गौरव अवस्थी
नई दिल्ली: पहले चरण के चुनाव में कम मतदान को लेकर मीडिया में कई तरह की रिपोर्ट्स और विश्लेषण पढ़ने-सुनने को मिल रहे हैं। कुछ में कम वोटिंग को लेकर चिंता जताई जा रही है और कुछ विश्लेषण में सत्ता पक्ष के सामने आने वाली मुश्किलों को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जा रहा है। चर्चा के बजाय जिस बिंदु पर ध्यान अधिक जाना चाहिए उस तरफ न पार्टियों का ध्यान जा रहा है और न जिम्मेदार संस्था चुनाव आयोग का। असली बहस जिस मुद्दे पर होनी चाहिए वह मीडिया, पार्टी से लेकर सत्ता तक सिरे से गायब है। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में कम मतदान के लिए गर्मी, सहालग और कटाई के कारण गिनाए गए। यह चिंताएं सतह पर होने वाली हलचल की तरह ही हैं। गर्मी और कटाई के कारण फिजूल हैं क्योंकि पिछले चुनाव भी इसी मौसम में हुए थे।
माना जा सकता है कि कम मतदान के लिए मतदाताओं की उदासीनता ही इसके लिए जिम्मेदार है लेकिन सोचना यह भी होगा कि आखिर लोकतंत्र का भविष्य विधाता अपने इस कर्तव्य से च्युत क्यों रहता है? इसके पीछे नेताओं की गिरती विश्वसनीयता तो नहीं! फिर भी पहले मतदान शब्द की व्याख्या। यह मत+दान संधि से बना हुआ शब्द है। हिंदू धर्म में दान ऐच्छिक माना गया है। साफ है कि मतदान शब्द को अंगीकार करते समय ही स्वीकार कर लिया गया कि मतदान ऐच्छिक है न कि अनिवार्य। जब मत देना अनिवार्य किया ही नहीं गया तो कैसे किसी मतदाता को कम मतदान के लिए जिम्मेदार माना जा सकता है। सबके अपने-अपने तर्क हैं और अपनी-अपनी मजबूरियां।
अपने यहां मताधिकार को भी इस तरह प्रचारित किया गया, जैसे लोकतंत्र की चाबी हमने वयस्क लोगों को पकड़ा दी। वास्तव में है भी लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि वयस्कों में मत के प्रति कर्तव्य की भावना भरने की सच्ची कोशिश से परहेज ही रहा। तंत्र कोई भी हो अपना अधिकार पाना कौन नहीं चाहता लेकिन कम लोग ही होते हैं जो अधिकार को कर्तव्य मानकर आगे बढ़ते हैं। अधिकार का इस्तेमाल सिर्फ अपने लिए ही नहीं दूसरों के लिए भी होता है। फिर देश से बड़ा तो कोई है ही नहीं। धर्म न वर्ग और न जाति-संप्रदाय।
मत को कर्तव्य से जोड़ने की महत्वपूर्ण बात अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने जिस गंभीरता के साथ उठाई है, उसके लिए उनके प्रति हम सबको धन्यवाद अदा करना चाहिए। उनकी यह अपील भी महत्वपूर्ण है कि 5 साल में 5 मिनट देश के लिए जरूर निकालें। सोचिए, जिस देश में 35-40% लोगों के पास देश के लिए 5 मिनट नहीं है, वह क्या केवल अपील से अपने मताधिकार का उपयोग करने लगेंगे। इतनी आसानी से अपने इस कर्तव्य का जिम्मेदारी से निर्वहन करने लगेंगे?
घर में कर्तव्य मां ही सिखाती है। लोकतंत्र में सरकार ही मां की भूमिका में होती है। सरकार की ही जिम्मेदारी है कि वह अपने देश के वयस्क लोगों को मत देने के लिए जागरूक करे। 75 साल बाद भी अगर हम अपने वयस्क नागरिक को मत का महत्व नहीं समझा पाए हैं तो मेरी नजर में अब एक ही रास्ता बचता है वोट न देने वाले को वोटिंग के लिए बाध्य किया जाए। इसका एक ही रास्ता है-नियम और कानून। सत्ता के लिए राजनीति करने वाले दलों और उनके नेताओं से ऐसे किसी नियम कानून की उम्मीद तो बेमानी ही है। अब इसका रास्ता भी कानून की चौखट से होकर ही आ सकता है।
यह बात हम पहले भी लिख चुके हैं कि 75 साल के लोकतंत्र में हमने हर क्षेत्र में कई कई गुना तरक्की की है लेकिन मतदान के प्रतिशत में अब तक केवल 22 फ़ीसदी का ही अधिकतम इजाफा हो पाया है। वह भी चुनाव-दर-चुनाव घटता-बढ़ता रहता है। जैसा इसी आम चुनाव के पहले चरण में ही सामने आया। मतदान की इस धीमी प्रगति पर न अब तक किसी का ध्यान गया है और न आज जा रहा है। दुनिया के कई छोटे-छोटे देशों में 95% तक मतदान होते हैं। कुछ देशों में वोट का इस्तेमाल न करने वाले वोटरों पर प्रतीकात्मक जुर्माने का भी प्रावधान है। अगर वोट न देने की मतदाता की बात तर्कसंगत होती है तो जुर्माने से छूट भी मिल जाती है। बात कुछ तल्ख जरूर है लेकिन मतदाता जब अपनी मनपसंद का प्रतिनिधि चुनने का अधिकार पाकर खुश हो सकते हैं तो बाध्यता पर नाराज क्यों होंगे? आप सहमत हों या ना हों स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अब यह जरूरी लगने लगा है।