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हनुमान जयंती : अतुलित बल धामं… हेम शैलाभदेहं…

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
11/11/23
in धर्म दर्शन, मुख्य खबर, साहित्य
हनुमान जयंती : अतुलित बल धामं… हेम शैलाभदेहं…
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गौरव अवस्थी


कलियुग के जीवित देवता माने जाने वाले केसरी नंदन श्रीहनुमान जी के जन्म की पुराणों में की कथाएं विभिन्न प्रकार से पाई जाती हैं। ऐसी ही एक कथा में कार्तिक मास की चतुर्दशी हनुमान जयंती के रूप में मानी जाती है। आज कार्तिक मास की चतुर्दशी है । इस दृष्टि से आज हनुमान जयंती है।

वैसे, कोई-कोई श्रावण मास की एकादशी को हनुमान जी का जन्म मानते हैं। माना जाता है कि उस दिन श्रवण नक्षत्र में कमलनयनी अंजना माई ने सूर्योदय के समय कानों में कुंडल और यज्ञोपवीत धारण किए हुए कौपीन पहने सुवर्ण के समान रंग वाले सुंदर पुत्र हनुमान को जन्म दिया।

श्री हनुमान जी के अवतरण से संबंधित एक कथा है -‘एक समय शिव जी ने भगवान विष्णु का मोहिनी रूप देखा। उन्होंने श्री राम के कार्य की संपन्नता को दृष्टि में रखकर अपना वीर्यपात किया। शिवजी से प्रेरित सप्तर्षियों ने उसको माता अंजनी में कर्ण मार्ग से प्रवेश कराया। उस वीर्य से महाबली और महापराक्रमी वानर शरीर वाले हनुमान रूप में शिव अवतरित हुए। इसीलिए उन्हें 11वें रुद्र के रूप में भी माना जाता है। श्री हनुमान जी को शिव के प्रमुख गण नंदी के रूप में भी वर्णित किया गया है।

गीता प्रेस के श्री हनुमान अंक में श्री रामलाल द्वारा लिखित लेख-‘श्री रूद्र रूप हनुमान’ के मुताबिक, ‘हनुमत्तसहस्रनाम’ के 89वें श्लोक में श्री हनुमान जी का एक नाम नंदी भी कहा गया है। इससे संबंधित प्रसंग इस तरह है-‘एक बार कैलाश पर्वत पर पुष्पक विमान की गति को अवरुद्ध देखकर राक्षस राज रावण ने दृष्टि दौड़ाई तो उसे पर्वत शिखर पर वानर रूप में स्थित नंदी दीख पड़े। उन्हें देखकर रावण खिलखिला कर हंस पड़ा। तब नंदी ने रावण को श्राप देते हुए कहा- दशग्रीव इस पर्वत पर स्वयं भगवान शंकर कीड़ा कर रहे हैं। तुम विमान द्वारा उस स्थान के निकट जा रहे हो और साथ ही मेरा उपहास भी कर रहे हो। उन्होंने श्राप दिया कि प्रजापति पुलह के वंश में तुम्हारा विनाश करने के लिए मेरे ही मुख के से मुख वाले महापराक्रमी में भयंकर वानर उत्पन्न होंगे।

उनके मुताबिक, विष्णुधर्मोत्तरपुराण में उपर्युक्त श्राप के क्रम में रुद्रांश का हनुमदरूप में प्रकट होने का संकेत मिलता है और इसका स्पष्टीकरण पुराणों में भी प्राप्त है। इसीलिए नंदी की गणना 11हवें रुद्र के रूप में की गई है। भगवान विष्णु के अंशु सहित श्री राम रूप में प्रकट होने पर उनके कार्य की संपत्ति संपन्नता के लिए ही नंदी हनुमान के रूप में अवतरित हुए-

शिलादतनयो नन्दी शिवस्यानुचर: प्रिय:।
यो वै चैकादशो रुद्रो हनूमान से महाऋषि:।।
अवतीर्ण: सह्ययार्थ विष्णोरमिततेजस:।।
(स्कंदपुराण माहेश्वर केदार. ८/९९-१००)

लेख के ही मुताबिक, महाराज भोज ने स्वरचित ‘चंपू रामायण’ में लिखा है कि रावण समीर पुत्र हनुमान को अपने सम्मुख उपस्थित देखकर आश्चर्यचकित हो गया। उसे कैलाश उठाने के अपराध में नंदीश्वर ने जो श्राप दिया था, उसका उसे स्मरण हो आया और उसने समझ लिया कि शिव पार्षद नंदी स्वयं वानर रूप में यहां आ गए हैं। इसी तरह महाकवि गिरधर कृत गुजराती रामायण में भी वर्णन किया गया है कि केसरी की पत्नी अंजनी की तपस्या से प्रसन्न होकर रूद्र ने उसे वर मांगने के लिए कहा। भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर वरदान दिया कि तुम्हारे उधर से 11हवें रूद्र प्रकट होंगे-

शंकर कहे धन्य अंजनी तने पुत्र थाशे नेट।
रुद्र जे अगियारमा, ते प्रगटशे तुज पेट।।
(गिरधर रामायण, बालकाण्ड १२/२७)

अवधी भाषा में रामकथा के प्रथम गायक हनुमान जी

कल्याण के हनुमान अंक में स्वामी श्री सीतारामशरण जी महाराज के लेख-‘ त्रेता युग में श्री हनुमान जी द्वारा अवधी भाषा में श्री राम कथा का शुभारंभ’ में माना गया है कि लोक भाषा में सबसे पहले श्रीहनुमान जी ने ही राम कथा का शुभारंभ त्रेता युग में कर दिया था। वह लिखते हैं कि जगज्जननी माता सीता को अपना परिचय देने के समय श्रीहनुमान जी ने विचार किया कि यदि मैं मां जानकी के समक्ष संस्कृत भाषा में वार्तालाप करता हूं तो रावण जानकर वह मुझसे भयभीत हो जाएंगी। इसलिए मुझे उनके साथ मनुष्य की भाषा में ही वार्तालाप करना चाहिए। उनके मुताबिक, श्री गोविंदराज जी लिखते हैं कि ‘मानुषं वाक्यम’। मनुष्य वाक्य का अर्थ है -कौशल देशवासी मनुष्य की भाषा, क्योंकि माता सीता इसी भाषा से परिचित हैं। उन्होंने लिखा है कि वेद एवं व्याकरण आदि के ज्ञाता होने पर भी श्रीहनुमान जी ने अवधी भाषा में माता जानकी को कथा सुनाई। इस तरह त्रेता युग में ही हनुमान जी ने लोक भाषा में श्री राम कथा का शुभारंभ कर दिया। श्री हनुमान जी और माता जानकी के बीच के इस वार्तालाप को रामकीर्तन कहा गया है।( रामकीर्तन हर्षिता ५/३३/१४)

राज मुद्राओं में श्रीहनुमान
हनुमान अंक में एक लेख- ‘राज-मुद्राओं पर श्री हनुमदाकृति का अंकन’ डॉक्टर विश्वंभर शरण जी पाठक तथा कुमारी श्री मञजु भारती का है। लेख में कहा गया है कि प्राय: उत्तर भारत में स्वामी श्रीरामानंद जी के कारण हनुमान जी की उपासना के विशेष प्रचार की बात सामने आती है लेकिन इस तथ्य के पुरातात्विक साक्ष्य पर्याप्त हैं कि इससे काफी पहले दसवीं शताब्दी में ही हनुमान जी की मूर्ति उत्तर भारत में प्रतिष्ठित हो चुकी थी। सबसे प्राचीन मूर्ति खजुराहो की एक मठिया में प्रतिष्ठित है। इसे 922 ई. का माना जाता है।
राजमुद्रा पर हनुमान जी के चित्र का अंकन सबसे पहले रत्नपुर (छत्तीसगढ़) के कलचुरि नरेश कलिंगराज और उनके पुत्र कमलराज ने श्री हनुमान मुद्रा की परंपरा 11वीं शताब्दी में प्रारंभ की।

इस राजवंश के जाजल्लदेव प्रथम और पृथ्वीदेव ने भी यह परंपरा बनाए रखी। जाजल्लदेव की ताम्रमुद्रा पर राक्षस को पददलित करते हुए द्विभुज हनुमानजी का स्पष्ट अंकन है किंतु पृथ्वीदेव की मुद्राओं पर श्री हनुमान का चतुर्भुज रूप वर्णित मिलता है। चंदेल राजवंश की राजमुद्राओं पर भी श्रीहनुमान का अंकन है। इसका प्रारंभ चंदेल नरेश सल्लक्षण वर्मा ने किया। उनके बाद जय वर्मा, पृथ्वी वर्मा और मदन वर्मा की मुद्राओं में भी यह परंपरा जारी रही।

लेख के अनुसार, कर्नाटक महाराष्ट्र क्षेत्र के देवगिरी के यादवों का राजांङक भी ‘गरुड़सहित हनुमान’ रहा है। मध्यकाल में कर्नाटक श्रीहनुमान भक्ति का प्रमुख क्षेत्र दिखाई पड़ता है। यहां के राजाओं एवं राज्य प्रसाद में भी वानर आकृति प्रयुक्त होती थी। यादव नरेशों की राजमुद्रा हनुमान की आकृति वाली है।

अथ श्रीहनुमान संक्षिप्त कथा..जय श्रीहनुमान

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