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लॉकडाउन में हरिशंकर परसाई

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
06/08/21
in मुख्य खबर, साहित्य
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चंद्रशेखर कुशवाहा चंद्रशेखर कुशवाहा
शोध छात्र
हिंदी विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज


साधो, मैं हरिशंकर परसाई। मृत्यु के बाद मुझे स्वर्ग मिला कि नरक, समझ में ही नहीं आया। ऐसा लग रहा है जैसे आइसोलेशन वार्ड में रख दिया गया हूं। मैं तो कोरोना से प्रभावित भी नहीं था। खैर, इधर नारद मुनि से तुम्हारा समाचार मिलता रहता है। एक समाचार सुनकर तो मुझसे रहा नहीं गया। सो, लिख दे रहा हूं। नारद जी ने बताया कि कुछ लोग मेरी रचनाएं पढ़ते हुए पाए गए। मेरा तो जी धक्‌ हो गया। इधर कुछ सालों में सबका साथ सबका विकास हो गया। देश में चौकीदारों की फौज तैयार हो गई। भारत विश्व गुरु हो गया। सत्तर सालों से जो विकास अवरुद्ध था, पूरा हो गया। अच्छे दिन आ गए। तो मुझे लगा कि आलोचकों ने मुझे अप्रासंगिक करार दे दिया होगा। लाइब्रेरी में मेरी रचनाओं पर धूल जम गई होगी। अब तो लोग सुकून से रामायण-महाभारत आदि देखते होंगे।

पर साधो, जैसे ही पता चला कि कुछ शोधार्थी मेरे साहित्य पर शोध कर रहे हैं तो मेरा माथा ठनका। सोचा, भला मुझ पर कोई क्या शोध करेगा। साहित्य मेरा और शोध करे कोई और। मैंने अपनी रचनावली पलटनी शुरू की और तुम्हारे यहां के कुछ सालों के समाचारों पर नजर दौड़ाई। भला वो लेखक भी कोई लेखक है जो अपने साहित्य की निगरानी न करे और दूसरों पर आलोचना करता फिरे। इधर पूरे विश्व में महामारी फैली हुई है। तुम चाहते तो अपने भारत को बचा सकते थे। पर तुम तो कुरान की आयतें पढ़ने और गोमूत्र पीने में लगे थे। तुम्हारे यहां तो अन्य विकसित देशों की अपेक्षा सुविधाएं भी बहुत कम है। पर तुम नए भारत में आंख मूंदकर मस्त पड़े थे…

होइहिं सोई जो राम रचि राखा

तुलसी से झगड़ने का मन करता है। पर क्या करूं। न वो रहे ना मैं रहा। पर हमारी आत्माओं की बातचीत होती रहती है। एक दिन बड़े व्यथित थे। मैंने कारण पूछा तो कह रहे थे कि हम से भी बड़ा एक कवि हो गया है। नाम है-अनुराग ठाकुर। उसने दो पंक्तियों की कविता लिखि- देश के गद्दारों को गोली मारो सालों को। बस पूरे देश में प्रसिद्ध हो गया। जबकि हमको इतना बड़ा पोथन्ना लिखना पड़ा। इस बीच तुम्हारे यहां कई काम हुए। शाहीन बाग में करंट की व्यवस्था की गई। गोली का इंतजाम किया गया। दिल्ली दंगे का प्रावधान किया गया। साथ ही उसके समानांतर एक स्टेडियम में जश्न भी मनाया गया…हाँ, जश्न ही तो था। तुम क्या कहोगे उसे?

इधर नारद के माध्यम से विष्णु से भी बातचीत होती रहती है। घबराए रहते हैं। कहते हैं मेरी बात कोई मानता ही नहीं। गीता में मैंने अपनी बात लिखवाई थी कि-मैं ही सब कुछ हूं। लोग समझते ही नहीं कि मैं ही हिंदू हूं और मैं ही मुसलमान। गोस्वामी जी भी गुहार लगाए बैठे हैं कि मैंने तो अपने हाथों से लिखा था कि-सियाराममय सब जग जानी। कोई मानता ही नहीं। कोई कहता है कि यह मेरा देश है, और कोई कहता है कि नहीं सिर्फ मेरा है। इसी चक्कर में रोज ही सिर फुतव्वल होता रहता है। लगता है कि सरकार शिक्षा शुल्क बढ़ाए जा रही है जिससे लोग किताबों और विश्वविद्यालयों के मुहाने तक ठीक से नहीं पहुंच पा रहे हैं।

साधो, तुम्हारे यहां गरीबों-मजदूरों की बुरी हालत है। नारद जी बता रहे थे कि बेचारे भूखे मर रहे हैं। रेलगाड़ी की पटरी के ऊपर कटने के लिए बिछने को मजबूर हैं। सुना है वह रोटी मांगते हैं तो तुम्हारे यहां का महापुरुष उन्हें त्याग और तपस्या करने की प्रेरणा दे रहा है। पूरा देश उन्हीं के कंधे पर टिका है। वह जाबाज सैनिक हैं। इसलिए लेबर ला में परिवर्तन करके उनके कंधे का भार बढ़ाया जा रहा है। मेरे उपन्यास रानी नागफनी की कहानी में कुंवर अस्तभान ने मुफतलाल से कुछ कहा था| जरा देखो तो मजाक तो नहीं कह रहा मिला लो अपने समय से कि तुम प्लस में गए हो कि माइनस में। मैंने तो बहुत साल पहले जवानी में लिखा था। जवानी में अक्सर गड्ड मड्ड होता रहता है।

अस्तभान हंसा। कहने लगा “ऐसा नहीं है। युद्ध कभी-कभी आवश्यक भी होता है। और उससे बड़ी बड़ी समस्याएं हल हो जाती हैं। एक बार हमारे राज्य में भयंकर गरीबी फैली। लाखो आदमी भूखे और नंगे रहने लगे। वे उधम मचाते और राज महल के सामने इकट्ठे होकर पिताजी से रोटी और कपड़ा मांगते। पिताजी को लगा कि वह सरकार को पलट देंगे। उन्होंने एक तरकीब निकाली। एक दिन बड़ी जोशीली अपील जारी की जिसमें कहा कि-राजा निर्भय सिंह ने हमारी तीन वर्ग फीट जमीन अपने राज्य में मिला लिया है। इस भूमि के निवासी, जो हमारे भाई हैं और हमारा धर्म मानते हैं, हम से अलग हो गए हैं। हम यह बर्दाश्त नहीं कर सकते। हम अपनी भूमि का एक इंच भी किसी को नहीं देंगे। वीरों उठो, मातृभूमि के सम्मान के लिए खून बहा दो और उस तीन वर्ग फीट भूमि पर बसने वाले भाइयों को अपने में मिला लो। बस लोग भूख प्यास भूल कर लड़ने चल दिए। और कपड़े की समस्या अपने आप ठीक हो गई। अभी भी जब प्रजा असंतोष प्रकट करती है तो पिताजी उसे उस तीन वर्ग फीट जमीन की याद दिला देते हैं।“

साधो, तुम्हारे यहां के पत्रकारों से अच्छा तो हमारे नारद जी हैं। मनगढ़ंत बिना जांच पड़ताल किए खबरें तो नहीं सुनाते। जबकि वे चाहें तो इंद्र को रोज भड़काए रहें। कभी-कभी तो हंसते हंसते पेट फूल जाता है, तुम्हारे यहां की खबरें सुनकर। तुम्हारे यहां के प्रधानमंत्री हैं नरेंद्र मोदी। और सवाल पूछा जाता है इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू से। एक दिन ब्रह्म लोक से नारद जी लौटे तो बोले भारी चूक हो गई। ब्रह्मा जी ने गलती की थी। नेहरू-इंदिरा को पैदा करने का समय तो अब आया है। खैर, 1957 में मेरी लिखी अरस्तु की चिट्ठी देखो। तुमने खुद को सुधारा की बिगाड़ लिया।

और सांप्रदायिक आग भड़काने वाले समाचारों में देख लीजिए-देव प्रतिमा को मुसलमानों ने खंडित किया। हिंदू स्त्री तो मुसलमान लेकर भागा। फला जगह गाय की हत्या। इसका कारण यह है कि तुम्हारे यहां स्वतंत्र पत्र हैं नहीं। और जहां स्वतंत्र पत्रकारिता का अभाव हो उस प्रजातंत्र का आखिर क्या होगा। तुम्हारे यहां अधिकांश पत्र पूंजीपतियों के हैं। और यह लोग हमेशा तत्कालीन सरकार के साथ हो जाते हैं। आजकल ये कांग्रेस के साथ हैं। जो विरोध के पत्र हैं, वह गरीब हैं। सरकार की तारीफ करने वाले पत्र को सरकारी विज्ञापन मिलते हैं। यह इतनी बड़ी कीमत है कि अखबारों का ईमान बिक जाता है। विकास के कितने समाचार छपते हैं। अगर कोई इन्हे पढे तो लगेगा कि भारत में समृद्धि और सुख की कोई सीमा नहीं है। पर लोग भूखे ही मर रहे हैं।“ अब साधो, जहां विकास लिखा है वहां सबका साथ और सबका विकास लिख लो। और फिर पढ़ो। अच्छी बात यह है कि इस बात को मैंने 1957 में लिखा था। 2020 में लिखता तो देशद्रोही हो जाता।

तुम्हारे यहां के प्रधानमंत्री का तो मैं कायल हूं। उनकी भाषा बहुत ही लच्छेदार होती है। अनुप्रास साधना हो तो सीख लिया करो। नारद जी बता रहे थे कि बच्चों को निबंध लिखने में बहुत मदद करते हैं। आधे से अधिक भाषण में तो त्याग‌ तपस्या और बलिदान, सैनिक, नया भारत, सत्तर साल, सोने की चिड़िया आदि शब्दों से समां बांधते हैं। आम आदमी जब फूल कर गुब्बारा हो जाता है, तो कुछ पैकेज उसके उसी खाते में डालने की घोषणा करते हैं, जिसमें एक बार पंद्रह पंद्रह लाख रुपए…। खैर, वह छात्रों और गरीबों दोनों की सोचते हैं। छात्र परीक्षा में टेंशन ना लें इसके लिए भी कार्यक्रम बीच-बीच में करते रहते हैं। तुमको एक छोटी सी कथा सुनाता हूं। एक बार में अटल बिहारी बाजपेयी से मिलने जा रहा था। तो रास्ते में कनछेदी मिल गया। “पूछा- कहां चले?

मैंने कहा-एक और नेता से मिलने, जो कई की तरह अपने को देश का भाग्य विधाता समझता है- अटल बिहारी बाजपेयी। घंटे भाषण उसका सुनो बड़ा मजा आता है पर घर जाकर सोचो इसने क्या कहा, तो जवाब निकलता है कि कुछ नहीं। बस वह बोलता है। क्या बोलता है यह मत पूछो। बस मूंगफली खाते जाओ और भाषण सुनते जाओ।“ साधो, यह तो कनछेदी की अपनी बात थी। पर अटल बिहारी पचास सालों की प्रगति का सम्मान करते थे। पर तुम्हारे प्रधानमंत्री तो कहते हैं कि 70 सालों से कुछ हुआ ही नहीं। फकीरों से सावधान रहना। वरना झोला उठाएंगे और चले जाएंगे।

एक बात और बताऊं? तुम हंसना मत। तुम्हारी समस्या यह है कि तुम समझते कम हो, हंसते बहुत हो। तुम्हारे यहां तर्क भावना के तलवे चाटता है। एक बार तो मेरी भेंट एक गौ भक्त से हो गई। बातचीत होने लगी मैंने कुछ पूछा तो स्वामी जी मेरी तरफ देखने लगे। बोले, ”तर्क तो अच्छा कर लेते हो बच्चा, पर यहां तर्क की नही, भावना की बात है। इस समय जो हजारों गौ भक्त आंदोलन कर रहे हैं, उनमें शायद ही कोई गो पालता हो। पर आंदोलन कर रहे हैं। यह भावना की बात है।“
फिर मैंने पूछा- “स्वामी जी, आप तो गाय का दूध ही पीते होंगे?”
“नहीं बच्चा! हम भैंस के दूध का सेवन करते हैं। गाय बहुत कम दूध देती है। और वह पतला होता है। भैंस के दूध की बढ़िया गाड़ी मलाई और रबड़ी बनती है।“
“तो क्या सभी गौ भक्तों भैंस का दूध पीते हैं?”
“हां बच्चा! लगभग सभी।“
“तब तो भैंस का रक्षा आंदोलन करना चाहिए। भैंस का दूध पीते हैं मगर माता गाय को कहते हैं। जिसका दूध पिया जाता है वही तो माता कहलाएगी।“
“यानी भैंस को हम माता….. नहीं बच्चा! तर्क ठीक है पर भावना दूसरी।“
“पर स्वामी जी! यह कैसी पूजा है कि गाय हड्डी का ढांचा लिए मोहल्ले में कागज और कपड़े खाती फिरती और जगह जगह-जगह पिटती है।“
“बच्चा यह कोई अचरज की बात नहीं। हमारे यहां जिसकी पूजा की जाती है उसकी दुर्दशा कर डालते हैं। यही सच्ची पूजा है। नारी को भी हमने पूज्य माना है और उसकी जैसी दुर्दशा की, सो तुम जानते हो।“
देख लो साधो,मेरे समय में और तुम्हारे समय में कोई अंतर हो तो बताना और माइनस में चले गए हो तो थोड़ा शर्म करना वरना डरने की कोई बात नहीं। खाओ-पियो मौज करो। आजकल मैं तो खुद को ही पढ़ रहा हूं। तुम भी मुझे पढ़ रहे हो तो पढ़ा करो। कोई मनाही नहीं है। पर याद रखना मैं आप्त पुरुष नहीं हूँ। और आप्त पुरुष कोई नहीं होता। भ्रम में मत रहना। तमाम अच्छे लेखक हैं। सब को पढ़ा करो। मैं तो सोच रहा हूं कि इसी तरह पढ़ते-पढ़ते अपने पर एक थीसिस तैयार तैयार कर लूं। तुम मुझे आत्ममुग्ध लेखक तो नहीं कहोगे…?

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