छीन लिया गया
आखिर होते कौन है हम 
इनसे छिनने वाले
नहीं ! बिल्कुल नहीं
देह की बेहद छोटी अपूर्णता
इनके मस्तिष्क ह्रदय कौशल प्रेम
 और खुशियों की राह नहीं रोक सकती
कलम पकड़ने वाले हाथ 
ताली पीटकर भीख नहीं मागेंगे
जीवित माँ बाप के होते हुए
अनाथ बनकर नही जियेंगे
घर बार होते 
सीलन भरी तंग गलियों की दम घोटू 
कोठरियों में नहीं मरेंगे
दुसरो की खुशियों में बधाई नही मांगेंगे
अपितु इन्हें अधिकार होगा
अपने जीवन में खुशियों का स्वागत करने का
आओ मिलकर लड़े
उनके लिए 
जिन्हें इंसान होते हुए भी 
कभी मन बहलाव की वस्तु से अधिक समझा ही नहीं गया 
उनके हड़प लिए गये स्थान रिक्त कराने होंगे 
उनका खोया हुआ सम्मान सोपना होगा सूद समेत
बनाने होंगे सख्त से सख्त कानून
उनके हित में
बस यही एक मार्ग है 
हम सब के पास
अपने गुनाहों की कालिख पोछने का
हो सके तो 
इस गुनहगारों की बस्ती को
कभी माफ़ मत करना ।।
    ~ चित्रा पंवार~

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