शुभ देपावत
करोना संकटकाल व लॉकडाउन में जो मजदूरों के साथ हो रहा है, उसने एक समाज के तौर पर हमें नंगा कर दिया है l जो समाज अपने सभ्य व अच्छे होने की चादर ओढ़े था उसकी चादर इस संकट में उड़कर उसका टुच्चापन व नंगापन सामने आ गया है। यही होता है जब आप ऊपर से अच्छाई की पॉलिस करके रखते हो l
हम केवल सरकार को गालियां देकर, पानी-पीकर कोसकर बरी नही हो सकते l कौन लोग हैं वो जो किराए के अभाव में मजदूरों को अपने घरों से निकाल रहे हैं?
वो कौन लोग हैं जिन्होंने मजदूरों की दिहाड़ी के पैसे रख लिए और उनको मरने के लिए छोड़ दिया?
मान लो आपके यहां दस मजदूर काम करते थे। क्या आपकी इतनी भी औकात नही कि इस दुःख की घड़ी में दस आदमियों को रहना-खाना दे सको?
क्या उन्होंने आपको इतना भी कमाकर नही दिया कि आप इस संकटकाल में उनकी लाज रख सके?
याद रखना वो आपसे कोई फाइव स्टार हॉटल जैसी सुविधा नही मांग रहे हैं उनको बस दो वक़्त की रोटी व रहने को छत चाहिए पर आपकी नीयत में खोट है l
दिल्ली में मेरे जानने वाले कई लोगों ने लॉकडाउन शुरू होते ही अपनी लेबर के लिए इकठ्ठा राशन डलवा दिया और वहीं फैक्ट्री में उनको रोक लिया। मुझे तो नही लगता वो लोग कंगाल हो जाएंगे बस नीयत का अंतर है l
अगर कामगार मजदूरों को उनके पूंजीपति मालिक मानवीयता के नाते रोक लेते तो स्थिति इतनी भयावह नही होती और सरकारों के लिए बाकी अकामगार मजदूरों से निपटना आसान होता।
एक समाज के तौर पर हम सबका ये सामुहिक फेलियर है और हम इस परीक्षा में फेल हो गए हैं और हम सरकारों पर दोष डालकर अपनी चुतियागिरी से बरी नही हो सकते!
मजदूरों की दयनीय दशा देखकर बार-बार दुष्यंत याद आ जाते हैं-
फ़टी हो कमीज तो पांवों से पेट ढक लेंगे।
ये लोग कितने मुनासिब है इस सफ़र के लिए।