राजेश शर्मा
पहले सामाजिक दृष्टिकोण से सिनेमा देखना अच्छा नहीं माना जाता था। तत्पश्चात समय बदलता गया और सिनेमा मनोरंजन का प्रमुख माध्यम बन गया । मध्यभारत जो बाद में मध्यप्रदेश कहलाया गया इस प्रदेश के होल्कर शासकों वाले इंदौर में चलचित्रों की लोकप्रियता बढ़ती गई और एक समय ऐसा आया तब लगभग पच्चीस से अधिक चलचित्र गृह इंदौर में जनता के मनोरंजन हेतु बने । बात करें इतिहास की तो इंदौर में सिनेमा 1917 में आया था। तब जवाहर मार्ग पर वाघमारे के बाड़े में छोटी छोटी गूँगी अंग्रेजी फिल्में कारबेटर की रोशनी में दिखाई जाती थी। 2आने, 4आने, 6आने, 8आने की टिकिट हुआ करती थी। उस दौरान प्रोजेक्टर हाथों से घुमाते थे। पर्दे पर द्रृश्य कभी तेज, कभी धीमे नजर आते थे। सिनेमा के परदे के सामने नाचने-गाने वाले बैठते थे और बैकग्राउंड म्यूजिक देते थे। इंटरवल में भी दर्शकों के लिए प्रोग्राम देते थे। उस समय यह सब कुछ अजूबे और चमत्कार से कम नहीं था। 1918 में नंदलालपुरा में रायल सिनेमा आया, जो टेंट में चलता था। इसी साल सेठ धन्नालाल-मन्नालाल ने मोरोपंत सावे की पार्टनरशिप में बोराड़े थियेटर बनाया। इसके दो शो चलते थे। शाम को अंधेरा होने पर लोग अपने जान-पहचान वालों से नजरें बचाकर चलचित्र देखने जाते थे।
1922 में नरहरि अड़सुले ने श्रीकृष्ण टाकीज बनाया। बाँस की खपच्चियों और टीन की चद्दरों से यह बनवाया गया था। बाद में पक्का कराया गया । 1923 में क्राउन टाकीज बना, कालांतर में इसका नाम बदलकर प्रकाश टाकीज किया गया। 1931 में भारत की पहली बोलती फिल्म आलमआरा श्रीकृष्ण टाकीज में लगी थी। इसको देखने 200 किलोमीटर दूर से भी लोग आते थे। जानकार सूत्रों के मुताबिक तीन महीनों तक लगातार चली थी यह फिल्म, क्योंकि पहली बार बोलती फ़िल्म दिखने लगी थी।
1933 से प्रतिदिन तीन शो और 1956 से प्रतिदिन चार शो चलाए गए।1947 के बाद धीरे धीरे सभी चलचित्र गृह आधुनिक होने लगे और सुख सुविधाएँ बढ़ने लगी। पहले टिकिट दर दो आने से एक रुपये तक थी। इसके बाद के सालों में बढ़ते बढ़ते टिकट दर एक रूपये से पाँच रूपये हो गई। यहाँ चाय-नाश्ते के केंटीन, पान-बीड़ी की दुकानें, साइकिल पार्किंग इत्यादि व्यवस्थाएँ शुरू से रही। इंटरवल में टाकीज के अंदर तक समोसे-कचौरी, कुल्फी, मूँगफली,चना जोर गरम बिकता था। अनंत चौदस के दिन पाँच छह शोज़ चलते थे। सुबह 9 बजे से लेकर रात 3 बजे तक लोग सिनेमा का लुत्फ उठाते थे।
1927 में सियागंज कार्नर पर प्रभात टाकीज बना,जिसका नाम बदलकर एलोरा टाकीज किया गया। इसके कई वर्षों बाद एलोरा की छत पर अजंता टाकीज भी बना। 1934 में रीगल,डायमंड और नीलकमल टाकीज बने। 1936 में महाराजा, 1942 में मिल्की वे, 1946 में सरोज, 1947 में भारत/नवीनचित्रा,और राज टाकीज, 1948 में स्टारलिट, 1949 में यशवंत, 1950 में अलका/ज्योति, 1965 में बेम्बिनो, 1969 में मधुमिलन, मिल्की वे, स्टारलिट् बना। इसके बाद राज, कस्तूर, प्रेमसुख, स्मृति, कुसुम, देवश्री-अभिनयश्री, सपना-संगीता, सत्यम,अनूप,आस्था और मनमंदिर चंद्रगुप्त टाकीज बने।
इसके बाद ज़माना बदला, लोगों का जीवनस्तर बदला, लोग मॉल के मल्टीफ्लैक्स में सिनेमा देखना पसंद करने लगे। इनकी उच्चस्तरीय जीवन शैली ने सिंगल स्क्रीन चलचित्र गृहों की कमर तोड़नी शुरू कर दी। अत्यंत निर्धन वर्ग की पहुँच के बाहर हो गया सिनेमा। रही सही कसर मोबाइल यानि यूट्यूब जैसे सुलभ साधनों ने पूरी कर दी
लिहाजा इंदौर शहर में चलचित्र गृहों के स्थान पर व्यावसायिक और रहवासी इमारतें बनना प्रारम्भ हो गई और इंदौर में चलचित्र गृह ( सिंगल स्क्रीन ) इतिहास बनने चली गई। बहुत सुनहरा दौर था लोग अपनी पसंदीदा फ़िल्म देखने घंटों पहले लाइन में लग जाते थे। अमिताभ, राजेश खन्ना जैसे सुपर स्टार की फ़िल्म के पहले दिन के पहले शो को देखने बाजे गाजे से जाते थे। आज की पीढ़ी चलचित्र गृहों के वैभवशाली अतीत को अब सिर्फ पुस्तकों में ही पढ़ पाएगी ।